मध्य प्रदेश में आदिवासियों के सर पर मूत्र विसर्जन करने के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह द्वारा पीड़ित के पद-प्रच्छालन से भाजपा के पाप धुलने वाले नहीं हैं। आदिवासियों के अपमान का प्रायश्चित करने के लिए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को इस बार विधानसभा चुनाव के पहले ये घोषणा करना चाहिए कि यदि भाजपा सत्ता में आयी तो मध्य प्रदेश का अगला मुख्यमंत्री आदिवासी होगा। आदिवासियों को अब तक किसी राजनीतिक दल ने मुख्यमंत्री या प्रदेश का अध्यक्ष नहीं बनाया है।
मध्यप्रदेश देश का दूसरा बड़ा आदिवासी राज्य है लेकिन पिछले 67 वर्ष में न कांग्रेस ने और न भाजपा ने, किसी भी आदिवासी को मध्यप्रदेश की कमान सौंपने की ज़रूरत नहीं समझी। दोनों प्रमुख दल आदिवासियों को 'वोट बैंक' की तरह ही इस्तेमाल करते आ रहे हैं इन दोनों दलों ने आदिवासियों के नेतृत्व को उभरने ही नहीं दिया। दोनों ने मिलकर आदवासी नेतृत्व की हमेशा भ्रूण हत्या की इसलिए दोनों ही आदिवासियों का हक मारने के अपराधी हैं। विसंगति ये है कि इस अक्षम्य अपराध के लिए न तो इनके खिलाफ एनएसए के तहत कार्रवाई की जा सकती है और न इनके ऊपर बुलडोजर चलाये जा सकते हैं।
मध्यप्रदेश के 7 संभागों और 20 जिलों में आदिवासी आबादी रहती है। संख्या की दृष्टि से देखें तो प्रदेश की 21 फीसदी आबादी आदिवासियों की है और हर पाँचवाँ व्यक्ति आदिवासी समुदाय से आता है। आदिवासियों के कल्याण के लिए प्रदेश के बजट का एक चौथाई भी खर्च किया जाता है किन्तु आदिवासियों का कल्याण हो ही नहीं पाता। आज भी राजनीतिक दलों के बाहुबली कार्यकर्ता उनके सर पर मूत्र विसर्जन कर सकते हैं या उन्हें मैला खिला सकते हैं। राजनीतिक दलों ने बीते सात दशकों में आदिवासियों को पनपने ही नहीं दिया। वे जहां थे, वहीं खड़े हैं। उनका इस्तेमाल नेताओं के लिए आज भी वोट बैंक से ज्यादा नहीं है।
आदिवासियों के हकों पर कुठाराघात करने की साजिश का पता लगाना हो तो आपको मध्यप्रदेश में अब तक बनाये गए मुख्यमंत्रियों की फेहरिस्त पर नजर डालनी होगी। मध्यप्रदेश के गठन के बाद से जितने भी मुख्यमंत्री बनाये गए उनमें से एक भी आदिवासी नहीं है। जब मध्यप्रदेश विधानसभा नहीं थी तब अवधेश प्रताप सिंह, शम्भूनाथ मेहता और शम्भूनाथ शुक्ल आदिवासी बहुल सूबे के मुखिया थे और जब मध्यभारत बना तो लीलाधर जोशी, गोपीकृष्ण विजयवर्गीय, तख्तमल जैन, मिश्री लाल गंगवाल के हाथों में नेतृत्व रहा। भोपाल रियासत में डॉ. शंकरदयाल शर्मा प्रधानसेवक थे। यानी आजादी से पहले और आजादी मिलने तक एक भी आदिवासी नेतृत्व विकसित ही नहीं होने दिया गया। सब सवर्णों के हाथ में रहा।
श्यामाचरण शुक्ल के बाद 54 दिन के राष्ट्रपति शासन के बाद जब जनता पार्टी सत्ता में लौटी तो उसने भी सबसे पहले गैर आदिवासी यानी पंडित कैलाश जोशी को मुख्यमंत्री बनाया।
