प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक मानवीय सभ्यता के इतिहास में आम तौर पर चार तरह के भंडार की चर्चा होती रही है। एक धन का भंडार, दूसरा अन्न का भंडार, तीसरा खनिज भंडार जिसे हम प्राकृतिक संपदा भी कहते हैं और चौथा जल भंडार। पहले दोनों तरह के भंडार यानी धन एवं अन्न का हम सृजन या उत्पादन करते हैं पर खनिज एवं जल भंडार हमें क़ुदरती तौर पर मिलते हैं। इसे हमें सहेज कर रखने और बड़े ही अनुशासित रूप से ख़र्च करने की आवश्यकता है क्योंकि यह दोनों ही उपभोग से घटते-घटते समाप्त हो जायेंगे और इनका सृजन या उत्पादन मानवीय क्षमता से परे है।
अख़बारों में समाचार है कि केंद्र सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में गंगा के संरक्षण एवं प्रदूषण से रोक-थाम के लिए एक बिल पेश करने जा रही है जिसमें बहुत बड़ी धन राशि जुर्माने के तौर पर लगाने तथा गै़र-ज़मानती वारंट तक का प्रावधान किया जाएगा।
सरकार के द्वारा गंगा के संरक्षण के लिए उठाए गये किसी भी प्रयास की सराहना तो की जा सकती है पर ज्यों ही कोई नया क़ानून बनाने की बात सामने आती है तो फिर कई सवाल सामने खड़े हो जाते हैं। केंद्र एवं राज्य सरकारों तथा केंद्रीय एवं राज्य स्तरीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास वर्तमान में ऐसे कई क़ानून मौजूद हैं जिनमें जुर्माना और दंड देने का प्रावधान है। पर क्या उनका पालन सख़्ती से हो पाया?
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास पर्यावरण संरक्षण क़ानून 1968 के एक्ट 29 के सेक्शन 5 के तहत यह अधिकार है कि वह प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाई को फ़ौरी तौर पर बंद करने का आदेश दे सकती है। तो सवाल यह है कि उसने अपने इस अधिकार का प्रयोग कितनी बार और किस तरह से किया है? और वह कितना कारगर साबित हुआ है?
हमें याद होना चाहिए कि यूपीए के पहले शासन काल के दौरान गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी घोषित किया गया था। तो फिर सोचने वाली बात यह है कि अगर राष्ट्रीय ध्वज या राष्ट्रीय गान का अपमान करने वालों को जब कड़ी सज़ा दी जाती है तो हमारी राष्ट्रीय नदी को प्रदूषित करने वालों को कैसे बख़्शा जा रहा है। समय-समय पर देश के उच्च न्यायालयों तथा नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा गंगा को अविरल एवं निर्मल बनाए रखने के लिए कई आदेश जारी किए गए हैं पर ज़मीनी हक़ीक़त क्या है यह हम सभी जानते हैं।
भारतीय सरकार और समाज को हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि गंगा न केवल एक जीवन दायिनी नदी है बल्कि यह हमारी धार्मिक आस्था की भी प्रतीक है। तभी तो जब उत्तराखंड के लोहारीनागपाला में एनटीपीसी की एक जल विद्युत परियोजना के लिए गंगा नदी को 19 किलोमीटर लंबी सुरंग से होकर गुज़ारा जाने वाला था तब इसका भरपूर विरोध हुआ। स्वर्गीय स्वामी सानंद उर्फ़ प्रोफ़ेसर जीडी अग्रवाल गंगा की अविरलता को बचाने के लिए अन्न-जल त्याग कर आमरण अनशन पर बैठ गये। आख़िरकार 2010 में तत्कालीन सरकार ने धार्मिक भावनाओं एवं गंगा के पर्यावरणीय प्रवाह को ध्यान में रखते हुए इस परियोजना को बंद करने का फ़ैसला किया। स्वर्गीय अग्रवाल के इस संकल्प और त्याग की समाज आज भी सराहना करता है और उन्हें गंगा पुत्र के नाम से याद करता है।
आज जब केंद्र सरकार संसद के आगामी सत्र में गंगा के लिए एक महत्वपूर्ण बिल लाने जा रही है तो हम उम्मीद करते हैं कि वह इन कुछ अति आवश्यक बातों का ध्यान अवश्य रखेगी -
1. चूँकि गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा प्राप्त है, अत: इसके लिए बनाये गये क़ानूनों के पालन करवाने का अधिकार केंद्र सरकार के अन्तर्गत होना चाहिए क्योंकि पिछले अनुभवों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि नियमों के सख़्ती से लागू करने में राज्य सरकारें या तो विफल रहीं या फिर दो राज्यों के आपसी विवादों के चलते बहुत सारे क़ानून प्रभावी नहीं हो सके।
2. मुख्य रूप से गंगा की तीन मूलभूत समस्याएँ हैं, पहली- प्रदूषण, दूसरी- अतिक्रमण, तीसरी- खनन। इन सभी पर अलग-अलग, स्पष्ट एवं सख़्त क़ानून बनाने तथा दंड का प्रावधान करने की ज़रूरत है।
3. गंगा तभी तक जीवित और जीवन-दायिनी बनी रहेगी, जब तक उसकी सहायक नदियों को भी संरक्षित रखा जाएगा। अतः गंगा की सहायक नदियों के साथ छेड़छाड़ पर भी कड़े प्रतिबंध लगाने होंगे।
गंगा की अविरलता एवं निर्मलता बनाये रखने में किसी तरह का आर्थिक भ्रष्टाचार न हो इस पर भी लगाम लगाने की ज़रूरत है। साथ ही क़ानूनों के क्रियान्वयन से संबंधित सभी विभागों को भी जवाबदेह बनाने की आवश्यकता है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि गंगा को प्रदूषित करना राष्ट्र एवं आस्था दोनों का अपमान है।
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