जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन और इसका विशेष दर्जा ख़त्म किए जाने के एक साल पूरे होने के कुछ दिन पहले यानी 31 जुलाई को दक्षिण कश्मीर के क़ाजी शिब्ली को पुलिस ने पूछताछ के लिए बुलाया, उन्हें गिरफ़्तार कर लिया और उन पर धारा 107 लगा दिया। इसके ठीक एक साल पहले शिब्ली को गिरफ़्तार कर उत्तर प्रदेश की किसी जेल में डाल दिया गया था, जहां वह नौ महीने पड़े रहे।
उन्होंने रिहा होने के बाद अप्रैल महीने में एक स्थानीय अख़बार को दिए इंटरव्यू में जेल को पिंजड़ा बताया और कहा कि ‘जेल ने उनके साथ वही किया जो कोई पिंजड़ा किसी पक्षी के साथ करता है।’
पिंजड़े में बंद
क़ाजी शिब्ली की एक साल की स्थिति वहां मीडिया की स्थिति को बयान करती है। पिंजड़े में बंद। कुछ दिन पहले वरिष्ठ पत्रकार गौहर गिलानी ने ट्वीट किया, "एक बहुत ही वरिष्ठ सहकर्मी और प्रतिष्ठित पत्रकार ने निजी बातचीत में आह भर कर कहा, ‘हर सामान्य स्टोरी लिखते समय मुझे लगता है कि मैं अपनी पीएसए फ़ाइल लिख रहा हूं। सेंसरशिप टेबल पर नहीं, दिमाग में है। बहुत अधिक डर है।"
इस भयावह पब्लिक सेफ़्टी एक्ट में अधिकारियों को बग़ैर किसी आरोप के दो साल तक किसी को जेल में रखने का अधिकार दिया गया है। बीते साल राजनेताओं के अलावा दूसरे हज़ारों लोगों को पीएसए में गिरफ़्तार कर लिया गया, क़ाजी शिब्ली उनमें से एक हैं।
जब अनुच्छेद 370 ख़त्म किया गया
पहले पत्रकारों के लिए जो रुकावट की चीज थी, वह अब उनके लिए डरावना अनुभव बन गई है। जिस दिन अनुच्छेद 370 ख़त्म किया गया, मीडिया के लोग जड़वत हो गए, यकायक कर्फ़्यू लगा दिया गया, प्रतिबंध लग गए और लैंडलाइन फ़ोन समेत संचार की हर चीज को प्रतिबंधित कर दिया गया। लैंडलाइन फ़ोन फिर से चालू करने में 5 महीने लगे, मोबाइल फ़ोन आंशिक रूप से चालू करने में दो महीने का समय लगा और इस लेखिका की ओर से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने के बाद 6 महीनों में कई चरणों में इंटरनेट चालू किया गया।
फ़ैसले की भावना के ख़िलाफ़ इंटरनेट सुविधा टुकड़ों में चालू की गईं और शुरू में सिर्फ चुनिंदा वेबसाइटें ही खुल रही थी, बाद में फ़ायरवॉल हटाया गया। आज भी पूरे जम्मू-कश्मीर में हाई स्पीड इंटरनेट नहीं है।
निगरानी
जिन दिनों कनेक्टिविटी नहीं थी, पत्रकारों के पास सरकारी मीडिया फैसिलिटेशन सेंटर से ख़बरें भेजने के सिवा कोई उपाय नहीं था। वहां सुविधाएं पर्याप्त नहीं थीं और रोज़ाना 200 पत्रकारों को कुछ कंप्यूटरों के लिए जद्दोजहद करना होता था। इससे पत्रकारों की निगरानी भी हो जाती थी, जिससे उनमें डर बढ़ गया था। ज़िलों में काम करने वाले रिपोर्टरों को तो यह ‘विलासिता’ भी उपलब्ध नहीं थी।
कई अख़बार गायब हो गए, कुछ किसी तरह छोटे रूप में बग़ैर विचारों वाले पन्ने के साथ किसी तरह निकलते रहे, उनमें सरकारी बयानों और विज्ञप्तियों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने वाली ख़बरें होती थीं।
अघोषित सेंसरशिप
कश्मीर के मीडिया ने संघर्ष के तीन दशकों में ज़बरदस्त दबाव झेला है, सरकार और सरकार के बाहर के लोगों की ओर से डराने-धमकाने, मुँह बंद करने के नए-नए तरीकों और सेंसरशिप की चुनौतियों को बर्दाश्त किया है।
