- इस लेख के लेखक संदीप पाण्डेय सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) के उपाध्यक्ष हैं तथा संजय सिंह आम आदमी पार्टी से राज्य सभा सांसद हैं।
एक तथ्य जिसपर मीडिया और इस वजह से लोगों ने भी ध्यान नहीं दिया वह था कि जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री होते हुए 2014 में भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने अहमदाबाद से दिल्ली आए तो उन्होंने अडाणी के हवाई जहाज़ का इस्तेमाल किया। इस बात के निहितार्थ अब समझ में आ रहे हैं जब यह साफ़ है कि यदि किसी एक आदमी को बीजेपी सरकार का सबसे ज़्यादा लाभ मिला है तो वह है गौतम अडाणी।
2019 में भारी बहुमत से विजय के बाद जो सरकार बनी है उसमें एक मंत्रियों के समूह को यह ज़िम्मेदारी दी गई है कि वे तेज़ी से सार्वजनिक उपक्रमों जैसे ऑयल एण्ड नैचुरल गैस कमीशन, इण्डियन ऑयल, गैस अथॉरिटी ऑफ़ इण्डिया लिमिटेड, नेशनल हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर कार्पोरेशन, नेशनल थर्मल पावर कार्पोरेशन, कोल इण्डिया, भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड व अन्य का विनिवेश करें। हालाँकि यह प्रकिया तो नरसिंह राव की सरकार के समय में ही शुरू हो गई थी जब उन्होंने निजीकरण, उदारीकरण व वैश्वीकरण की आर्थिक नीति अपनाई थी, लेकिन अंतर यह है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार इन नीतियों को अति तेज़ी से लागू कर रही है और ऐसे क्षेत्रों में लागू कर रही है जो अभी तक इससे बचे हुए थे, जैसे रक्षा क्षेत्र।
रक्षा सचिव को यह आदेश दिए गए हैं कि वे सौ दिनों के अंदर 15 अक्टूबर, 2019 तक आर्डनेंस फ़ैक्ट्री बोर्ड का कार्पोरेटाइज़ेशन यानी निगमीकरण कर दें। ममता बैनर्जी ने हाल ही में एक पत्र लिखकर प्रधानमंत्री से माँग की है कि वे आर्डनेंस फ़ैक्ट्री के कार्पोरेटाइज़ेशन व निजीकरण की प्रक्रिया को तुरंत वापस लें। नीति आयोग जैसी एक ग़ैर-संवैधानिक इकाई संसदीय समिति से ज़्यादा ताक़तवर दिखाई पड़ती है क्योंकि उसी की संस्तुति पर यह क़दम उठाया गया है, जबकि संसदीय समिति इस पक्ष में नहीं थी।
हाल के अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि सरकार अपने द्वारा संचालित उपक्रमों में अपनी हिस्सेदारी घटा कर 51 प्रतिशत से भी कम करने पर विचार कर रही है जो कि केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रम कहलाने के लिए न्यूनतम अनिवार्य भागीदारी है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहली सरकार ने 2014-19 के दौरान 2.82 लाख करोड़ रुपये की सार्वजनिक उपक्रमों की हिस्सेदारी बेची, जो कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के 2009-2014 के दौरान बेची गई. 1 लाख करोड़ रुपये की हिस्सेदारी से क़रीब तीन गुणा थी। अब अगले पाँच वर्ष का लक्ष्य तय किया गया है कि अपने राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए ज़रूरत पड़ने पर सरकार अपनी हिस्सेदारी 40 प्रतिशत तक घटा कर 3.25 लाख करोड़ रुपये की हिस्सेदारी बेचेगी। भविष्य में सरकार सार्वजनिक उपक्रमों में अपनी हिस्सेदारी 26 प्रतिशत तक भी घटाने पर विचार कर सकती है। तब वे सार्वजनिक उपक्रम कहलाए भी नहीं जा सकेंगे!
इण्डियन ऑयल अडाणी गैस लिमिटेड क्यों बना?
