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गाँधी-150: आख़िर पटेल ने क्या किया कि उन्हें गाँधी की डाँट सुननी पड़ी?

देश को अंग्रेजों की ग़ुलामी से मुक्ति दिलाने वाले,  सत्य और अहिंसा के संदेश को दुनिया तक पहुंचाने वाले महात्मा गाँधी की हम 150वीं जयंती मनाने जा रहे हैं। इस मौक़े पर ‘सत्य हिंदी’ महात्मा गाँधी के जीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर एक श्रृंखला प्रकाशित करने जा रहा है, जिसकी यह पहली कड़ी है। 
अमिताभ

हरि अनंत हरिकथा अनंता, कहहिं सुनहिं बहुविधि सब संता। तुलसीदास की इस चौपाई की तर्ज़ पर महात्मा गाँधी से जुड़े क़िस्सों-कहानियों का भी एक ऐसा लंबा सिलसिला है जिन्हें उनके प्रशंसक और आलोचक अपनी ज़रूरत और सहूलियत के हिसाब से अलग-अलग संदर्भों में इस्तेमाल करते रहते हैं। 

अपनी पैदाइश के 150 साल और मृत्यु के 71 साल बाद महात्मा गाँधी की प्रासंगिकता पर बात करते हुए उनका एक बड़ा करिश्मा इस बात में दिखता है कि उन्होंने अपने निजी आचरण के उदाहरण के ज़रिये व्यक्तिगत नैतिकता और त्याग को हिंदुस्तान में राजनीति की आवश्यक शर्त के तौर पर स्थापित कर दिया है। भले ही चुनावी राजनीति में अब तमाम दाँव-पेच और पैंतरे भी वोटरों को लुभाने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं लेकिन साफ़-सुथरी निजी छवि की अहमियत अब भी ख़त्म नहीं हुई है। 

राजनीति के आध्यात्मिक आधार को लगभग खारिज और बहिष्कृत कर चुकी हमारे नेताओं की जमात के लिए गोडसे के महिमा मंडन के बीच अपनी छवि की ख़ातिर सार्वजनिक तौर पर गाँधी जी से वैचारिक निकटता दिखाना ज़रूरी हो गया है, दिखावे के लिए ही सही।

गाँधी जी ने अपने साबरमती और सेवाग्राम आश्रम को मानव श्रम की एक प्रयोगशाला के तौर पर विकसित किया था जहां लोग साथ रहते थे, पढ़ते-लिखते थे, खाना बनाते थे, साग-सब्ज़ी उगाते थे, राजनीतिक आंदोलन के लिए सत्याग्रह का प्रशिक्षण लेते थे, चरखा चलाते थे और सारे काम ख़ुद करते थे। गाँधी जी ने इन सारे मोर्चों पर सबसे आगे बढ़कर पूरे जोश और लगन के साथ हर काम पहले ख़ुद किया फिर औरों को भी सिखाया। इस तरह से उन्होंने कई ऐसे लोग तैयार किए जिनमें लोगों ने गाँधी जी के रहते हुए और उनके बाद उनकी झलक देखी। 

आश्रम के कामों में गाँधी जी बहुत सख़्त अनुशासन और नियम का पालन करते थे और किसी को भी नहीं बख़्शते थे- ख़ुद को और कस्तूरबा को भी नहीं। इससे आश्रम में रहने वालों और आने-जाने वालों पर काफ़ी असर पड़ता था। 

गाँधी जी सख़्त प्रशिक्षक ज़रूर थे लेकिन उनके स्वभाव में हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद और मज़ाक का भी बढ़िया मिश्रण था जिसकी वजह से आश्रम के कामों में सख़्त अनुशासन और साधनों की कमी के बीच दिलचस्प किस्से बन जाया करते थे।
ऐसे तमाम किस्से आज भी कभी गुदगुदाते हैं , कभी भावुक कर जाते हैं लेकिन हमेशा कुछ न कुछ सिखा जाते हैं। 
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सेवाग्राम आश्रम में गाँधी जी को एक दिन लोगों में आपसी प्रेम बढ़ाने और जात-पात, छुआछूत, ऊंच-नीच, स्त्री-पुरुष वाला भेद ख़त्म करने का एक आइडिया सूझा। आश्रम में नियम था कि सब खाना खाने के बाद अपने-अपने बर्तन ख़ुद मांज कर रख दिया करते थे‌। गाँधी जी ने इस व्यवस्था में एक अहम बदलाव का फ़ैसला किया। उन्होंने तय किया कि रसोईघर में खाना खानेवालों के जूठे बर्तन रोज़ाना बारी-बारी से दो या तीन लोग मांजा करेंगे। उनका कहना था कि इससे आपसी प्यार और भाईचारा बढ़ेगा और लोगों में एक -दूसरे के बर्तन मांजने को लेकर चिड़चिड़ाहट और हिचकिचाहट खत्म हो जाएगी। इसके अलावा सामूहिकता बढ़ेगी और समय बचेगा। 

हरियाणा-राजस्थान के सरहदी इलाके से आए बलवंत सिंह आश्रम में  साग-सब्ज़ियों की खेती-किसानी और रसोईघर का कामकाज देखते थे। उन्हें गाँधी जी के इस फैसले से ख़ुशी नहीं हुई। उनका ख़्याल था कि इससे आश्रम में अव्यवस्था फैल सकती है। 

