आडवाणीजी की सक्रियता के दिनों में ही स्वयं मैंने अपने घर के दरवाजे पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का आक्रामक जुलूस झेला है, जिसका मुख्य नारा यही था - “ऐंटी नेशनल पुरुषोत्तम अग्रवाल मुर्दाबाद…।”
आडवाणीजी बीजेपी और उसके पूर्वावतार भारतीय जनसंघ के समूचे इतिहास में ऐसे काल की कल्पना करने के लिए स्वतंत्र हैं जब यह राजनैतिक दल ख़ुद को राष्ट्रवाद का अकेला ठेकेदार मानने की बीमारी से मुक्त रहा हो। दूसरों के लिए यह काम मुश्किल होगा।
अब की बात और है। तब बीजेपी हुआ करती थी, अब मोजपा है। तब बीजेपी या संघ का विरोधी ऐंटी नेशनल कहलाता था, अब तो मोदीजी की रैली में जो न पहुँच पाए, उस ऐंटी नेशनल को गिरिराज सिंह पाकिस्तान भेजने पर आमादा हैं और भारतीय सेना को मोदीजी की निजी ब्रिगेड बताने पर अजय सिंह बिष्ट उर्फ़ योगी आदित्यनाथ।
आडवाणीजी के बारे में मोदी प्रेमी कार्यकर्ता जिस मुहावरे में बात करते सुने जाते हैं उसे जानना नब्बे साल से ऊपर के व्यक्ति के लिए काफ़ी घातक हो सकता है। लेकिन, इस स्थिति के निर्माण में कुछ भूमिका आपकी भी है या नहीं, आडवाणीजी?
ऐंटी नेशनल कह दो, किस्सा ख़त्म
इसमें आडवाणीजी केवल आपकी ही नहीं, आपके पूरे वैचारिक परिवार की भूमिका है। आज देश में जो तनाव का माहौल है, उसका आधार है रेशनल (तर्कसंगत) सोच का अभाव। किसी की बात का जबाव न देते बने तो उसे ऐंटी नेशनल कह कर किस्सा ख़त्म करो। यह बात रेशनल बातचीत की जगह आक्रामक भावनाओं को स्थापित करने की स्वाभाविक परिणति है। बबूल के पेड़ बोने के बाद आम खाने की उम्मीद तो ज़्यादती ही है ना।
इस लिहाज से भारतीय जनता पार्टी का मोदी जनता पार्टी में रूपांतरण स्वाभाविक है। ‘भावनाओं के सवाल’ को बवाल बनाने की कोशिश तो आडवाणीजी की पीढ़ी ने ही शुरू की थी। संविधान की भावना और क़ानूनी प्रक्रियाओं की धज्जियाँ उड़ाने का आरंभ तो आडवाणीजी और उनके समकालीनों ने ही किया था। हाँ, वे लोग इतना “साहस (या दुस्साहस)” नहीं जुटा पाए थे कि मर्यादा, प्रक्रिया को ही नहीं सामान्य शिष्टाचार को भी ठेंगा दिखा दें।
मोदी और शाह की विशेषता यही है कि इस जोड़ी को न तो पार्टी से मतलब है और न ही किसी विचार से…ये दोनों भयानक आत्ममोह से ग्रस्त हैं, और किसी भी तरह के मर्यादा-बोध से पूरी तरह मुक्त।
आडवाणीजी इन दिनों शायद वह संपादकीय लेख याद करते हों, जो स्व. राजेन्द्र माथुर ने उनकी “ऐतिहासिक” रथयात्रा के बारे में लिखा था।
1990 में जब आडवाणीजी सोमनाथ से अपना टोयोटा रथ लेकर सारे देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और आक्रामकता का माहौल बनाने के लिए निकले थे, राजेन्द्र माथुर उन दिनों नवभारत टाइम्स के संपादक थे। माथुर ने आडवाणीजी की इस यात्रा पर एक फ़्रंटपेज, साइन्ड संपादकीय लिखा था, जिसका शीर्षक था, ‘ शेर की सवारी के ख़तरे’।
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