2006 में इण्डियन ऑयल में सरकार की भागीदारी 82 प्रतिशत थी जो 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने पर 68.57 प्रतिशत हो गई थी, और अब 2019 में मात्र 52.17 प्रतिशत रह गई है। विचित्र बात है कि इण्डियन ऑयल ने अडाणी गैस लिमिटेड के साथ मिलकर इण्डियन ऑयल अडाणी गैस लिमिटेड नामक संयुक्त उपक्रम बनाया है। शहरों में पाइप के माध्यम से खाना पकाने वाली गैस की आपूर्ति के ज़्यादातर ठेके इस संयुक्त उपक्रम यानी अडाणी गैस लिमिटेड को सीधे मिल रहे हैं। शहरों में गैस आपूर्ति करने वाली अब अडाणी गैस लिमिटेड सबसे बड़ी कम्पनी बन कर उभर रही है। सरकारी कम्पनियों, इण्डियन आयल व गैस अथारिटी ऑफ़ इण्डिया लिमिटेड ने 20 वर्ष तक अडाणी के ओडिशा स्थित ढामरा लिक्वीफ़ाइड नेचुरल गैस टर्मिनल को बढ़ावा देने के लिए उससे प्रति वर्ष 30 लाख टन व 15 लाख टन गैस ख़रीदने का अनुबंध कर लिया है।
2013 में अडाणी समूह पूरे भारत में शहरों में गैस आपूर्ति, कोयला खनन, कृषि उत्पाद, ताप विद्युत, सौर ऊर्जा, विद्युत वितरण व पानी के जहाज़ में ईधन भराई जैसे क्षेत्रों में 44 परियोजनाएँ संचालित कर रहा था। 2018 तक उसने इन क्षेत्रों में तो अपनी पैठ मज़बूत की ही, नए क्षेत्रों जैसे हवाई अड्डा प्रबंधन, अपशिष्ट जल प्रबंधन व प्रतिरक्षा क्षेत्र में विस्तार करते हुए कुल परियोजनाओं की संख्या 92 कर ली है। इसके अलावा उसकी विदेशों में भी परियोजनाएँ हैं।
पूंजीनिवेश के लिए अडाणी समूह ने बैंकों से जो ऋण लिया है वह कुल क़रीब एक लाख करोड़ रुपये पहुँच गया है और अडाणी समूह सबसे ज़्यादा ऋण लेने वाली भारतीय कम्पनियों में शामिल है।
जबकि अडाणी को लाभप्रद परियोजनाओं में सरकारी कम्पनियों के साथ शामिल कराया जा रहा है। जहाँ मुनाफ़े की गारंटी नहीं है वैसी प्रचार प्रधान परियोजनाओं जैसे उज्जवला की ज़िम्मेदारी पूरी तरह सार्वजनिक उपक्रमों व वितरकों पर डाल दी गई है। पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस के मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने बताया है कि उज्जवला योजना के तहत मात्र 21.16 प्रतिशत लोगों ने ही सिलेंडरों को रिफ़िल यानी पुनर्भरण कराया। साल में एक सिलेंडर भी भरने को पुनर्भरण मान लिया गया है। जबकि एक आम मध्यम वर्गीय परिवार साल में 7-8 सिलेंडर का पुनर्भरण करवाता है। इस योजना का घाटा वितरकों को वहन करना पड़ा क्योंकि पहला सिलेंडर व चूल्हा मुफ़्त दिये जाने के बाद उनकी क़ीमत दूसरे सिलेंडर से वसूली जानी थी जो ज़्यादातर लोगों ने लिया ही नहीं।
राष्ट्रवाद की आड़ में राष्ट्रीय संपत्ति की बिक्री
नरेन्द्र मोदी कांग्रेस के वर्तमान व पूर्व नेताओं की आलोचना का कोई भी मौक़ा छोड़ते नहीं हैं। ख़ासकर उनके निशाने पर रहते हैं जवाहरलाल नेहरू। हमारी नेहरू की आर्थिक नीतियों से असहमति हो सकती है किंतु आज नरेन्द्र मोदी जिन संसाधनों का विनिवेश कर रहे हैं उनका निर्माण तो स्वतंत्र भारत की पहली सरकार ने ही किया था या वे एक मज़बूत सार्वजनिक उपक्रम पक्षीय नीतियों के क्रम में ही निर्मित हुए थे। लेकिन विडम्बना यह है कि नरेन्द्र मोदी राष्ट्रवाद की राजनीति की आड़ में राष्ट्रीय सम्पत्ति को बेचने का काम कर रहे हैं जिससे उनके विपक्षियों या उनके दल के लोगों के लिए भी किसी भी प्रकार का सवाल खड़ा करना मुश्किल हो गया है।
निर्लज्ज तरीक़े से निजी कम्पनियों को बढ़ावा देने का एक अन्य उदाहरण दूरसंचार क्षेत्र से है जिसमें रिलायंस जियो जैसी नई कम्पनी को 4जी स्पैक्ट्रम की सुविधा दे दी गई और सार्वजनिक उपक्रम भारत संचार निगम लिमिटेड को उससे वंचित रखा गया। मज़े की बात है कि जियो, जिसे प्रधानमंत्री ने व्यक्तिगत रूप से बढ़ावा दिया है, भारत संचार निगम लिमिटेड के ही 70,000 टावरों का इस्तेमाल कर आज उसपर हावी होने ही हैसियत में आ गई है।
आर्डनेंस फ़ैक्ट्री के 82,000 कर्मियों का विरोध क्यों?
