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एरिक हॉब्सबॉम का प्रसिद्ध कथन है कि (सांप्रदायिक) राष्ट्रवाद के लिए इतिहास उतना ही महत्वपूर्ण है जितनी अफ़ीमची के लिए अफीम।
हमारे देश में दक्षिणपंथ तेजी से अपने पंख फैला रहा है। और उतनी ही तेजी से उसके वैचारिक कर्ताधर्ता उसके राजनैतिक एजेंडा के अनुरूप नया इतिहास गढ़ रहे हैं। इस नए इतिहास में कुछ चीज़ों का महिमामंडन किया जा रहा है तो कुछ चीज़ों को दबाया, छुपाया और मिटाया जा रहा है। इस विरूपण के निशाने पर भारतीय के अतीत का प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक दौर तीनों हैं।
मध्यकालीन इतिहास को इसलिए तोड़ा-मरोड़ा गया ताकि यह दिखाया जा सके कि वह इस्लामिक साम्राज्यवाद का दौर था, जिसमें दुष्ट, क्रूर और धर्मांध मुस्लिम राजा शासन करते थे। इसके ज़रिये आज के मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाई गई। प्राचीन भारत को वे देश का स्वर्णकाल बताते हैं। मगर उसके इतिहास से भी छेड़छाड़ करने से वे बाज नहीं आए। उन्हें यह साबित करना था कि आर्य, इस भूमि के मूल निवासी थे।
स्वाधीनता संग्राम के सन्दर्भ में उन्होंने नेहरू पर निशाना साधा क्योंकि नेहरू ही वे महापुरुष थे जिन्होंने न सिर्फ सैद्धांतिक बल्कि व्यावहारिक स्तर पर भी धर्मनिरपेक्षता को अपनाया। नेहरू जानते थे कि भारत में धर्मनिरपेक्षता को ज़मीन पर उतारना एक बेहद कठिन काम है क्योंकि भारतीय समाज का बड़ा तबक़ा अंध-धार्मिकता के चंगुल में है। उन्होंने बहुसंख्यकवादी साम्प्रदायिकता के ख़तरे को समझा और उसे फासीवाद के समकक्ष बताया। नेहरू का मानना था कि अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता अधिक से अधिक अलगाववादी हो सकती है।
नेहरू के गुरु महात्मा गाँधी की हत्या एक ऐसे व्यक्ति ने की थी जो हिन्दू महासभा के लिए काम करता था और आरएसएस द्वारा प्रशिक्षित था। मगर गांधीजी का दानवीकरण करना आसान नहीं था। इसका कारण था उनकी वैश्विक प्रतिष्ठा और भारतीयों के दिलों में उनके प्रति प्रेम और श्रद्धा का भाव।
मगर अब जबकि सांप्रदायिक दक्षिणपंथ को लगता है कि उसकी जड़ें काफी गहराई तक पहुँच चुकी हैं, इसलिए उसके चिन्तक-विचारक अब गांधीजी की 'कमियों' पर बात करने लगे हैं और भारत के स्वतंत्रता हासिल करने में उनके योगदान को कम करके बताने लगे हैं। इस 30 जनवरी को जब देश राष्ट्रपिता को श्रद्धांजलि दे रहा था तब कुछ पोर्टल ऐसे वीडियो प्रसारित कर रहे थे जिनका केन्द्रीय संदेश यह था कि गांधीजी केवल उन कई लोगों में से एक थे जिन्होंने भारत की आज़ादी के लिए संघर्ष किया।
अलग-अलग पॉडकास्टों और सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के ज़रिये यह प्रचार किया जा रहा था कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने के पीछे महात्मा गाँधी के प्रयासों की बहुत मामूली भूमिका थी।
पिछले कई सालों से 'महात्मा गोडसे अमर रहें' के नारे ट्विटर (अब एक्स) पर अलग-अलह मौकों पर गूंजते रहे हैं। यह सचमुच बहुत खेदजनक और दुखद है। पूनम प्रसून पांडे ने गांधीजी के पुतले पर गोलियां चलाईं और फिर उससे खून बहता दिखाया। तीस जनवरी को 11 बजे सुबह सायरन बजाने और दो मिनट का मौन रखने की परंपरा का भी पूरी तरह पालन नहीं किया जा रहा है। इस साल महाराष्ट्र सरकार ने दो मिनट के मौन के बारे में जो सर्कुलर जारी किया, उसमें गांधीजी का नाम तक नहीं था।
गाँधीजी के शहादत दिवस पर इन सब दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण हालातों के बावजूद भी क्या हम भूल सकते हैं कि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी थी। यह दुष्प्रचार किया जाता है कि गांधीजी और कांग्रेस ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस को नज़रअंदाज़ किया। तथ्य यह है कि नेताजी और कांग्रेस में भले ही रणनीति को लेकर कुछ मतभेद रहे हों मगर दोनों का मूल उद्देश्य एक ही था- अंग्रेजों को देश से बाहर करना। नेताजी ने ही पहली बार गांधीजी को 'राष्ट्रपिता' कहकर संबोधित किया था। उन्होंने अपनी आज़ाद हिंद फ़ौज की एक बटालियन का नाम 'गाँधी बटालियन' रखा था। गाँधीजी और कांग्रेस ने आज़ाद हिंद फौज के गिरफ्तार कर लिए गए सेनानियों के मुक़दमे लड़ने के लिए भूलाभाई देसाई, कैलाशनाथ काटजू और जवाहरलाल नेहरू जैसे जानेमाने वकीलों की समिति गठित की थी।
