झारखंड में बीजेपी को मिली करारी हार के बाद कहा जा रहा है कि पार्टी का नेतृत्व अपनी राज्य सरकारों के कामकाज को लेकर बेहद गंभीर हो गया है। यह भी कहा गया है कि पार्टी जल्दी ही अपनी सरकारों और मुख्यमंत्रियों के कामकाज और व्यवहार की समीक्षा करेगी और जो राज्य इसमें खरे नहीं उतरेंगे, वहां पर सत्ता से लेकर संगठन तक ज़रूरी बदलाव भी किए जाएंगे। लेकिन क्या उन सात राज्यों में जहां विगत डेढ़ साल में बीजेपी ने सत्ता गंवाई है, वहां यह सब नहीं किया गया था?
बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, जिन्हें मीडिया का एक वर्ग दिन-रात चाणक्य कहकर उनकी शान में कसीदे पढ़ता रहता है, ने राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, हरियाणा या झारखंड में वे दांव-पेच नहीं खेले होंगे जिनके लिए वह प्रसिद्द हैं? दरअसल, बीजेपी की परेशानी कुछ और है और उनका केंद्रीय नेतृत्व इलाज कुछ और कर रहा है। एक-एक कर सात प्रदेशों में बीजेपी की सरकारें चली गयीं लेकिन पार्टी नेतृत्व जिसका केंद्र बिंदु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के गृहमंत्री अमित शाह ही हैं, इस बात को स्वीकार ही नहीं कर पा रहा है कि उनकी हार का कारण स्थानीय मुद्दों या राज्यों के मुद्दों की अनदेखी है।
महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में मोदी और शाह ने प्रदेश में किसानों की आत्महत्या, बेरोज़गारी, सूखे और बाढ़ की समस्या पर बात नहीं की बल्कि अपनी हर सभा में जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने की बात कही। यही नहीं, प्रधानमंत्री ने यह तक कह डाला कि महाराष्ट्र का सैनिक सीमा पर या कश्मीर में शहीद होता है और इसलिए धारा 370 का मुद्दा महाराष्ट्र से भी जुड़ा हुआ है।
स्थानीय मुद्दों पर नहीं की बात
प्रचार का यही तरीक़ा मोदी और शाह ने झारखंड में भी अपनाया। झारखंड में उन्होंने आदिवासियों के जल, जंगल, ज़मीन के मुद्दे की बात नहीं की और ना ही बेरोज़गारी और बंद होते उद्योग-धंधों की। खनन माफ़िया के बढ़ते शोषण की भी बात नहीं की और अंतत: वे सत्ता से बाहर हो गए। लेकिन मोदी-शाह को कौन समझाए कि राज्यों में अब ‘मोदी मॉडल’ फ़ेल हो रहा है। किसी भी राज्य में चुनाव के दौरान स्थानीय समस्याओं और मुद्दे से दूर हटकर चुनाव प्रचार को राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों या राष्ट्रवाद से जोड़ने काम नहीं चलने वाला है।
प्रचार का यह ‘मोदी मॉडल’ पहली बार बिहार विधानसभा के चुनावों में फ़ेल हुआ था। तब भी मोदी और शाह ने चुनाव प्रचार को पाकिस्तान, मांस कारोबार (पिंक रिवोल्यूशन) आदि पर केंद्रित कर दिया था। लिहाजा, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और कांग्रेस के गठबंधन ने बीजेपी को बुरी तरह पराजित कर दिया था।
यही मॉडल बीजेपी ने गुजरात विधानसभा के चुनाव में भी अपनाया था लेकिन तब वह बमुश्किल सरकार बचा पायी थी। गुजरात विधानसभा चुनाव में जनता ने कांग्रेस को सत्ता के क़रीब तक पंहुचा दिया था। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में हुए विधानसभा चुनावों में भी यही देखने को मिला। मोदी और शाह राष्ट्रीय मुद्दों और राष्ट्रवाद के मॉडल पर बात करते रहे जबकि कांग्रेस ने किसानों के कर्ज, उनकी फसलों के सही दाम और युवाओं को रोज़गार देने की बात कही और सत्तासीन हो गयी।
