पिछले साल लोकसभा के चुनाव के दौरान मेरे जैसे कई लोगों को ये शक तो नहीं था कि मोदी अगले प्रधानमंत्री नहीं होंगे, ये ज़रूर आकलन था कि बीजेपी अपने बल पर सरकार नहीं बना पायेगी। उसे बहुमत का आँकड़ा छूने में दिक़्क़त होगी। उसे सरकार चलाने के लिए नए साथियों की ज़रूरत होगी और ये सरकार अपने स्वभाव में उतने अहंकार में नहीं होगी जितनी 2014 में बहुमत पाने के बाद हुई थी। पर हुआ ये कि बीजेपी को अकेले ही बहुमत मिला और उसे सरकार चलाने के लिए किसी की ज़रूरत नहीं पड़ी।
अलोकतांत्रिक होती गई मोदी सरकार!
ऐसी सरकारें अक्सर ही दंभ से लबालब हो जाती हैं और उनसे लोकतांत्रिक व्यवहार की उम्मीद करना बेमानी होता है। मोदी सरकार के साथ भी यही हुआ। पिछला एक साल बीजेपी सरकार के लिए पूरी तरह से अलोकतांत्रिक होने का साल था। इस सरकार के ऊपर किसी तरह का कोई अंकुश नहीं रह गया और ये स्थिति देश, समाज और राजनीति, तीनों के लिए ख़तरनाक साबित हुई। खुद बीजेपी भी इस मुग़ालते में न रहे। कांग्रेस पार्टी सबसे मजबूत तब हुई जब उसे 1984 में चार सौ से ज़्यादा सीटें मिलीं। उसके बाद वो अभी तक तीन बार सरकार बनाने के बाद भी बहुमत का आँकड़ा नहीं छू पायी है।
संविधान के रास्ते से भटका है देश
पिछले एक साल में परिस्थितियाँ बड़ी तेज़ी से बदली हैं। देश संविधान के रास्ते से भटका है। संविधान की मूल आत्मा को रास्ते से हटाने का पुरज़ोर प्रयास हुआ है। ये प्रयास शीर्ष से हुआ और या तो जानते-बूझते हुआ या फिर किया गया है। हैरानी ये नहीं है कि ऐसा हुआ। हैरानी ये है कि किसी भी संस्था ने इसको रोकने की कोशिश नहीं की। सारी संवैधानिक संस्थाओं ने आत्मसमर्पण कर दिया। संविधान के स्तर पर कहीं से भी प्रतिरोध की कोई आवाज़ सुनाई नहीं पड़ी।केंद्र सरकार निरंकुश न हो इसलिए भारत के संविधान में “सत्ता के अलगाव” के सिद्धांत को अपनाया गया।
कार्यपालिका पर अंकुश लगाने के लिए विधायिका और न्यायपालिका को स्वायत्तता दी गयी है, वे कार्यपालिका के अधीन नहीं रखे गये। उनकी अपनी सत्ता है, उनके अपने अधिकार हैं। वे चाहें तो सरकार के रास्ते में काँटे बो सकते हैं, उसकी नाक में नकेल डाल सकते हैं और चाबुक फटकार कर उसे रास्ते पर ला सकते हैं।
इसके साथ लोकतंत्र का चौथा खंभा भी है जिसे प्रेस कहते हैं। उसका काम है सरकार को देख कर भौंकते रहना, सोते को नींद से जगाना और अगर कार्यपालिका या संविधान का कोई भी अंग आपे से बाहर होने लगे तो उसे लपक कर काटना। पर पिछले एक साल में विधायिका, न्यायपालिका और प्रेस, तीनों ही मोदी सरकार के सामने दंडवत करते दिखे।
ये प्रक्रिया नई नहीं थी। 2014 के बाद से ही चालू थी। 2019 में बहुमत के आंकड़े के बढ़ते ही न जाने क्या जादू हुआ, सबकी रही-सही कमर टूट गयी। कोई इस क़ाबिल नहीं दिखा कि वो सिर उठा कर सरकार की आँख में आँख डालकर बात कर सके। ये वही संस्थान हैं, जो मनमोहन सिंह के ज़माने में जरा सा मौक़ा पड़ते ही गुर्राने लगते थे, सरकार को काट खाने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ते थे। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों ने मनमोहन सिंह सरकार की जो गत बनाई थी, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है।
