पिछले एक महीने से ज्यादा समय से सड़क पर पैदल चलते लोगों की ख़बरें न्यूज़ वेबसाइट्स, सोशल मीडिया और थोड़ा बहुत मुख्य धारा के अख़बारों व चैनलों में पटी पड़ी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक लॉकडाउन की घोषणा कर दी, इससे सबकी जिंदगी ठप हो गई। लेकिन रोज कमाने-खाने वाले लोगों का पेट ठप नहीं हुआ, वह भोजन मांग रहा था और ये लोग भूखे-नंगे अपने पैतृक गांवों व शहरों की ओर भाग पड़े कि शायद उन्हें वहां जिंदा रहने का मौक़ा मिल जाए। यह पूरी तरह से मानव सृजित आपदा है, जो बगैर सोचे-विचारे लॉकडाउन करके थोपी गई।
अब सरकार सब कुछ खोल देने को तत्पर है। नोटबंदी से क्या लाभ हुआ, अब तक सरकार साफ नहीं कर पाई। इसी तरह से लॉकडाउन से क्या लाभ हुआ, यह भी ढूंढना मुश्किल है। क्या अब कोरोना वायरस ने मोदी सरकार से माफी मांग ली है कि वह अब भारत में संक्रमण नहीं फैलाएगा?
लॉकडाउन से क्या मिला?
अब जब भारत में कोरोना के मरीज चीन से ज्यादा हो गए हैं तो क्या लॉकडाउन खोल देना बेहतर है? अब क्या किया जाना चाहिए, यह सरकार से लेकर आम अवाम तक, सबके लिए मुश्किल सवाल है। हां, एक बात साफ हो गई कि रातों-रात लॉकडाउन की घोषणा करना लोकतंत्र के एक बेहद लोकप्रिय शासक का दिमागी फितूर था, जो बड़ी आपदा लेकर आया है। लॉकडाउन से कोरोना तो रुकता हुआ नजर नहीं आ रहा है।
सामुदायिक संक्रमण शुरू!
भारत में अब आधिकारिक रूप से लगभग 86 हज़ार से अधिक कोरोना संक्रमित हैं। पिछले एक महीने में आंकड़े 3 बार दोगुना हुए और मामलों में 8 गुना से अधिक की वृद्धि हुई है। अगले 50 दिन में मामले दो बार ही दोगुना होंगे तो भी उस वक्त तक यह आंकड़ा 3,00,000 तक पहुंच जाएगा। यह न्यूनतम अनुमान है, क्योंकि कोरोना अब समुदाय में फैल चुका है। यह सिर्फ विदेश से भारत आए लोगों तक सीमित नहीं रह गया है।
बीजेपी का सत्ता में आना
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले भारत की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी और दिल्ली में निर्भया गैंगरेप का मामला, अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार का हंगामा बीजेपी के लिए खाद बन गया था। प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में नरेंद्र मोदी ने विदेश से काला धन लाने, भ्रष्टाचार के खात्मे की बात की। मोदी के 5 साल का कार्यकाल पूरा करने के पहले पता चल गया कि ये बातें जुमला थीं। हालांकि इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा और 2019 के चुनाव में मोदी सरकार 2014 से भी ज्यादा प्रचंड बहुमत से सत्ता में आ गई।
गैर बराबरी का बोलबाला
बीजेपी की इस सफलता का राज भारत की सामाजिक व्यवस्था में छिपा हुआ है। देश में गैर बराबरी हर स्तर पर है और लोगों को एक-दूसरे को नीचा दिखाने में चरम सुख की अनुभूति होती है। अंग्रेजों को विदेशी साबित करने के बाद महात्मा गांधी ने भारत की अधिसंख्य आबादी को एकजुट ज़रूर कर दिया था लेकिन भारतीय समाज के भीतर जो गैर बराबरी, शोषण, अधिकारों की लूट थी, वह यथावत बनी रही।
इसके ख़िलाफ़ बाबा साहेब आंबेडकर ने आवाज उठाई और जवाहरलाल नेहरू जैसे कुछ उदारवादी नेताओं ने बराबरी की कवायद भी की। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और इससे जुड़े अनुषांगिक संगठन और तमाम दक्षिणपंथी लोग समता के अधिकार के ख़िलाफ़ लगातार मुखर रहे। उन्होंने दलितों, पिछड़ों को नौकरियां देने का लगातार विरोध किया। हालांकि स्वतंत्रता के बाद लंबे समय तक आरएसएस प्रभावी नहीं हो पाया क्योंकि कांग्रेस में ही दक्षिणपंथियों का एक ताक़तवर वर्ग था जो दक्षिणपंथी सोच के भारतीयों को तुष्ट कर देता था।
लेकिन जैसे ही राज्यों में कांग्रेस से इतर समाजवादी सोच की सरकारें बनने लगीं, दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग एकजुट होने लगे। उन्हें कांग्रेस नहीं बल्कि आरएसएस और बीजेपी में प्राचीन गौरव नजर आने लगा। प्राचीन गौरव का मतलब जातीय श्रेष्ठता और कुछ वर्गों द्वारा उन बहुसंख्य लाचार लोगों के अधिकारों को लूटना था, जो अपनी आवाज खुद नहीं उठा सकते थे।
लौट रहा है भारत का “प्राचीन गौरव”!
