मिट्टी की सोंधी खुशबू से सराबोर उमगाती सावन की फुहारों में लिपटी आकाशीय बिजली के वज्रपात से पिछले दिनों देश के सैकड़ों किसानों की मौत में प्रकृति के बढ़ते गुस्से की चेतावनी छिपी है। मानसून के पहले ही दौर में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में 315 लोग बारिश और आकाशीय बिजली के कारण जान गंवा चुके हैं।
असम के पहाड़ी-मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ की विभीषिका भी लोगों की जान लील रही है। मई के दूसरे पखवाड़े से जून अंत तक बिजली गिरने से मरने वालों में अधिकतर धान रोप रहे किसान हैं।
आसमान तरेड़ती बिजली से पल भर में झुलस कर अपनों को दम तोड़ते देखना आदिवासियों, पहाड़ियों और वनवासियों के लिए नई बात नहीं है मगर गंगा के मैदानी इलाकों में किसानों की मौत पर मौसम वैज्ञानिक चिंतित हैं। वे इसे जलवायु परिवर्तन की निष्ठुर बानगी मान रहे हैं।
गर्म हो रही धरती की सतह
मौसम वैज्ञानिकों की राय में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में मानसून की शुरुआत में ही बेतहाशा बारिश और बड़े पैमाने पर बिजली गिरने जैसी अप्रत्याशित स्थिति धरती की सतह असामान्य रूप से गर्म हो जाने के कारण बनी है। इससे धरती पर बढ़ती गर्मी से मानव जाति के अस्तित्व पर ख़तरे वाली जलवायु परिवर्तन पर पहली सरकारी रिपोर्ट में जताई आशंकाओं की पुष्टि हो रही है।
यह रिपोर्ट पृथ्वी विज्ञान विभाग द्वारा भारत में क्षेत्रीय जलवायु परिवर्तन शीर्षक से जून में ही जारी की गई है।
चिंताजनक यह है कि बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में 26 जून को एक ही दिन में 125 से अधिक लोग बिजली गिरने से मारे गए। मैदानी क्षेत्रों में आकाशीय बिजली से अप्रत्याशित मौतों की घटनाएं बढ़ रही हैं।
बिजली गिरने की आशंका वाले स्थानों का पूर्वानुमान अधिकतम तीन घंटे पहले लगाया जा सकता है। इससे पानी भरे खेतों में जुटे किसानों को वहां से हटाकर सुरक्षित जगह ले जाना संभव है मगर अमल तंत्र का स्थापित न होना दुखद है।
किसान और आदिवासी बनते हैं शिकार
बारिश में आकाशीय बिजली गिरने से सबसे अधिक मौत जहां महाराष्ट्र के मराठवाड़ा अंचल में दर्ज हैं, वहीं मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड के किसान और आदिवासी भी बड़ी संख्या में इसके शिकार होते हैं। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार आकाशीय बिजली से बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में डेढ़ महीने में इतनी सारी मौतों की वजह मानसून की नम हवा के ऊपर एवं नीचे अपेक्षाकृत रूखी गर्म हवा की परत होना है जिससे बादल बहुत घने, काले और ऊंचे बनते हैं।
बादलों में घर्षण से बिजली बनती है जो उन्हें तरेड़ कर अचानक किसानों पर आ गिरती है। खेतों में भरे पानी में खड़े किसान अनजाने में ही आकाशीय बिजली के आदर्श सुचालक बन जाते हैं। बहुधा किसान या वनवासी बारिश से बचने को पेड़ों के नीचे भी आसरा ले लेते हैं और सुचालक बने भीगे पेड़ों पर गिरने वाली बिजली पल भर में उन्हें लील जाती है।
बड़ी संख्या में होती हैं मौत
एक मोटे अनुमान के अनुसार, आकाशीय बिजली से पिछले साल मध्य प्रदेश में 313, महाराष्ट्र में 281 और ओडिशा में 255 लोग मारे गए थे। आकाशीय बिजली से देश भर में सालाना मरने वालों की औसत संख्या 3000 है मगर सटीक आंकड़ों के अभाव में इससे बहुत अधिक मौत होने से इंकार नहीं किया जा सकता। बिजली गिरने की अधिकतर घटना मार्च से जून के बीच गर्मी के दौरान होती हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार, मानसून के दौरान चूंकि बादलों में नमी अधिक होती है इसलिए उनमें रूखी हवा से घर्षण पर बिजली बनने और धरती पर गिरने की घटना अधिक होती हैं।
जलवायु परिवर्तन का भारत पर प्रभाव