कांग्रेस ने अर्जुन सिंह को हटाकर मोतीलाल वोरा को मुख्यमंत्री बना दिया। वोरा हटे तो फिर अर्जुन सिंह ही मुख्यमंत्री बनाये गए। क्योंकि कांग्रेस को कोई आदिवासी नेता फिर नजर नहीं आया। आदिवासियों का हक मारने का ये अखंड खेल लगातार चला। अर्जुन सिंह फिर गए तो फिर वोरा आये। वोरा गए तो फिर श्यामाचरण शुक्ला आये। नवगठित भाजपा को जब पहली बार मौक़ा मिला तो उसने भी सत्ता की बागडोर किसी आदिवासी को सौंपने के बजाय सुन्दरलाल पटवा को ही मुख्यमंत्री बनाकर आदिवासियों को ठेंगा दिखा दिया। 355 दिन के राष्ट्रपति शासन के बाद जब विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की वापसी हुई तो एक बार फिर ठाकुर राजा दिग्विजय सिंह आदिवासी बहुल मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने एक दशक राज किया और फिर जब 2003 में भाजपा ने उन्हें सत्ताच्युत किया तो उमा भारती मुख्यमंत्री बनाई गयीं। भाजपा की वापसी के बाद भी आदिवासियों की किस्मत नहीं खुली। उमा भारती गयीं तो बाबूलाल गौर आ गये। वे गए तो शिवराज सिंह चौहान आ गए लेकिन कोई आदिवासी सत्ता के शिखर तक नहीं पहुँचने दिया गया। यानी आदिवासियों का हक मारने में कांग्रेस और भाजपा का चरित्र एक जैसा ही रहा।
भाजपा के देश दशक के राज को समाप्त कर 2018 में जब कांग्रेस सत्ता में वापस लौटी तो कांग्रेस ने भी मुख्यमंत्री का पद किसी आदिवासी विधायक को सौंपने के बजाय खत्री कमलनाथ को सौंप दिया। कमलनाथ की सरकार का तख्ता पलटा गया तो फिर से आदिवासी विरोधी भाजपा ने शिवराज सिंह चौहान को ही मुख्यमंत्री बना दिया। जिनके राज में आदिवासी के सर पर पेशाब की गयी, दलितों को मैला खिलाया गया लेकिन उन्होंने पीड़ित आदिवासी के पांव पखार कर अपने और अपने पार्टी के तमाम पाप धो लिए। सवाल ये है कि क्या भाजपा के पाप सचमुच धूल गए? क्या कांग्रेस अपने आदिवासी विरोधी चरित्र के बावजूद पूण: सत्ता में वापस आ सकती है? क्या आदिवासी बहुल मध्यप्रदेश में अगला मुख्यमंत्री आदिवासी बनाये जाने की गारंटी कोई राजनीतिक दल दे सकता है? जबाब आएगा- नहीं। और बात यहीं आकर रुक जाती है।
मध्यप्रदेश के आदिवासी पिछले 67 साल में नींद की गोली खिलाकर सुलाए जाते रहे हैं। क्या उन्हें नींद से जगाने के लिए आदिवासियों में से कोई नेतृत्व उभरने दिया जाएगा या फिर से साजिश कर आदिवासियों के नेतृत्व की भ्रूण हत्या कर दी जाएगी? प्रदेश में हर बार 47 आदिवासी विधायक चुनकर आते हैं। किसी भी दल को सत्ता में लाने में आदिवासियों की ही प्रमुख भूमिका होती है। आदिवासियों के बाद अनुसूचित जातियों का नंबर आता है। 33 विधायक अनुसूचित जातियों के भी चुने जाते हैं किन्तु कोई भी राष्ट्रीय दल इन दोनों समुदायों को शीर्ष तक नहीं पहुँचने देता। दोनों की मानसिकता आदिवासी और अनुसूचित जाति विरोध के मामले में एक जैसी है।
कांग्रेस और भाजपा ने 75 साल में अपनी मानसिकता नहीं बदली। आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी आदिवासियों को मुख्यमंत्री पद देने की गारंटी नहीं दे पा रहे। उनकी पार्टी ने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद तक पहुंचाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली है। अब वक्त है कि आदिवासी इस षड्यंत्र को समझें और अपने वाजिब हक के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों से लड़ें।
(राकेश अचल के फ़ेसबुक पेज से साभार)
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