1 अगस्त को सरकार द्वारा "मुसलिम महिला अधिकार दिवस" के रूप में घोषित किया गया है। मैं अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री (जिनसे मैं योजना आयोग में अपने 10 साल के कार्यकाल के दौरान कई बार मिली थी) से पूछती हूं, "क्या आप वास्तव में इस 'दिन' में विश्वास करते हैं?"
2 अगस्त को जारी एक साझा बयान में, जिसमें सभी धर्मों के 1,000 से अधिक महिलाओं और पुरुषों ने, इस कृत्य को “सनकी कृत्य" कहा है। इस घटना पर बसु भट्टाचार्य की फिल्म “तीसरी कसम" में शैलेंद्र का एक लोकप्रिय गीत, "साजन रे झूठ मत बोलो/ खुदा के पास जाना है!" दिमाग में आता है।
1998 में, जब मैं राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्य थी, मैं मौलाना अबुल हसन अली नदवी से मिलने लखनऊ के नदवातुल उलूम विश्वविद्यालय गई। जो मौलाना अली मियाँ के नाम से प्रसिद्ध थे। वो ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष भी थे। तब, मोहिनी गिरि के मार्गदर्शन में आयोग ने देश भर में 18 स्थानों पर मुसलिम महिलाओं की जनसुनवाई पूरी की थी। हम मौलाना अली मियां के साथ अपने निष्कर्ष साझा करना चाहते थे। उन्होंने बड़े स्नेह और गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया।
शायद इसलिए कि वे मेरे परिवार को जानते थे। ख़ास तौर पर विशेष वे मेरे परदादा, जो भारत के पहले नारीवादी कवि और धार्मिक और समाज सुधारक, जिनका नाम ख्वाजा अल्ताफ़ हुसैन हाली था, से परिचित थे।
उनका कहना कि था इसलाम में महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिया गया है। मैंने पूछ लिया कि-"तो फिर देश भर में महिलाओं की स्थिति इतनी बदतर क्यों है?" उन्होंने इसका कारण इसलामी सिद्धांतों से विचलन, हमारी अपनी मानसिकता और पितृसत्ता को बताया।
एनसीडब्ल्यू की रिपोर्ट, "वॉयस ऑफ द वॉयसलेस: भारत में मुसलिम महिलाओं की स्थिति", वर्ष 2000 में प्रकाशित की गई। 2004 तक यह रिपोर्ट धूल फाँकती रही। जब सरकार बदली, तो इसे शेल्फ से बाहर निकाला गया और मुसलिम महिलाओं के लिए कई कार्यक्रम शुरू किए गए।
योजना आयोग में अपने कार्यकाल के दौरान, मैंने सच्चर समिति को मुसलमान पुरुषों और महिलाओं, दोनों की स्थिति को उजागर करते हुए देखा। सरकार ने इसके बाद कई योजनाएं शुरू कीं, और योजना आयोग को निगरानी का काम सौंपा गया।
सिविल सोसायटी को शुरू से ही इसमें भागीदार बनाया गया। पहले नियोजन में, फिर क्रियान्वयन में लाया गया। इस प्रक्रिया की सबसे अच्छी बात यह थी कि किसी ने भी धार्मिक विभाजन के बारे में नहीं सोचा था। हिंदुओं, सिखों, ईसाइयों ने मुसलमानों को मुख्यधारा में लाने का काम किया।
मौलाना अली मियां और उनके उत्तराधिकारी मौलाना क़ाज़ी मुजाहिदुल इसलाम कासिमी और बोर्ड के सचिव कासिम रसूल इलियास से प्रेरणा लेकर मुसलमानों को विकास के पथ पर लाने की कोशिश की। यह पहली बार था जब महिला आंदोलन की प्रतिनिधि एआईएमपीएलबी के साथ बैठक में शामिल थी।
2014 से लेकर, और आज तक। हर महीने और हर साल, मुसलमानों के खिलाफ लिंचिंग और हिंसा के मामले लगातार सामने आए हैं- इसका सबसे अधिक शिकार पुरुष, युवा और लड़के हैं।
देश की राजधानी दिल्ली में, विश्वविद्यालय परिसर में, जहां मैं रहती हूँ, एक बंदूकधारी ने नारेबाजी की और विरोध कर रहे छात्रों पर गोली चलाई। भीड़ भरे चौक पर, भविष्य के कैबिनेट मंत्री ने भीड़ को उकसाया और नारा लगाया - "गोली मारो सालों को"
लक्षद्वीप का मामला
भारत के सुदूरवर्ती भाग लक्षद्वीप में, जहाँ कुल जनसंख्या का 97 प्रतिशत मुसलिम हैं, केंद्र द्वारा नियुक्त प्रशासक के फरमान से पारिस्थितिकी विनाश का खतरा उतपन्न हो गया है। असम में ऐसा प्रतीत होता है कि मुसलमानों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया जा सकता है।
यूपी में, शायद 2022 के चुनावों को देखते हुए, ध्रुवीकरण करने की कोशिश की जा रही है। फिर चाहे वह "लव जिहाद" हो या प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण विधेयक या धर्मांतरण अध्यादेश, सबका मक़सद एक ही है।
हमारे युवाओं को केवल शक की बुनियाद पर जेल में डाला गया है- शरजील इमाम, उमर खालिद, सिद्दीक कप्पन ये चंद नाम हैं, उन हज़ारों गिरफ़्तार युवाओं में से।
माननीय मंत्रियों ने मुसलिम महिलाओं के नाम पर दिवस का शुभारंभ किया। वे कहाँ थे जब शाहीन बाग में सैकड़ों महिलाएं 100 दिनों तक चौबीसों घंटे बैठी रहीं? क्या उन्होंने उनकी प्रार्थनाओं पर ध्यान दिया? क्या उन्होने उनके साहस को सलाम किया? तो फिर ये 'मुसलिम महिला अधिकारिता दिवस', के क्या मायने हैं?
मुसलिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) 2019 विधेयक, जो 1 अगस्त को कानून बन गया, एक तमाशा बना हुआ है। इसकी क्या जरूरत थी जब 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने शमीम आरा बनाम पठान के मामले में तत्काल तीन तलाक़ को रद्द कर दिया था?
1 अगस्त की घटना के दृश्य स्क्रीन पर दिखाए गए थे। कई हिजाब पहनने वाली महिलाओं को एक बैठक कक्ष में कैमरे में क़ैद किया गया था, जहां उन्हें उनके उज्ज्वल भविष्य के बारे में बताया जा रहा था। कुछ आज्ञाकारी चेहरों की छवियाँ फ़्लैश की गईं।
कवि सुरूर बाराबंकवी के शब्द इस घटना पर सटीक बैठते हैं।
“यही लोग हैं अज़ल से जो फरेब दे रहे हैं
कभी डाल कर नक़ाबें कभी ओढ़ कर लबादा।”
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