loader

मोदी के सात साल: आयेगा तो मोदी ही!

पिछले कार्यकाल की तरह मोदी के पास अरुण जेटली जैसा ‘राजनीतिक सलाहकार’ नहीं है, अनुभवी नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह पर भरोसा शायद नहीं किया जाता, लेकिन अमित शाह एक ‘मज़बूत दीवार’ की तरह उनके साथ खड़े हैं। दूसरी तरफ़ विपक्ष के पास ना एकजुटता है, ना विश्वसनीय नेतृत्व और ना ही कोई उम्मीद भरा कार्यक्रम...।
विजय त्रिवेदी

केंद्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार के सात साल पूरे हो गए। अटल बिहारी वाजपेयी के बाद वे दूसरे ग़ैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने लगातार सात साल अपनी सरकार के पूरे कर लिए हैं, लेकिन वाजपेयी सरकार के मुक़ाबले मोदी सरकार ज़्यादा स्पष्ट बहुमत वाली मज़बूत सरकार है और मोदी सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री।

अपने पहले आम चुनाव साल 2014 में बीजेपी को 282 सीटें मिलीं फिर 2019 के चुनावों के वक़्त जब बहुत से राजनीतिक विशेषज्ञ अपने-अपने कयास और बीजेपी के गिरते ग्राफ़ की संभावना जता रहे थे तब पिछली बार से भी ज़्यादा ताक़त 303 सांसदों के साथ मोदी ने वापसी की। कहने भर को यह एनडीए की सरकार है, लेकिन आँकड़ों के हिसाब से यह सिर्फ़ बीजेपी की सरकार है और राजनीतिक विशेषज्ञों के मुताबिक़ इसे सिर्फ़ नरेन्द्र मोदी की सरकार कहा जाना चाहिए। अब तो बीजेपी समेत ज़्यादातर लोग मानते हैं कि इस सरकार में सारे निर्णय प्रधानमंत्री करते हैं, यहाँ तक कि सामूहिक नेतृत्व की औपचारिकता का दिखावा भी नहीं रह गया है।

ताज़ा ख़बरें

लाशों की लहर

मोदी सरकार की सफलताओं की लिस्ट यूँ छोटी नहीं है। बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणापत्रों में जिन वायदों की बात की, उन्हें पूरा करने की कोशिश सरकार ने की। चाहे वह जम्मू कश्मीर से धारा 370 को हटाने की बात हो या फिर अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का मसला हो। नागरिकता संशोधन क़ानून को भी सरकार ने पास कराया और किसानों से जुड़े तीन कानून भी। नोटबंदी जैसे अहम फ़ैसले भी मोदी सरकार ने किए तो आतंकवादी हमले के बाद पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राइक भी। जन-धन योजना से लेकर उज्ज्वला योजना तक और आप चाहें तो नेशनल हाईवे में तेज़ रफ्तार से होता काम भी जोड़ सकते हैं। इसके अलावा भी ढेरों योजनाएँ और फ़ैसले हैं जिन पर मोदी सरकार ने काम किया।

पिछले साल जब महामारी कोरोना ने पैर पसारने शुरू किए तब भी काम चल रहा था, लेकिन इस बार जब कोरोना की दूसरी लहर आई तो सब कुछ साफ़ हो गया। केन्द्र सरकार निशाने पर आ गई। स्वास्थ्य सेवाओं का चरमराता ढांचा और पिछले एक साल में तैयारियों की असलियत भी सामने आ गई।

कोरोना की दूसरी लहर के बाद देश भर में ऑक्सीजन सिलेंडरों की कमी, दवाओं का संकट, वेंटिलेटर और अस्पतालों में बैड की कमी के साथ डॉक्टरों और पैरा मेडिकल स्टॉफ कुछ भी पर्याप्त नहीं था। लोग मर रहे थे। लाशों का ढेर दिखने लगा। श्मशानों में जलाने के लिए लकड़ियां नहीं, तो कब्रिस्तान में दफन करने के लिए जगह नहीं बची। फिर नदियों में बहती लाशों ने तो हाहाकार मचा दिया। कोरोना से निपटने के लिए वैक्सीन अभियान की शुरुआत तो हुई, लेकिन राज्यों के पास वैक्सीन का संकट खड़ा हो गया। बार-बार वैक्सीन नीति को बदला गया। केन्द्र में बैठे मंत्री और नेता विदेशी मदद से हवाई जहाजों से आते ऑक्सीजन टैंकरों और ऑक्सीजन एक्सप्रैस के फोटो ट्वीट कर रहे थे लेकिन मैदान में कोई नहीं था। 
‘जान है तो जहान है’ से ‘जान भी जहान भी’ का नारा देने वाली सरकार को ना लॉकडाउन खोल कर जहान को चलाने का रास्ता दिख रहा था और ना ही मरते लोगों की जान बचाने में कामयाबी मिल पाई।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने जब ‘पॉजिटिविटी अनलिमेटड’ के अपने भाषण में कहा कि पहली लहर के बाद ‘गफ़लत’ हो गई तो वो सरकार के लिए भी संदेश था।