अब यह गौरव अपने चरम की ओर लौट रहा है। दक्षिणपंथियों ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा का अभियान चलाया और शोषित हिंदू तबक़े को इस कदर अपने पाले में कर लिया कि बीजेपी अजेय बन गई। बीजेपी के रडार पर अब समाज का वंचित तबका है। अगर इस तबके को अधिकार दिया जाता है तो यह प्राचीन गौरव के ख़िलाफ़ होगा।
इस समय सड़कों पर जो भूखे-नंगे लोग घूम रहे हैं, यह प्राचीनता में गौरव तलाशने वालों के लिए खुशी की बात है। भारत में मनमोहन सिंह के 10 साल के कार्यकाल में ही एक ऐसा दौर आया था जब लोग यात्राएं करने, अपना जीवन स्तर सुधारने, सुख-सुविधाएं, कारें, वातानुकूलन आदि जुटाने पर केंद्रित थे। इसका फायदा मजदूर तबके को भी मिल रहा था क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था के विस्तार के साथ समाज के मेहनतकश तबके को भी थोड़ा बहुत काम और सुख-सुविधाएं मिल रही थीं। यह प्राचीन गौरव और भारत की सामाजिक-जातीय हाइरार्की के विपरीत था।
मध्य वर्ग को चिंता नहीं
अब कोरोना काल में प्राचीन गौरव यानी जातीय हाइरार्की में अपनी पहचान तलाशने वालों को कोई खास चिंता नहीं है। यह तबका अपने घरों में बंद है। राशन जुटा चुका है। बेरोजगारी इस तबके की बड़ी चिंता नहीं है। अगर यह तबका कुछ न करे तब भी इधर-उधर मांगकर, पूजा-पाठ कराकर, दूसरे का धन किसी तरह हड़पकर आराम से अपनी जिंदगी चला सकता है।
बीजेपी-आरएसएस का समर्थक तबका
इस तबके में कथित सवर्णों के अलावा अन्य पिछड़े वर्ग की एक आबादी आती है। इस तबके के पास अपनी कुछ जमीनें हैं, शहर और गांव में मकान हैं। इनके लिए जिंदगी मुश्किल नहीं होने जा रही है। या यूं कहें कि अगर व्यापक तौर पर तबाही होती है तो नौकरी पर निर्भर लोगों या अभी हाल में जीने-खाने लायक बने लोगों की तबाही ज्यादा होगी। और इस खेतिहर, परजीवी, लोगों को बेवकूफ बनाकर अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले समाज की आर्थिक और सामाजिक हैसियत बढ़ जाएगी। यह तबका बीजेपी-आरएसएस का कट्टर समर्थक है।
आरएसएस-बीजेपी के कट्टर समर्थक इस तबके को अर्थव्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं है। अगर अर्थव्यवस्था बहुत खराब होती है तो इन्हें मामूली नुकसान होगा। जो लोग भारत के प्राचीन गौरव काल में इनके गुलाम रहे हैं, उनकी स्थिति एक बार फिर इतनी खराब हो जाएगी कि इस तबके की श्रेष्ठता कायम हो जाए।
यही प्राचीन गौरव लाने के लिए आरएसएस-बीजेपी को सत्ता में लाया गया था। अगर इस तबके के शब्दों में कहें तो जिनकी कोई औकात नहीं थी, वे चार पैसे कमाकर सिर पर मूतने लगे थे और अब बीजेपी के सत्ता में आते ही ये लोग औकात में आ गए हैं।
बीजेपी के पहले 5 साल के कार्यकाल में यह स्थिति पैदा की गई कि कोई मुसलिमों के समर्थन में न बोल पाए। साथ ही यह भी माहौल बनाया गया कि कोई आरक्षण के समर्थन में न बोल पाए। वंचित तबके को मुफ्तखोर बताए जाने और टैक्स का पैसा खाकर ढेरों बच्चे पैदा कर देश को बर्बाद करने वाला बताया गया।
अब बीजेपी के दूसरे 5 साल के कार्यकाल में इस तबके को आर्थिक रूप से बर्बाद किया जा रहा है। इससे बीजेपी के उस कोर वोटर को खुशी मिल रही है, जो इस बात से दुखी था कि यह मजदूर कपार पर चढ़ गये हैं। ऐसे में यही लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी अजेय है और वह अपने कोर वोटर्स के लिए काम कर रही है। बीजेपी की सत्ता को फिलहाल कोई चुनौती नहीं है।
अपनी राय बतायें