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गाँधी-150: गाँधी जी ने क्यों आत्महत्या करने की सोची थी?

महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती पर हम उनके व्यक्तिगत जीवन से जुड़ी घटनाओं की सीरीज़ प्रकाशित कर रहे हैं। इसमें आज हम बात करते हैं उन चोरियों की जो गाँधीजी ने किशोरावस्था में की थीं, कभी बीड़ी ख़रीदने के लिए, कभी मँझले भाई का उधार चुकाने के लिए। साथ में हम यह भी जानेंगे कि इस धूम्रपान के चक्कर में कैसे वे आत्महत्या की हद तक पहुँच गए और आख़िर में किस तरह उन्होंने इन चोरियों का प्रायश्चित्त किया।
नीरेंद्र नागर

बात तब की है जब गाँधीजी 12-13 साल के या उससे भी छोटे थे। गाँधीजी के चाचा को सिगरेट पीने की आदत थी और उनको देखकर गाँधीजी और उनके एक रिश्तेदार, दोनों को धूम्रपान का शौक़ चर्राया। पैसे तो होते नहीं थे उनके पास सो वे चाचा द्वारा फेंके गए सिगरेट के टोटों को जलाकर पीने लगे। लेकिन एक तो ये टोटे हमेशा मिलते नहीं थे, दूसरे जब मिलते थे तो उन आख़िर के बचे हुए टुकड़ों से धुएँ के छल्ले नहीं निकलते थे जैसा कि वे निकालना चाहते थे।

सो उन दोनों ने नौकर के कुर्ते की जेब से पैसे निकालने शुरू कर दिए और उनसे बीड़ियाँ ख़रीदने लगे। कुछ हफ़्तों तक यह चोरी चलती रही। बीच में उन्होंने यह भी सुना कि कुछ पौधों की डालियों के भीतर छोटे-छोटे छेद होते हैं और उनको भी बीड़ी-सिगरेट की तरह पीया जा सकता है। कुछ दिन उन्होंने इस प्रकार के धूम्रपान का भी आनंद लिया।

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लेकिन इन सबमें उनको मज़ा नहीं आ रहा था। यह भी क्या ज़िंदगी थी कि बड़ों की अनुमति के बिना कुछ कर ही नहीं सकते। ऐसी जीने का भला क्या फ़ायदा। इस ग़ुलामी के जीवन से तो बेहतर है कि आदमी मर जाए।

यही सोचकर दोनों ने तय कर लिया कि वे आत्महत्या कर लेंगे। लेकिन कैसे करें? ज़हर कहाँ से मिलेगा? उन्होंने सुन रखा था कि धतूरे के बीज विषैले होते हैं। एक दिन वे इन बीजों की तलाश में जंगल में गए और उन्हें मिल भी गए। आत्महत्या के लिए उन्होंने शाम का वक़्त चुना। फिर वे एक मंदिर में गए, वहाँ मंदिर के दीए में घी डाला, भगवान के दर्शन किए और कोई सूनी जगह खोजने लगे।

लेकिन धीरे-धीरे उनकी हिम्मत जवाब देने लगी। उन्होंने सोचा, ‘अगर हम तुरंत नहीं मरे तो? और वैसे भी मरने से क्या लाभ? थोड़ी-बहुत आज़ादी नहीं भी है तो कौन-सी आफ़त है?’ लेकिन फिर भी दोनों ने दो या तीन बीज तो निगल ही डाले। ज़्यादा लेने का साहस नहीं हुआ। 

गाँधीजी और उनके एक रिश्तेदार, दोनों मौत से डर गए और ख़ुद को शांत करने तथा आत्महत्या के ख़्याल से मुक्ति पाने के लिए रामजी के मंदिर चले गए।

गाँधीजी अपनी आत्मकथा में इस घटना का वर्णन करते हुए लिखते हैं -

'मैंने महसूस किया कि आत्महत्या के बारे में सोचना-विचारना तो आसान है लेकिन उसपर अमल करना बहुत मुश्किल है। इसलिए उसके बाद जब कभी मैंने किसी को ख़ुदकुशी की धमकी देते हुए सुना तो उसका असर मुझपर बहुत कम हुआ या बिल्कुल ही नहीं हुआ।'

लेकिन इस आत्महत्या के निष्फल प्रयास का इतना असर ज़रूर हुआ कि उन्होंने सिगरेट के टोटे पीने या बीड़ियों के लिए नौकर की जेब से पैसे चुराने बंद कर दिए।

मगर एक बार कोई चोरी करने में कामयाब हो जाए और पकड़ा न जाए तो दूसरी बार चोरी करने की हिम्मत और बढ़ जाती है। अगली बार गाँधीजी ने चोरी तब की जब वह 15 साल के थे और इस बार सोने की चोरी थी। यह चोरी उन्होंने अपने लिए नहीं बल्कि अपने मँझले भाई के लिए की थी जो चोरी-छुपे माँस खाने का आदी हो चुका था और जिसपर 25 रुपये की उधारी हो गई थी। उस उधार को चुकाने के लिए मँझले भाई के सोने के बाज़ूबंद से कुछ हिस्सा निकाल लिया।