देश के इतिहास में पहली बार आर्डनेंस फ़ैक्ट्री के 82,000 कर्मचारी, केन्द्र सरकार के आर्डनेंस फ़ैक्ट्री बोर्ड के कार्पोरेटाइज़ेशन के प्रस्ताव के विरोध में, 20 अगस्त, 2019 से एक माह हड़ताल पर जा रहे हैं। आर्डनेंस फ़ैक्ट्री बोर्ड भारत का सबसे बड़ा व विश्व का 37वाँ बड़ा हथियार निर्माता है। राष्ट्र की सुरक्षा की तैयारी में उसके महत्व को कम करके नहीं आँका जा सकता। सरकार अपने इस विभाग को एक सार्वजनिक उपक्रम बनाना चाह रही है, जबकि शेष सार्वजनिक उपक्रमों में वह विनिवेश की प्रक्रिया चला रही है। अतः कार्पोरेटाइज़ेशन का अगला तार्किक चरण निजीकरण है क्योंकि वैसे भी नरेन्द्र मोदी सरकार ने रक्षा क्षेत्र में 49 प्रतिशत विदेशी पूँजी निवेश का रास्ता खोल दिया है। इसके अलावा किसी भी कम्पनी की आर्डनेंस फ़ैक्ट्री बोर्ड के पास जो साठ हज़ार एकड़ भूमि है उसपर नज़र होगी क्योंकि अब जगह-जगह कड़े प्रतिरोध की वजह से किसानों से भूमि अधिग्रहण करना थोड़ा मुश्किल हो गया है।
आर्डनेंस फ़ैक्ट्री बोर्ड के महत्व का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि करगिल युद्ध में, जिसकी हाल ही में नरेन्द्र मोदी ने बड़े जोश-ख़रोश के साथ सालगिरह मनाई, आर्डनेंस फ़ैक्ट्री बोर्ड ने ज़रूरी हथियारों या उपकरणों की आपूर्ति दोगुणी कर दी थी। जबकि 2,175.40 करोड़ रुपये के 129 निजी कम्पनियों को दिए गए ठेकों में से 81 प्रतिशत युद्ध समाप्त होने के छह माह बाद फलीभूत हुए।
तो बाज़ार की गिरफ़्त में होगा रक्षा क्षेत्र?
इस बात की क्या गारंटी है कि यदि रक्षा क्षेत्र कार्पोरेटाइज़ेशन-निजीकरण के लिए खोल दिया जाए तो कुछ दिनों के बाद गिनी-चुनी बड़ी निजी कम्पनियों का एक गिरोह बाज़ार को अपनी गिरफ़्त में नहीं ले लेगा? उदाहरण के लिए भारत के पानी के बाज़ार पर पेप्सी-कोका कोला ने कब्ज़ा कर लिया है। पूर्व का अनुभव यह दिखाता है कि बड़ी निजी कम्पनियाँ निर्माण के बजाए उप-ठेके देकर या आयात के भरोसे उत्पादन करती हैं। क्या यह राष्ट्रहित में होगा?
यह अस्पष्ट है कि नरेन्द्र मोदी देश की सुरक्षा को निजी कम्पनियों के हवाले गिरवी रखने को कैसे जायज़ ठहराएँगे जिनके अस्तित्व का मुख्य उद्देश्य सिर्फ़ मुनाफ़ा कमाना है? वह ख़ुद यह कह चुके हैं कि भारत कभी अक्रांता देश नहीं रहा है। भारत कभी अमेरिका नहीं बन सकता जिसके हथियार उद्योग को जीवित रखने के लिए नियमित युद्ध होते रहने ज़रूरी हैं। दुनिया ने देखा है कि 2003 में अमेरिका ने सरेआम झूठ बोल कर कि इराक में व्यापक नरसंहार के शस्त्र हैं उसपर हमला बोल दिया था।
विचारणीय सवाल यह है कि जब सब कुछ जो बेचा जा सकता है बिक चुका होगा तब नरेन्द्र मोदी क्या बेचेंगे? वे जो चीजें बना रहे हैं, जैसे सरदार पटेल की एकता की मूर्ति, उनका तो कोई बिक्री मूल्य है नहीं।
नरेन्द्र मोदी एक से ज़्यादा तरीक़ों से इस देश को ख़तरनाक रास्ते पर ले जा रहे हैं।
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