सीएजी जैसे संस्थान ने सरेआम ये साबित कर दिया था कि मनमोहन सरकार से भ्रष्ट कोई सरकार आज़ाद भारत में आई ही नहीं। 2 जी हो या कोल घोटाला, सब सीएजी की देन थे। और मीडिया की तो पूछो ही मत। वो सुबह से शाम तक सिर्फ़ सरकार की मिट्टी पलीद करता रहता था।
आज आपसे कोई पूछे कि सीएजी कौन है तो शायद ही किसी को उनका नाम याद आये। मीडिया सुबह से शाम तक सिर्फ़ सरकार की आरती उतारता रहता है और विपक्ष की जवाबदेही तय करता है।
आज किसी में हिम्मत नहीं है जो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से एक तीखा सवाल पूछ ले। 2014 से पहले के शेर आज खरगोश बने पड़े हैं जिनको सरकार जब चाहती है तब सहला देती है और जब चाहती है दुत्कार देती है। कोई आत्म सम्मान नहीं बचा है, हाँ, नौकरियाँ ज़रूर सुरक्षित हैं ऐसे लोगों की।
जेबी संगठन बन गया चुनाव आयोग
चुनाव आयोग जिसे कभी टी.एन. शेषन जैसे व्यक्ति ने शेर बना दिया था जिसके सामने राजनीतिक दलों की ज़ुबान सिल ज़ाया करती थी, वो सरकार का जेबी संगठन बन गया है। जो सरकार चाहती है वही होता है। महाराष्ट्र इसका ताज़ा उदाहरण है। पहले कोरोना की वजह से विधान परिषद का चुनाव टाल दिया और जब उद्धव ठाकरे ने प्रधानमंत्री को फ़ोन किया तो अगले ही दिन चुनाव आयोग लॉकडाउन के बावजूद टल चुके चुनाव को कराने के लिए तैयार हो गया।
एक जमाने में चुनाव आयोग में लिंगदोह थे जिन्होंने मोदी की तमाम घुड़की के बाद भी गुजरात में चुनाव तब कराया जब उन्हें उचित लगा। दिल्ली विधानसभा चुनाव में तमाम भड़काऊ भाषणों के बावजूद आयोग चिर निद्रा में सोया रहा।
सुप्रीम कोर्ट पर ढेरों सवाल
सुप्रीम कोर्ट जिसे आम आदमी का आख़िरी सहारा कहा जाता था, पिछले साल वो ग़लतफ़हमी भी पूरी तरह से दूर हो गयी। चाहे अनुच्छेद 370 को शिथिल करने के बाद कश्मीर में आम आदमी के मानवाधिकारों के हनन का सवाल हो या फिर बड़े नेताओं की नज़रबंदी, सुप्रीम कोर्ट के रवैये पर कड़े सवाल उठे। सुप्रीम कोर्ट नागरिकों के साथ खड़ा नहीं दिखाई दिया।
जामिया और जेएनयू के मसले पर अगर सुप्रीम कोर्ट ने निर्णायक दखल दिया होता तो शायद दिल्ली में दंगे नहीं होते। दंगों के बाद एकतरफ़ा पुलिसिया कार्रवाई पर भी उसके हस्तक्षेप की उम्मीद ख़ाली गई। और जब जस्टिस मुरलीधरन या फिर गुजरात हाई कोर्ट के जस्टिस पार्दीवाला और जस्टिस वोरा ने चुस्ती दिखाई तो या तो उनका रातों-रात तबादला कर दिया गया या फिर बेंच ही बदल दी गयी।
जस्टिस गोपाल गौड़ा की तीख़ी टिप्पणी
लॉकडाउन के समय सुप्रीम कोर्ट के रवैये को देखकर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस गोपाल गौड़ा ने लिखा, “अब तक एडीएम जबलपुर का फ़ैसला न्यायपालिका के इतिहास का सबसे बड़ा कलंक था, अब उसकी जगह प्रवासी मज़दूरों की दयनीय हालत पर सुप्रीम कोर्ट की निष्क्रियता ने ले ली है। अदालत ने न केवल अपनी संवैधानिक ज़िम्मेदारी छोड़ दी है बल्कि वो हृदयहीन भी हो गयी है।”
सीएए विरोध को बेरहमी से कुचला