आमतौर पर ग़लतियों की जिम्मेदारी तय करने की बात सरकारों में होती है ताकि लोगों को विश्वास हो सके कि आगे बेहतर होगा। 1962 के युद्ध में हार के बाद प्रधानमंत्री नेहरू ने वी के कृष्णा मेनन को हटा दिया और उनकी जगह वाई बी चव्हाण आए। लाल बहादुर शास्त्री ने तो रेल दुर्घटना के बाद खुद इस्तीफ़ा दे दिया, वाजपेयी सरकार में नीतीश कुमार ने भी बतौर रेल मंत्री ऐसा किया। मनमोहन सिंह सरकार में साल 2008 में 26/11 की घटना के बाद शिवराज पाटिल का इस्तीफ़ा हो गया और पी चिदंबरम आए। इसका मतलब कोरोना संकट पर किसी मंत्री का इस्तीफ़ा मांगने से नहीं है, लेकिन जवाबदेही तो तय होनी ही चाहिए।

modi government 7 years in office and opposition weakness  - Satya Hindi

सेवा का जश्न 

केन्द्र सरकार अपनी पहली सालगिरह से अब तक हर साल अपनी वर्षगांठ बड़े जोर-शोर से और जश्न के साथ मनाती रही है, लेकिन इस बार बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने अपने कार्यकर्ताओं को चिट्ठी लिखकर कहा है कि इस बार वे ‘जश्न नहीं मनाएँ’ और ‘सेवा करें’ यानी ‘जश्न से सेवा’ तक पहुँचने की ज़रूरत इस बात का इशारा करती है कि अब पार्टी और सरकार को भी महसूस होने लगा है कि सब कुछ ठीक नहीं है।

कुछ सर्वेक्षणों में इस बात का इशारा किया गया है कि मोदी सरकार की लोकप्रियता में कमी आई है लेकिन यह अब भी 38 फ़ीसदी से ज़्यादा है यानी कोई दूसरा राजनीतिक दल उसके आसपास नहीं है। देश की सबसे पुरानी पार्टी और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस अब सिर्फ़ नामभर के लिए है। संसद में उसकी ताक़त कम है लेकिन देश भर में भी उसके कार्यकर्ताओं का जोश या विरोध दिखाई नहीं दे रहा। साल 2014 और 2019 के चुनावों में कांग्रेस को उन 90 फ़ीसदी सीटों पर हार का सामना करना पड़ा जिसमें उसका मुक़ाबला सीधे बीजेपी से था। साल 2014 में इस मुक़ाबले में बीजेपी ने जहाँ 88 फ़ीसदी और कांग्रेस ने 12 फ़ीसदी सीटें हासिल कीं वहीं 2019 में यह 92 फ़ीसदी और 8 फ़ीसदी हो गया। 

विचार से ख़ास

लेकिन अब भी कांग्रेस ही देश में बीजेपी के सामने सबसे बड़ी पार्टी है और उसे क़रीब बीस फ़ीसदी वोट मिले हैं, जबकि बीजेपी को 38 फ़ीसदी वोट हासिल हुए। कांग्रेस के अलावा दूसरे कई बड़े विपक्षी दलों का कुल मिला कर वोट भी बीस प्रतिशत नहीं होता। यानी अब कांग्रेस बीजेपी से लड़ने के लिए कितने विपक्षी दलों को एकजुट करके यह लड़ाई जीत सकती है, यह उसे तय करना है। राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि कांग्रेस में नेहरू गांधी परिवार के बजाय किसी और को नेतृत्व सौंपा गया तो कांग्रेस बची-खुची हालत को संभालने लायक भी नहीं रहेगी। पश्चिम बंगाल में ममता की जीत ने बीजेपी के विजय रथ को ही नहीं रोका बल्कि यह भी बता दिया कि कोई भी ऐसा नहीं, जो अजेय हो।

साल 2024 के आम चुनाव अभी दूर हैं, लेकिन इससे पहले 16 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, जिसमें अगले साल सात राज्यों में वोट पड़ेंगे, उनमें सबसे अहम और सबसे बड़ा राज्य उत्तरप्रदेश है। यूपी के अलावा अगले साल फ़रवरी में उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा में, फिर साल के आख़िर में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव होने हैं। गुजरात में पिछली बार भी बड़ी मुश्किल से बीजेपी सरकार बना पाई थी। उत्तराखंड में हाल में मुख्यमंत्री को बदला गया है, पंजाब में कोई संभावना फ़िलहाल नहीं दिखती। साल 2023 में नौ राज्यों- मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा में फ़रवरी में, मई में कर्नाटक में और दिसम्बर में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में वोट डाले जाएंगे। इन चुनावों में पिछले चुनावों से बीजेपी को बहुत कुछ सीखना बाकी है।