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जब गाँधीजी की नींद उड़ गई थी

उधार तो चुक गया लेकिन गाँधीजी की नींद उड़ गई। उन्होंने क़सम खाई कि अब आगे से चोरी नहीं करेंगे। लेकिन यह काफ़ी नहीं था - पिछली चोरी की ग्लानि तो बाक़ी ही थी। और उसके बाद गाँधीजी ने वह काम किया जो वही कर सकते थे और जिसकी वजह से वह बाद में महात्मा कहलाए। उन्होंने तय किया कि वह पिताजी को सबकुछ बता देंगे। लेकिन कैसे? पिताजी से बोलने की हिम्मत तो थी नहीं, इसलिए नहीं कि उनको उनके हाथ से पिटने का डर था क्योंकि गाँधीजी के पिता ने कभी किसी बच्चे को पीटा नहीं था। गाँधीजी को डर था तो उस पीड़ा का जो उनके पिता को यह जानकर होगी कि उनके बेटों ने चोरी की है।

लेकिन चाहे जितना दुख पहुँचे, यह जोखिम तो मोल लेना ही था क्योंकि जैसा कि गाँधीजी लिखते हैं - शुद्ध मन से अपनी ग़लती स्वीकार किए बिना पाप का यह मैल धुल नहीं सकता था।

गाँधीजी ने तय किया कि वह लिखकर अपना अपराध क़बूल करेंगे और पिता से क्षमा माँगेंगे। उन्होंने काग़ज़ के एक टुकड़े पर सारी कहानी लिखी, साथ ही अपने किए की सज़ा भी माँगी और यह अनुरोध भी किया कि मेरे अपराध के लिए आप ख़ुद को दंडित न करें।

पिता ने क्यों फाड़ दी चिट्ठी?

जब गाँधीजी ने यह पत्र पिता को दिया तो उनका सारा शरीर काँप रहा था। उन दिनों उनके पिता बीमार थे और चौकी पर लेटे रहते थे। गाँधीजी पत्र देने के बाद उस चौकी के सामने ही बैठ गए। उन्होंने पूरी चिट्ठी पढ़ी और उनके गालों से आँसुओं की धारा बह निकली जिससे गाँधीजी का वह पत्र भी भींग गया। एक पल के लिए उन्होंने चिंतन की मुद्रा में आँखें बंद कीं और फिर वह चिट्ठी के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। चिट्ठी पढ़ने के लिए उनको बैठना पड़ा था। वह फिर से लेट गए। उनके साथ-साथ गाँधीजी भी रो रहे थे। वह देख पा रहे थे कि पिताजी को उनकी चिट्ठी से कितनी पीड़ा हुई है।

मगर पिता का यह व्यवहार गाँधीजी के अनुमान से विपरीत था। वह सोच रहे थे कि पिताजी ग़ुस्सा होंगे, बुरा-भला कहेंगे और अपना सर पीटेंगे। लेकिन वह तो आश्चर्यजनक रूप से शांत थे। और इसका एक ही कारण था - उनकी निर्मल स्वीकारोक्ति।

गाँधीजी लिखते हैं -

जब किसी अपराध की स्वीकारोक्ति उस व्यक्ति के सामने की जाए जिसके प्रति यह अपराध हुआ है, और इस वादे के साथ की जाए कि भविष्य में यह अपराध कभी भी दोहराया नहीं जाएगा, तो उससे शुद्धतर प्रायश्चित्त और कोई हो नहीं सकता। मैं जानता हूँ कि मेरी स्वीकारोक्ति के बाद पिताजी मुझको लेकर बिल्कुल निश्चिंत हो गए और मेरे प्रति उनका स्नेह अपरिमित रूप से बढ़ गया।

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गाँधीजी आगे चलकर जब बैरिस्टर बने और अपनी वकालत शुरू की तो कई लोग कहते थे कि वकालत में तो झूठ-सच सब चलता है और यदि झूठ, चोरी और बेईमानी के प्रति उनका यही विरोधी रवैया रहा तो उनको तो मुवक्किल मिलने से रहे। मगर गाँधीजी अपने सिद्धांतों पर डटे रहे। वह अपने मुवक्किल से पहले ही कह देते थे कि यदि वह कोई झूठा मुक़दमा लड़ रहा है तो किसी और वकील के पास चला जाए।

सत्य और ईमानदारी पर चलते हुए गाँधीजी कैसे एक कामयाब वकील बने, और किस तरह उन्होंने अपने मुवक्किलों को भी अपने रंग में रंग डाला, इसके बारे में चर्चा बाद की कड़ी में। अगली कड़ी में हम जानेंगे कि कैसे गाँधीजी ने सबसे छुपाकर माँस खाना शुरू किया और क्यों।

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