भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कल देश के नाम अपने संदेश में माफ़ी माँगी। यह पहली बार होगा कि उन्होंने सार्वजनिक तौर पर किसी से माफ़ी माँगी होगी क्योंकि माफ़ी तो तब माँगी जाती है जब आप कोई ग़लती करें या आप मानें कि आपने कोई ग़लती की है। मोदी तो कभी ग़लती करते नहीं। करते हैं तो मानते नहीं। फिर क्षमायाचना किस बात की?
क्या उन्होंने कभी गुजरात दंगों के लिए माफ़ी माँगी जो इस कारण हुई कि उनकी सरकार ने गोधरा आगज़नी में मरे कारसेवकों की लाशों के साथ जुलूस निकालने की अनुमति दे दी? क्या उन्होंने नोटबंदी के लिए माफ़ी माँगी जिससे देश को धेले भर का फ़ायदा नहीं हुआ मगर लाखों कल-कारखाने बंद हो गए, करोड़ों लोगों का रोज़गार छिन गया?
क्या उन्होंने देश में बिना तैयारी के एकाएक लॉकडाउन करने के लिए माफ़ी माँगी जिसके कारण करोड़ों लोगों को खाने और रहने के लाले पड़ गए?
कल भी मोदी ने जो क्षमा माँगी है, वह किसी ग़लती के लिए नहीं है। कई लोग समझ रहे हैं (और उनमें किसान नेता टिकैत भी हैं) कि मोदी ने आंदोलनकारी किसानों से माफ़ी माँगी है। नहीं, मोदी ने आंदोलनकारी किसानों से नहीं, देशवासियों से माफ़ी माँगी है और इसलिए माँगी है कि वे कुछ किसानों को यह समझाने में नाकाम रहे कि कृषि क़ानून उनके लिए कितने हितकारी थे। इसमें कुछ-कुछ अफ़सोस जताने का भाव है। नीचे उनके भाषण का संबंधित अंश पढ़ें तो आप समझ जाएँगे।
'मैं आज देशवासियों से क्षमा माँगते हुए सच्चे मन से और पवित्र हृदय से कहना चाहता हूँ कि शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रही होगी जिसके कारण दीए के प्रकाश जैसा सत्य कुछ किसान भाइयों को हम समझा नहीं पाए।'
स्पष्ट है कि मोदी बिना पर्याप्त परामर्श के हड़बड़ी में पास किए गए किसान क़ानूनों के लिए आंदोलनकारी किसानों से माफ़ी नहीं माँग रहे थे। वे देशवासियों से माफ़ी माँग रहे हैं यह कहकर कि इतने अच्छे क़ानून उनकी सरकार को वापस लेने पड़ रहे हैं क्योंकि कुछ (नासमझ और अंधे) किसान अपने हित में लाए गए इन क़ानूनों की अच्छाई और सच्चाई नहीं समझ रहे।
उन्होंने 'नासमझ' या 'अंधे' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया लेकिन जब कोई कहे कि 'दीए के प्रकाश जैसा सत्य' भी कुछ लोग नहीं देख पा रहे तो इसका तात्पर्य तो यही हुआ कि आप उनको 'मूर्ख' और 'अंधा' कह रहे हैं।
किसान कल्याण का दावा
प्रधानमंत्री ने अपने 18 मिनट के भाषण का शुरुआती आधा समय यही बताने में गुज़ार दिया कि उनकी सरकार ने किसानों लिए क्या-क्या काम किया है। इसके बाद वे मूल मुद्दे पर आए और कहा कि ये कृषि क़ानून भी उसी किसान कल्याण की दिशा में एक क़दम थे। उन्होंने यह भी दावा किया कि करोड़ों किसानों ने इन क़ानूनों का समर्थन भी किया। उनके अनुसार केवल 'कुछ' किसान थे जो तमाम प्रयासों के बावजूद इन क़ानूनों का फ़ायदा नहीं देख पाए।
यह सब कह चुकने के बाद यानी अपने कामों और कृषि क़ानूनों की तारीफ़ों में पुल बाँधने के बाद वे 13:30 पर अचानक 'देशवासियों से क्षमा माँगने' वाली बात कहते हैं और आधे मिनट बाद अचानक एलान करते हैं -
'आज गुरु नानक देव जी का पवित्र प्रकाश पर्व है। ये समय किसी को भी दोष देने का नहीं है। आज मैं आपको पूरे देश को यह बताने आया हूँ कि हमने तीन कृषि क़ानूनों को वापस करने का, रिपील करने का निर्णय लिया है।’
प्रधानमंत्री के इस भाषण का यह अंत ऐंटी-क्लाइमैक्स था। एक ऐसा ऐंटी-क्लाइमैक्स जो पहली नज़र में किसी को भी तर्कहीन लगेगा। आख़िर जिन क़ानूनों से देश के 'सभी किसानों और ख़ासकर छोटे किसानों' को अत्यंत लाभ होना था, उनकी दरिद्रता मिट जानी थी और सबसे बड़ी बात, जिनको 'करोड़ों किसानों' और 'कई प्रगतिशील किसान संगठनों' का समर्थन प्राप्त था, उन 'बेहद फ़ायदेमंद' क़ानूनों को 'कुछ' नासमझ किसानों के आंदोलन के चलते क्यों वापस लिया जा रहा है?
अगर सरकार वास्तव में अल्पमत की राय को इतना महत्व देती है तो कश्मीर में अनुच्छेद 370 के पुराने प्रावधानों को फिर से बहाल कर देना चाहिए क्योंकि 'कुछ' लोग ऐसा ही चाहते हैं।
चुनावी हार का डर
दरअसल बात 'कई' बनाम 'कुछ' के विवाद में 'कुछ' यानी अल्पमत की राय को समान या ज़्यादा महत्व देने की है ही नहीं। बात पंजाब और उत्तर प्रदेश के चुनावों की है जहाँ के किसानों में सरकार के प्रति ग़ुस्सा इतना ज़्यादा है कि बीजेपी को अपना भट्ठा बैठता दिख रहा था। अगर अगले साल इन राज्यों में चुनाव होना तय नहीं होता तो मोदी जी ये क़ानून वापस लेने की घोषणा नहीं कर रहे होते, न ही किसी से माफ़ी माँग रहे होते।
और जैसा कि आपने देखा, मोदी ने माफ़ी आंदोलनकारी किसानों से नहीं माँगी है, देशवासियों से माँगी है कि उनको इतने अच्छे क़ानून वापस लेने पड़ रहे हैं। स्पष्ट है, वे आज भी यह नहीं मान रहे कि किसान क़ानूनों को लाकर उन्होंने या उनकी सरकार ने कोई ग़लती की है।
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