राजस्थान में तो मोदी-शाह की सभाओं में काले झंडे तक दिखाए गए और नारेबाज़ी हुई कि 'मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी ख़ैर नहीं।’ लेकिन उसके बावजूद भी बीजेपी के इन दोनों दिग्गज नेताओं का राज्यों की समस्याओं से ज़्यादा विश्वास राष्ट्रवाद पर रहा।
मोदी-शाह का चुनाव प्रचार का यह मॉडल राष्ट्रीय स्वरुप का होने की वजह से राष्ट्र के स्तर यानी लोकसभा चुनावों में तो सफलता हासिल कर रहा है लेकिन राज्य स्तर पर उसके सामने अड़चनें खड़ी हो रही हैं या यूं कह लें कि विधानसभा के चुनावों में लोगों को अपने स्थानीय मुद्दों और समस्याओं से ज़्यादा मतलब होता है।
मोदी और शाह, दोनों ही हरियाणा और महाराष्ट्र में अनुच्छेद 370, सर्जिकल स्ट्राइक और पाकिस्तान को सबक सिखाने की और झारखंड में नागरिकता संशोधन क़ानून की बात करते रहे लेकिन उन्हें अप्रत्याशित सफलता तो छोड़ो पिछले बार के अपने प्रदर्शन के अनुरूप भी सफलता नहीं मिल पायी।
सीटें और मत प्रतिशत, दोनों घटे
बीजेपी के नेता तर्क देते रहे हैं कि अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद से जनता में उनका समर्थन क़रीब 20 फ़ीसदी बढ़ गया है लेकिन इन राज्यों के चुनाव परिणाम देखें तो इन प्रदेशों में सीटों के साथ-साथ पार्टी का मत प्रतिशत भी कम हुआ है। ये चुनाव लोकसभा चुनाव के करीब 6 माह बाद ही हुए, इसलिए बीजेपी के नेताओं का यह भी अति आत्मविश्वास था कि उन्हें लोकसभा चुनाव में जैसी सफलता मिली है उससे कहीं अच्छी सफलता विधानसभा चुनाव में मिलेगी।
लोकसभा चुनाव के परिणाम देखें तो बीजेपी ने महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड में करीब 80% विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल की थी। इसी आंकड़े को आधार मानकर पार्टी ने महाराष्ट्र में ‘220 प्लस’, हरियाणा में ‘75 प्लस’ और झारखंड में ‘65 प्लस’ का नारा दिया लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
महाराष्ट्र में 2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 122 सीटें मिली थीं लेकिन इस बार उसे 105 सीटें ही मिलीं। यही तसवीर हरियाणा में भी रही। पार्टी ने प्रदेश की सभी 10 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी लेकिन विधानसभा में 2014 में मिली 47 सीटों वाला अपना प्रदर्शन भी वह बरकरार नहीं रख सकी और उसे 40 सीटें ही मिलीं। झारखंड में बीजेपी पिछली बार की 37 सीटों के मुक़ाबले इस बार 25 सीट ही जीत सकी।
शायद बीजेपी को इस बात का अति आत्मविश्वास है कि वह कैसा भी चुनाव ‘मोदी मॉडल’ के दम पर जीत सकती है? देवेंद्र फडणवीस हों या खट्टर या फिर रघुबर दास, इनकी सरकारों के मंत्री बड़े पैमाने पर चुनाव हारे हैं। यह भी इस बात का संकेत है कि विधानसभा चुनाव में मतदाता स्थानीय समस्याओं के आधार पर वोट देते हैं। राज्य और देश की राजनीति अलग-अलग होती है, इस बात का संकेत झारखंड, महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव परिणाम दे रहे हैं लेकिन बीजेपी हाई कमान इन संकेतों को कब समझेगा, यह देखने वाली बात होगी?
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