हमें यह भी बताया जा रहा है कि गांधीजी ने भगतसिंह को फाँसी से बचाने के लिए कुछ नहीं किया। मगर हमसे यह तथ्य छिपा लिया जाता है कि गांधीजी ने लार्ड इरविन को पत्र लिख कर भगतसिंह को मौत की सजा न देने के लिए कहा था। इसके जवाब में इरविन ने कहा कि वे ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि पंजाब के सभी ब्रिटिश अधिकारियों ने धमकी दी है कि अगर गांधीजी के अनुरोध को स्वीकार किया गया तो वे सामूहिक रूप से इस्तीफा दे देंगे। सबसे दिलचस्प बात यह है कि भगतसिंह ने अपने पिता से अनुरोध किया था कि वे भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के जनरल (महात्मा गाँधी) का समर्थन करें। और भगतसिंह के पिता कांग्रेस में शामिल हो गए थे।
गांधीजी के योगदान को कम करके बताने के लिए उनके द्वारा शुरू किये गए तीन बड़े आंदोलनों में दोष निकाले जाते हैं। सन 1920 के असहयोग आन्दोलन - को अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लड़ाई में आमजनों को शामिल करने का पहला गंभीर प्रयास था- के बारे में कहा जाता है कि वह इसलिए प्रभावी नहीं हो सका क्योंकि उसे चौरीचौरा की घटना के बाद वापस ले लिया गया। चौरीचौरा में भीड़ ने एक पुलिस थाने में आग लगाकर कई पुलिसवालों को जिंदा जला दिया था। सांप्रदायिक ताकतें यह आरोप भी लगाती हैं कि गांधीजी का खिलाफत आन्दोलन का समर्थन करने का निर्णय सही नहीं था क्योंकि यह आन्दोलन तुर्की में उस्मानी साम्राज्य की पुनर्स्थापना की मांग को लेकर शुरू हुआ था। मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गांधीजी के इसी निर्णय के चलते भारत में बड़ी संख्या में मुसलमानों ने ब्रिटिश-विरोधी आन्दोलन में शिरकत की। इसी तरह, मोपला विद्रोह को भी मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं पर हमले के रूप में प्रचारित किया जाता है। सच यह है कि यह गरीब मुस्लिम किसानों का जन्मियों (ज़मींदारों, जिनमें से अधिकांश हिन्दू थे) का खिलाफ विद्रोह था। ब्रिटिश सरकार ज़मींदारों के हक में थी।
सन 1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन के बारे में कहा जा रहा है कि इससे गाँधी-इरविन समझौते के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ। सच यह है कि इस समझौते से भारतीय स्वाधीनता संग्राम को नयी ताक़त मिली।
यह भी बताया जाता है कि नमक सत्याग्रह से नमक पर कर समाप्त नहीं हुआ। मगर सच यह है कि इसके बाद लोगों को नमक बनाने की आज़ादी मिल गई। नमक बनाना गैर-कानूनी नहीं रहा।
जहाँ तक 1942 के 'करो या मरो' के नारे और भारत छोड़ो आन्दोलन का प्रश्न है, यह सही है कि इसके शुरू होते ही गांधीजी और कांग्रेस के अन्य प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और यह आन्दोलन हिंसक भी हो गया था। मगर इस आन्दोलन ने जनता में जबरदस्त जागरूकता उत्पन्न की। यह उस जनचेतना के प्रसार का चरम बिंदु था जिसकी शुरुआत 1920 के असहयोग आन्दोलन से हुई थी।
इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि भगतसिंह और उनके जैसे अन्य क्रांतिकारियों, सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज और नौसैनिकों के विद्रोह ने भी लोगों को जगाने का काम किया, उनमें आज़ादी की चाहत जगाई और भारतीयता के भाव को मजबूती दी। मगर गांधीजी का योगदान बहुत महत्वपूर्ण था। उसके कारण भारतीयों में भाईचारे का भाव जन्मा। सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने इसे भारत के एक राष्ट्र बनने की प्रक्रिया बताया था।
भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के दो लक्ष्य थे। एक, ब्रिटिश सरकार से मुक्ति पाना और दो, भारत को एक राष्ट्र का स्वरूप देना। गांधीजी को यह अहसास था कि स्वाधीनता पाने के लिए लोगों को एक करना सबसे ज़रूरी है। दक्षिणपंथी सांप्रदायिक ताकतें लोगों को जगाने और भारत को एक राष्ट्र बनाने में गांधीजी के योगदान को स्वीकार करें या न करें मगर यही प्रयास, यही योगदान गांधीजी को राष्ट्रपिता बनाता है।
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया। लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
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