modi government 7 years in office and opposition weakness  - Satya Hindi

फीनिक्स लीडर

क्या इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि साल 2024 में मोदी को हैट-ट्रिक लगाने से रोका जा सकता है, फ़िलहाल तो ऐसा नहीं लगता। बीजेपी को हराने के लिए ज़्यादातर लोग एक संयुक्त विपक्ष की पैरवी करते हैं, लेकिन भारत में संयुक्त विपक्ष के प्रयोग बहुत सफल नहीं रहे हैं चाहे वो 1967 में संयुक्त विपक्षी दल हों, 1977 में जनता पार्टी का प्रयोग हो, या फिर 1989 में वी पी सिंह के नेतृत्व में जनता दल और फिर 1996 में तीसरा मोर्चा या बाद में संयुक्त मोर्चा। सच यह भी है कि इन प्रयोगों की असफलता के बावजूद इस तरह के गठजोड़ ने ही केन्द्र में एक पार्टी के शासन को ख़त्म किया है, इसमें 400 से ज़्यादा सीटों वाली राजीव गांधी सरकार भी शामिल है।

मौजूदा राजनीति में ख़ासतौर से विपक्ष में कोई जयप्रकाश नारायण या विश्वनाथ प्रताप सिंह दिखाई नहीं देता और न ही दिल्ली के चुनावों की तरह अण्णा हज़ारे।

विपक्ष को मोदी की ताक़त को समझना होगा, वो हिन्दुस्तान की राजनीति के ‘फीनिक्स’ हैं, उन पर निजी हमले, मोदी को ताक़तवर बनाते हैं। चाहे वो 2007 के गुजरात चुनावों में सोनिया गांधी का ‘मौत का सौदागर’ का बयान, 2014 में मणिशंकर अय्यर का ‘चायवाला’ और फिर 2019 से पहले राहुल गांधी का ‘चौकीदार चोर है’, का अभियान। अब फिर कांग्रेस ने मोदी के एक कार्यक्रम में ‘आंसुओं’ का मज़ाक़ बनाया है। राहुल गांधी के –‘मगरमच्छ निर्दोष है’, का हमला मोदी को ताक़त देगा।

लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक पर निजी हमले किए गए। अभी ममता बनर्जी के ख़िलाफ़ जैसा अभियान बीजेपी ने चलाया, उसका नतीजा भी सामने है। इस वक़्त सरकार पहली बार अपने कामकाज को लेकर कटघरे में हो तो उसकी नीतियों पर हमला के करने बजाय मोदी पर व्यक्तिगत हमले राजनीतिक तौर पर नुक़सान करेंगे। बहुत से लोग अभी मोदी सरकार के कामकाज से नाराज़ है, लेकिन मोदी पर व्यक्तिगत हमला उन्हें ‘चक्रव्यूह का अभिमन्यु’ बनाते हैं और समर्थक ज़्यादा ताक़त से उनके साथ खड़े हो जाते हैं।

ख़ास ख़बरें

पिछले कार्यकाल की तरह मोदी के पास अरुण जेटली जैसा ‘राजनीतिक सलाहकार’ नहीं है, अनुभवी नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह पर भरोसा शायद नहीं किया जाता, लेकिन अमित शाह एक ‘मज़बूत दीवार’ की तरह उनके साथ खड़े हैं। दूसरी तरफ़ विपक्ष के पास ना एकजुटता है, ना विश्वसनीय नेतृत्व और ना ही कोई उम्मीद भरा कार्यक्रम। विपक्ष के पास आरएसएस जैसा मज़बूत संगठन भी नहीं है और जयप्रकाश नारायण जैसा ईमानदार नेता या फिर हरकिशन सिंह सुरजीत जैसा राजनीतिक शतरंज का खिलाड़ी। आज ‘मोदी है तो मुमकिन है’ के नारे की चमक भले ही कम हुई हो, लेकिन ‘आएगा तो मोदी ही’ की गूंज अभी बाक़ी है। मगर इतना तय है कि जब जनता तय कर लेती है कि सिंहासन खाली करो… तो फिर कोई नहीं टिक पाता।

साल 2019 के चुनावों में एनडीए के 44 फ़ीसदी वोटों के मुक़ाबले यूपीए को 26 फ़ीसदी वोट मिले थे। क्या विपक्षी पार्टियाँ इस फ़ैसले को कम करने के लिए तैयार दिखती हैं? मोदी सरकार की ‘हैट-ट्रिक’ में मुश्किलें फ़िलहाल नहीं लगतीं बशर्ते वो ‘डिनायल मोड’ में नहीं रहे। सत्ता को अक्सर आलोचना पसंद नहीं होती, लेकिन ना जाने क्यों मुझे सआदत हसन मंटो की कही वो बात याद आ रही है कि – ‘मेरे अफसाने नहीं, ज़माना नाक़ाबिले बर्दाश्त है’।

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
विजय त्रिवेदी
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें