ज़मीनी युद्धों को जीतने के लिए हमारे पास चाहे जितनी बड़ी और ‘सशक्त’ सेना हो, कूटनीतिक रूप से हारने के लिए बस एक ‘कमज़ोर’ बयान ही काफ़ी है! क्या प्रधानमंत्री के केवल एक वक्तव्य ने ही देश को बिना कोई ज़मीनी युद्ध लड़े मनोवैज्ञानिक रूप से हरा नहीं दिया है? क्या चीन ने अपना वह लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लिया है जिसे वह हमसे लड़कर कभी भी हासिल नहीं कर सकता था? पंद्रह जून की रात हमारे बहादुर सैनिक कथित तौर पर निहत्थे भी थे और साथ ही उनके हाथ अनुशासन ने बांध भी रखे थे वरना गलवान घाटी में स्थिति 1962 के मुक़ाबले काफ़ी अलग हो सकती थी। हम अपने सैनिकों की शहादतों का बदला लेने के लिए अब क्या करने वाले हैं? क्या केवल चीनी वस्तुओं के बहिष्कार से ही हमारे सारे ज़ख़्म भर जाएँगे?
पंद्रह जून की रात गलवान घाटी में हुई घटना के चार दिन बाद (19 जून को) विपक्षी दलों के नेताओं के साथ हुई वीडियो वार्ता में प्रधानमंत्री को यह कहते हुए प्रस्तुत किया गया कि : ‘ना वहाँ कोई हमारी सीमा में घुस आया है और ना कोई घुसा हुआ है, न ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के क़ब्ज़े में है।’ प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य के बाद बवाल मचना ही था और वह मचा भी हुआ है। पूछा जा रहा है कि अगर हमारी सीमा में कोई घुसा ही नहीं तो फिर हमारे बीस सैनिकों की शहादत कहाँ और कैसे हो गई? क्या चीन के क्षेत्र में हो गई? ऐसा है तो क्या हमने एलएसी पर वर्तमान स्थिति को स्वीकार कर लिया है?
प्रधानमंत्री के दूसरे कार्यकाल की पहली वर्षगाँठ जब सत्तारूढ़ दल द्वारा उपलब्धियों का भारी गुणगान करते हुए मनाई रही थी तब चीनी सैनिक सीमा पर जमा हो चुके थे। गलवान घाटी की घटना ने उनके पिछले छह वर्षों के पूरे कार्यकाल को ही लहूलुहान कर दिया।
दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम से एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि इस तरह के संवेदनशील मसलों पर वक्तव्य देने के लिए उन्हें सलाह कौन दे रहा है! क्या विदेश मंत्री एस जयशंकर, जो भारतीय विदेश सेवा में रहते हुए वर्ष 2009 से 2013 तक चीन में एक सफल राजदूत रहे, वहाँ की भाषा जानते हैं और चीनी नेताओं की ताक़त और कमज़ोरियाँ दोनों को बखूबी समझते हैं!
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