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विपक्षी एकजुटता का राग- बहुत कठिन है डगर पनघट की

पश्चिम बंगाल में जीत दर्ज करने के बाद टीएमसी की नेता ममता बनर्जी दिल्ली दौरे पर आई थीं। जीत के बाद यह उनका पहला दिल्ली दौरा था। इस कड़ी में उल्लेखनीय होगा कि दिल्ली आने से पूर्व ही टीएमसी ने उन्हें संसदीय दल का नेता चुन लिया था। संभव है कि इसके पीछे टीएमसी की सोची-समझी रणनीति रही हो। 

इसके आसार इसलिए भी अधिक नजर आ रहे हैं क्योंकि ममता बनर्जी ने विपक्षी एकजुटता के सुसुप्त राग को फिर से छेड़ दिया है। हालांकि रोचक यह है कि वे न विधायक हैं और न ही सांसद। 

तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट 

ममता को टीएमसी द्वारा संसदीय दल का नेता बनाने की कवायद को तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट की स्थिति से जोड़ कर देखा गया है। क्योंकि दिल्ली में ममता ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी तथा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल से मुलाकात की। सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद ममता का कहना था कि बीजेपी को हराने के लिए सबको एकजुट होना जरूरी है। उन्होंने यह भी कहा कि संसद सत्र के बाद हम सभी दलों के साथ मिलकर चर्चा करेंगे।   

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दरअसल, मोदी सरकार आने के बाद विपक्षी एकजुटता की कोशिशें महज राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों तक सीमित न होकर एक ‘इको-सिस्टम’ के तौर पर विकसित हो गयी हैं। इस 'इको-सिस्टम' का हिस्सा राजनीतिक दल भी हैं तथा इन दलों से सहानुभूति रखने वाले बुद्धिजीवी वर्ग के लोग भी हैं। इसमें कुछ पत्रकार भी शामिल हैं और कुछेक चुनावी रणनीतिकार भी शामिल हैं। 

हालांकि भारत में विपक्ष की एकजुटता के 'इको-सिस्टम' की मुश्किल ये है कि वह इस दिशा में प्रयास तो करता है लेकिन स्थायी नेतृत्व देने के सवाल पर निरुत्तर हो जाता है।

Mamata Banerjee Delhi visit to unite opposition - Satya Hindi

गैर-कांग्रेसी दल हुए थे एकजुट 

दरअसल, भारत में विपक्षी एकजुटता के इतिहास को देखें तो यह टेढ़ी खीर से कम नहीं है। आजादी के बाद जब देश में नेहरू के वर्चस्व वाली कांग्रेस सरकार चल रही थी, उस दौरान भी साठ के दशक में गैर-कांग्रेसी दलों ने विपक्षी एकजुटता की कवायदों को शुरू किया। अनेक गैर-कांग्रेसी दल कांग्रेस की सत्ता के बरक्स एकजुट हुए। यह अलग बात है कि उन्हें स्थायी सफलता नहीं मिली और एकजुटता तितर-बितर हुई। 

ममता के दिल्ली दौरे पर देखिए चर्चा-
ठीक वैसा ही हश्र आपातकाल के बाद जनता पार्टी का हुआ। विपक्षी एकजुटता का यह प्रयोग थोड़ा अलग और नया था, लेकिन अनेक धड़ों के आंतरिक टकरावों ने इस एकजुटता को खंडित करने का काम किया। इस प्रकार से और भी अवसर आये जब कांग्रेस के खिलाफ एकजुटता की कोशिशें हुईं लेकिन अधिक समय नहीं टिक पाई। 
नब्बे के दशक से पहले कोई तीसरा मोर्चा बड़े स्तर पर अस्तित्व में नहीं था। इसके पहले जो एकजुटता वाले मोर्चे थे उसमें बीजेपी भी भागीदार की तरह समाजवादियों एवं अन्य दलों के साथ शामिल होती थी।

तीसरे मोर्चे का वास्तविक अस्तित्व तब आया जब कांग्रेस के सामने बीजेपी एक मजबूत दल बनकर देश स्तर पर उभरी। यह कहना उचित होगा कि राजनीति में दो ध्रुवीय दलीय उभार ने तीसरे मोर्चे की संभावनाओं को बल दिया है। यह एक ऐसा मोर्चा है जिसकी बुनियाद में न सिर्फ गैर-बीजेपी की बात होती है बल्कि गैर-कांग्रेस की चर्चा भी होती है। 