ऐसी घटनाओं से साफ है कि जलवायु परिवर्तन का भारत पर भी विनाशकारी प्रभाव सामने आने लगा है। उसी के फलस्वरूप देश के किसी अंचल में अप्रत्याशित रूप में अधिक बारिश होने, बादल फटने, बवंडर आने, बिजली गिरने, समुद्री तूफान या बाढ़ आने की विनाशकारी घटनाएं बढ़ रही हैं। इनसे जानमाल के बड़े पैमाने पर नुक़सान के साथ ही बहुमूल्य सार्वजनिक संसाधनों पर आपदा बचाव एवं राहत का बोझ भी बढ़ रहा है।पृथ्वी विज्ञान विभाग की भारतीय क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन के आकलन वाली रिपोर्ट में भी ग्रीनहाउस गैसों से धरती का तापमान तेजी से बढ़ने पर ऐसी ही त्रासदियों की डरावनी तस्वीर सामने आई है।
रिपोर्ट के अनुसार, भारत के भू-भाग का औसत तापमान पिछले 119 साल में 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ने से जलवायु परिवर्तन का नुकसान परिलक्षित होने लगा है। हम ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन और आबादी पर अंकुश लगा सके तो 21वीं सदी के अंत तक देश के भीतरी तापमान में और 2.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी।
यदि आत्मनिर्भरता के नाम पर अंधाधुंध औद्योगीकरण करके ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन निरंकुश बढ़ाया गया तो तापमान 4.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ेगा जो प्राकृतिक आपदाओं में करोड़ों लोगों और बेशुमार संपत्ति के नाश का कारण बनेगा।
घट रही मानसूनी वर्षा
प्रदूषणकारी ऐरोसोल से बनने वाले ब्राउन क्लाउड यानी भूरे बादलों की वजह से 1951-2015 के बीच उत्तर भारत में मानसूनी वर्षा की मात्रा 6% तक घट चुकी है। भारत की एक अरब, 30 करोड़ की आबादी का पेट मानसूनी वर्षा से उपजे अनाज से ही भरता है। देश के करीब 70 फीसदी हिस्से में वर्षा आधारित बारानी खेती होती है अर्थात बारिश के अकाल से सूखा पड़ने पर अधिकतर आबादी भूखी मर जाएगी।
तेजी से पिघलेंगे ग्लेशियर
रिपोर्ट का सबसे चिंताजनक निष्कर्ष यह है कि 1976-2005 की तुलना में अप्रैल-जून हीटवेव यानी तेज गर्मी की विभीषिका 2099 तक चार गुना बढ़ सकती है। इससे हिमालयी क्षेत्रों में हिमनद यानी ग्लेशियर अत्यधिक तेजी से पिघलने और मुंबई के आसपास समुद्री जलस्तर प्रति दशक 3 सेमी से भी ज्यादा बढ़ने से पीने के पानी की किल्लत और निचले तटीय इलाकों के डूबने की आशंका है।
बंगाल के तट पर समुद्री जलस्तर 5 सेमी प्रति दशक की दर से बढ़ रहा है जिससे सुंदरबन जैसे तटीय जंगलों के अनेक गांव पानी में डूब गए हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 1951-2015 के दौरान बंगाल की खाड़ी और अरब सागर सहित हिंद महासागर में सतह का तापमान 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है जो वैश्विक औसत से अधिक है।
गर्म दिनों और रातों की आवृत्ति क्रमशः 55% और 70% तक बढ़ने की आशंका है। इससे जहां घरों को ठंडा करने के लिए बिजली की खपत बढ़ेगी वहीं बिजली का उत्पादन बढ़ाने के लिए ताप बिजली घरों में अधिक ईंधन जलने से वातावरण में प्रदूषण तथा गर्मी और बढ़ेगी।
तापमान बढ़ने से भारत में हर साल 15 लाख मौत होने तथा पहाड़ी सैरगाहों में भी गर्मी छा जाने की आशंका पहले से ही जताई जा रही है।
देश में 35 डिग्री से ज्यादा तापमान वाले दिनों में आठ गुना इजाफा होने, राजधानी दिल्ली में बेहद गर्म दिनों की संख्या 22 गुना बढ़ने और गर्मी से सालाना 23 हजार लोगों के बेमौत मारे जाने के आसार हैं।
मौजूदा परिवेश को देखते हुए देश का औसत सालाना तापमान 24 डिग्री सेंटीग्रेड से बढ़ कर सन 2100 तक 28 डिग्री सेंटीग्रेड हो जाने की आशंका है। 35 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक तापमान वाले बेहद गर्म दिनों की औसत संख्या 5.1 (2010) से आठ गुना बढ़कर 42.8 हो सकती है। ओडिशा के सबसे अधिक गर्मी वाला राज्य हो जाने की आशंका है।
गर्मी से देश में सालाना 15 लाख से अधिक मौत हो सकती हैं। जलवायु परिवर्तन से मौसम बदलने का मनुष्य एवं अर्थव्यवस्था पर बेहद बुरा प्रभाव पड़ेगा क्योंकि भुखमरी, बीमारी और प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के खर्च से बहुमूल्य सार्वजनिक संसाधनों पर अनावश्यक बोझ पड़ेगा और विकास थमेगा।
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