नौकरशाही के तो कहने ही क्या? उसने सरकार के इशारे पर सारे क़ानून ताक पर रख दिये। उनसे कोई भी, कैसा भी ग़ैरक़ानूनी काम करवाया गया। नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) के विरोध में उठी आवाज़ को जिस बेरहमी के साथ दबाया गया और जिस बेईमानी के साथ मासूम लोगों को सलाखों के पीछे डाल दिया गया है, वो भारतीय इतिहास में काले अक्षरों में दर्ज है।
आईएएस और आईपीएस अधिकारी जिन्हें प्रशासन तंत्र की रीढ़ की हड्डी कहा जाता है, वे अपनी हड्डी छुपा, संविधान की ली गई शपथ को भूलकर नागरिकों पर बेइंतहा जुल्म करते दिखे। यूपी में जिस तरह का तांडव नागरिकों के ख़िलाफ़ किया गया, वो आने वालों दिनों में पुलिस अधिकारियों को उनकी शर्मनाक हरकतों की याद दिलाता रहेगा।
और हाँ। लोग आजकल सड़कों पर सवाल पूछ रहे हैं कि विपक्ष कहाँ है। मैं भी उन्हें खोज रहा हूँ। मिल जाये तो बताना। दिल्ली हो या यूपी, बेगुनाह लोगों पर अत्याचार होता रहा और विपक्षी नेता अपने बिलों में दुबके रहे।
आंदोलनों से बनाई दूरी
सीएए और अनुच्छेद 370 पर जब लोगों को इनकी ज़रूरत थी तो ये राष्ट्रवाद की मार खाये लुंज-पुंज पड़े रहे। आज की तारीख़ में प्रवासी मज़दूर सैकड़ों किमी पैदल चलने को मजबूर हैं और मायावती हों या अखिलेश यादव या फिर दूसरे वे बड़े नेता, जो ग़रीबों के मसीहा बनते फिरते हैं, वे ही आंदोलित होते नहीं दिखे। उनकी आत्मा भी सरकार की तरह मर गयी है। और ऐसे ही समय में ही लोकतंत्र के खोल से फासीवाद पैदा होता है, कंसन्ट्रेशन कैंप बनते हैं और इंसानियत रोती है।
बेबस महसूस कर रहा मुसलिम तबका
आज की तारीख़ में मुसलिम तबका अपने को बेबस और असहाय महसूस कर रहा है। तीन तलाक़, कश्मीर, एनआरसी, सीएए और लॉकडाउन में तब्लीग़ी जमात की आड़ में उस पर जिस कदर हमले हुए और संवैधानिक संस्थाएँ उसके साथ खड़े होने से परहेज़ करती दिखीं, वह संवैधानिक व्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं है।
पहले पाँच साल में गो हत्या और लिंचिंग की आड़ में जब मुसलिमों पर हमले हुए, तब भी उन्होंने इतनी बेबसी का एहसास नहीं किया था, अब उन्हें लगता है कि संविधान में बदलाव करके उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाया जा रहा है। और जब वे संविधान के दायरे में शांतिपूर्वक विरोध करते हैं तो उन्हें आतंकवादी, देशद्रोही और पाकिस्तान परस्त कह कर क़हर बरपाया जाता है। ये मानसिकता कभी भी विस्फोटक रूप ले सकती है। पर क्या इसकी परवाह है किसी को। शायद नहीं। शायद वे यही चाहते हैं।
मुझे ये उम्मीद हमेशा से रही थी कि भारत अपने दर्शन, जीवन दृष्टि और मिज़ाज में लोकतांत्रिक है और वो सत्ता की तानाशाही को ज़्यादा बर्दाश्त नहीं करता। पर शायद ये मेरी ग़लतफ़हमी थी। सत्ता के सामने समाज और राजनीति के पूरी तरह से बिछने का ये चरित्र मेरे लिए नया है।
शायद ये चरित्र ही असली और स्थाई चरित्र हो! और शायद यही कारण हो कि हज़ार साल पहले मुठ्ठी भर तुर्क मध्य एशिया से आये और भारतीय आकाश पर छा गये और हम तब से लेकर 1947 तक ग़ुलाम रहे। कहीं, इतिहास फिर अपने को तो नहीं दुहरा रहा है?
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