कांग्रेस में टूट 

चूंकि नब्बे के उतरार्ध में जब बीजेपी कांग्रेस का विकल्प बनकर उभरी, यह वही कालखंड था जिसमें कांग्रेस में आंतरिक टूट भी हो रही थी। ममता ने कांग्रेस छोड़कर बंगाल में अपना स्वतंत्र दल, टीएमसी, बना लिया जबकि महाराष्ट्र के ताकतवर कांग्रेसी नेता शरद पवार ने अपना दल गठित कर लिया। 

उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा जैसे राज्यों में क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व पहले ही आ गया था। ऐसे में अनेक दल जो कांग्रेस से अलग हुए थे, किंतु बीजेपी के भी साथ नहीं जाना चाहते थे, उन्हीं दलों को जोड़कर तीसरे मोर्चे की हवा अक्सर चुनावी मौसम में चलती रहती है। 

लोकसभा चुनाव 2019 से पहले भी इसकी कोशिश हुईं। राज्यों के चुनावों में भी ऐसे दल मंचों से एकजुटता का बिगुल फूंकते नजर आ जाते हैं। किंतु अनेक प्रयासों के बावजूद अभी तक ऐसे किसी तीसरे मोर्चे का ठोस अस्तित्व यथार्थ में नहीं बन पाया है।

तीसरे मोर्चे का गठन मुश्किल

तीसरे मोर्चे के सामने सबसे बड़ी कठिनाई नेतृत्व पर सहमति को लेकर है। चूंकि कांग्रेस के साथ अगर ऐसे किसी मोर्चे के राष्ट्रीय स्तर पर बनने की संभावना पैदा भी हो तो उसमें नेतृत्व क्षेत्रीय दलों के हाथ में जाने की संभावना बहुत होने पर कांग्रेस इस मोर्चे से पहले ही अलग हो जाती है। 

दूसरी कठिनाई ये है कि अनेक क्षेत्रीय दल स्थानीय राजनीतिक कारणों से पहले ही या तो एनडीए अथवा यूपीए का हिस्सा हैं तो उनको भी तीसरे मोर्चे में लेना संभव नहीं हो पाता। अब बचे वो दल जो राष्ट्रीय स्तर पर न तो एनडीए का हिस्सा हैं और न यूपीए में भागीदार हैं। इन दलों के बीच भी एकजुटता की राह में बड़ी कठिनाई पूर्व घोषित नेतृत्व की स्वीकार्यता का नहीं बन पाना है। 

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यही कारण है कि विपक्षी एकजुटता की कवायदें अधिक से अधिक चाय पार्टी, फोटो सेशन, मीडिया कवरेज तथा मंचों पर हाथ मिलाकर लहराने तक सीमित रह जाती है। इसका कोई स्थायी और टिकाऊ आधार नहीं बन पाता। कम से कम अभी तक तो ऐसा कोई आधार नहीं दिखा है। 

पूर्ण बहुमत की सरकारों का दौर

पिछले कुछ वर्षों में देश की राजनीति में एक बदलाव यह भी आया है कि जनता अब चुनावों में पूर्ण बहुमत को लेकर ज्यादा आश्वस्त और भरोसेमंद हुई है। राज्यों तथा देश में सरकारें पूर्ण बहुमत से बहुतायत चुनकर आ रही हैं। जनता को मध्यावधि चुनावों से परहेज है। अत: वे किसी ऐसी एकजुटता पर जल्दी भरोसा नहीं करते जो 'कहीं का ईट, कहीं का रोड़ा' वाले भानुमति के कुनबे जैसा हो। तीसरे मोर्चे की संभावनाओं के लिहाज से यह भी एक शुरूआती कठिनाई है। 

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दूर की कौड़ी 

ऐसे में बेशक ममता बंगाल की बड़ी जीत के बाद राष्ट्रीय राजनीति में आने की मंशा पाल रही हैं। वे दिल्ली में एकजुटता की बहस को भी हवा देने में लगी हैं। किंतु इतिहास के सबक और वर्तमान का यथार्थ फिलहाल यही कहता है कि ऐसी कोई भी राजनीतिक कोशिश टीएमसी अथवा किसी भी स्थानीय दल के लिए दूर की कौड़ी है। 

फिलहाल तो यही कहना मुनासिब लगता है कि ‘बहुत कठिन है डगर पनघट की।’

लेखक बीजेपी के थिंकटैंक एसपीएमआरएफ़ में फैलो हैं।  

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शिवानंद द्विवेदी
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