सरकार और चरमपंथियों, दोनों ने अख़बारों को बीच बीच में प्रतिबंधित किया है। मीडिया के लोगों को जेल में डाला गया है और उन पर हमले हुए हैं, वे मारे भी गए हैं।
ब्लैक होल में सूचना
पर पिछले साल से कई स्तरों पर रुकावटें डालने और काम करने की छूट नहीं देने की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इससे हर तरह की आवाज़ रुक गई है और सूचना को किसी तरह के ब्लैक होल में डाल दिया गया है। डर की सेंसरशिप लग गई है, हालांकि कई पत्रकार हर तरह की चुनौतियों का सामना करते हुए अभी भी बोल रहे हैं। उन्हें बार-बार पुलिस से बुलाए जाने, घंटों पूछताछ किए जाने और परेशान किए जाने का डर है।
प्रतिबंध ढीले किए जाने लगे तो मीडिया जॉर्ज ऑर्वेल की ‘1984’ की दुनिया में पहुँच गई, जहां किसी भी विचार और किसी भी शब्द को ‘वैचारिक अपराध’ क़रार दिया जा सकता है। यह शब्दश: हो रहा है।
पत्रकारों पर यूएपीए
जम्मू-कश्मीर की सरकार ने इस साल अप्रैल में कई पत्रकारों पर आपराधिक मामला दर्ज कर दिया। गौहर गिलानी और मसरत ज़हरा पर उनके सोशल मीडिया पोस्ट की वजह से यूएपीए लगा दिया गया। ‘द हिन्दू’ के विशेष संवाददाता आशिक पीरज़ादा पर ‘फ़ेक न्यूज़’ देने का आरोप लगाया गया। प्रेस के ख़िलाफ़ ये कार्रवाइयां डर का वातावरण बनाने के लिए और दूसरों को उत्पीड़न का चरित्र बताने के लिए थीं, क्योंकि और मुसीबतें आने वाली थीं।
दो महीने बाद राज्य सरकार ने 2020 के लिए अपनी मीडिया नीति का एलान किया। इसमें सरकार को यह पूरा अधिकार दिया गया है कि वह प्रकाशनों और पत्रकारों की पूरी निगरानी रख सकती है, सुरक्षा एजेन्सियों को उनकी जानकारी देकर उनकी ‘पृष्ठभूमि की जाँच’ करवा सकती है, ‘फ़ेक न्यूज’, दूसरों की सामग्री चुरा कर छापने और राष्ट्र विरोधी सामग्री के मामले मे वह स्वयं ही जज और ज्यूरी बन सकती है।
यह सुनिश्चित कर दिया गया है कि पत्रकार या तो आत्मसमर्पण कर दें और सरकारी प्रचार का जरिया बन जाएं या जेल में सड़ते रहें।
निष्पक्ष पत्रकारिता
उच्चतम स्तर की पत्रकारिता सरकार के जन संपर्क विभाग का क्लोन बन कर नहीं बल्कि व्यवस्था की ख़ामियों के कुरूप सच और सत्ता के गलियारों में बैठे लोगों के अपने अधिकार के दुरुपयोग को उजागर कर ही की जा सकती है।
निष्पक्ष पत्रकारिता का उद्देश्य समाज को आईना दिखाना और सत्ता में बैठे लोगों से सच कहना होता है। निष्पक्ष मीडिया की भूमिका निगरानी करने वाली की होती है और लोकतंत्र में यह माना जाता है कि वह सरकार को जनता के प्रति उत्तरदायी बनाता है।
नई मीडया नीति इस परिदृश्य को बदल कर पत्रकारों को ही सरकार के प्रति उत्तरदायी बना रही है और अब सरकार सब पर निगरानी रखने का काम कर रही है।
मीडिया को सच बोलने और सरकार के झूठ का पर्दाफाश करने से रोकने की कोशिशें हो रही हैं। आज़ाद और निष्पक्ष मीडिया नई दिल्ली के मिशन कश्मीर की राह में बहुत बड़ा रोड़ा है और इसी से मीडिया को चुप करने, गला दबाने और ख़त्म करने के विभिन्न उपायों के कारणों का पता चलता है।
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