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दूरंदेश गाँधी जी अपने सहयोगी बलवंत सिंह की हिचकिचाहट भांप गए। उन्होंने कहा कि मेरा इरादा अव्यवस्था से व्यवस्था पैदा करना है। गाँधी जी ने कहा कि लोगों की हिचक तोड़ने के लिए  सबसे पहले वह और कस्तूरबा ही बर्तन मांजने के काम की शुरुआत करेंगे।  

इतना कहकर गाँधी जी ने बा को लेकर फटाफट बर्तन साफ करने वाली जगह मोर्चा संभाल लिया। खाना खाकर रसोईघर से निकलने वालों से गाँधी जी ने कहा कि वे अपने जूठे बर्तन रख दें और हाथ धोकर चले जायें। अब लोगों की सिट्टी-पिट्टी गुम। बापू और बा हमारे जूठे बर्तन मांजेंगे! यह सोच कर घबराहट, हिचकिचाहट और शर्मिंदगी का मिलाजुला भाव मन में आया लेकिन सबको मालूम था कि गाँधी जी अपने इरादे से टस से मस नहीं होने वाले। तो अपने जूठे बर्तन छोड़कर चले गए।  

अब बापू और बा तो मन लगाकर बर्तन मांजने लगे और उधर बलवंत सिंह हाथ मलते हुए मन मसोस कर खड़े-खड़े यह सब देखते रहे। उन्हें दोनों का बर्तन मांजना बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन वह यह भी बखूबी समझ रहे थे कि बापू और बा इस काम के ज़रिये नेताओं और कार्यकर्ताओं को जो संदेश देना चाह रहे हैं उसकी बहुत गहरी राजनीतिक-सामाजिक अहमियत है।

गाँधी जी बहुत मज़ाक पसंद आदमी थे और लीडर होने के नाते कार्यकर्ताओं के मनोविज्ञान की भी गहरी समझ रखते थे। बलवंत सिंह का लटका हुआ चेहरा देखकर गाँधी जी ने उनका मन हल्का करने के लिए बा से बर्तन चमकाने का मुक़ाबला शुरू कर दिया। अब नज़ारा यह था कि गाँधीजी बर्तन मलते, साफ़ करते और बलवंत सिंह से पूछते-  कैसी सफ़ाई हुई है? बेचारे बलवंत सिंह क्या कहते! 

गाँधी जी ने बलवंत सिंह को समझाया कि सामाजिक कार्य में सामूहिक रसोई और उसके काम किस तरह लोगों में एक घर-परिवार वाली भावना पैदा कर सकते हैं और उससे किस तरह इन्सान अपनी और समाज की आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है।

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एक क्षण के लिए आंख बंद करके कल्पना कीजिए कैसा दृश्य रहा होगा। 70 पार के बापू और बा आंगन में जूना और राख लेकर बर्तन मल रहे हैं और गाँधी जी काम करते हुए माहौल को हल्का बनाने के लिए शरारती मुस्कुराहट के साथ बा से कंपटीशन का रिज़ल्ट भी पूछते जा रहे हैं। और इस सब में 'मैं कितना महान हूं' वाला भाव कहीं नहीं है। 

आज के हमारे नेता टीवी कैमरों के आगे अपने बचपन की कहानियां सुना-सुनाकर भावुकता उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं जो उन्हें और हास्यास्पद ही बनाता है।
गाँधी जी की तेज़ नज़र से कुछ छुपता नहीं था। ग़लती फट से पकड़ लेते थे। और ग़लती करने वाला कोई भी हो, छोटे-बड़े का फ़र्क भुलाकर उसकी क्लास ले लेते थे। 

यरवदा जेल में गाँधी जी के साथ सरदार पटेल भी थे। गाँधी जी रोज सुबह नौ बजे सोडा और नींबू लेते थे। नींबू-सोडा का शर्बत बनाने का काम सरदार पटेल के जिम्मे था। एक दिन सुबह सरदार पटेल गाँधी जी के लिए नींबू-सोडा बना रहे थे। गाँधी जी पास बैठे शांति से देख रहे थे। अचानक गाँधी जी ने सरदार से कहा - आपको नहीं लगता कि आपको नर्सिंग का एक कोर्स करने की ज़रूरत है? 

सरदार पटेल इस टिप्पणी से अचकचा गए और प्रश्नवाचक निगाहों से गाँधी जी की तरफ़ देखा। गाँधी जी अपनी रौ में बोले - देखिये, आपने चम्मच ऊपर से पकड़ने के बजाये ठेठ उसके मुंह के पास से पकड़ी है, यह चम्मच गिलास में जायेगी। उस जगह उसको हाथ से नहीं छूना चाहिए। बापू इतना कह कर रुके नहीं। सरदार पटेल के लिए झटके की दूसरी किस्त जारी करते हुए बोले- जिस रूमाल से आप मुंह पोंछते हैं, उसी से आपने यह चम्मच साफ़ की है। यह भी ठीक नहीं है, ऐसा नहीं होना चाहिए। कोई नर्स ऑपरेशन के कमरे में किसी भी चीज को हाथ नहीं लगा सकती, सब चीजों को वह चिमटी से ही उठाती है। हाथ से उठा ले तो बर्खास्त कर दी जाएगी। हमें भी ऐसी ही सफ़ाई रखनी चाहिए। 

गाँधी जी एक क्षण के लिए रुके और अपनी बात आगे बढ़ाई और बोले कि पीने के बाद गिलास यूं ही औंधे नहीं रख देने चाहिए। हमें शायद उम्मीद रहती है कि गिलास धुल जाते होंगे‌। लौह पुरुष सिर झुकाए गाँधी जी की झिड़कियां सुनते रहे। 

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