2019 में संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने के पहले ही दिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के विद्यार्थियों पर लाठीचार्ज होना कोई साधारण घटना नहीं है। विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करने वाले देश भारत में उसी दिन विद्यार्थियों की आवाज को कुचला गया, जिस दिन लोकतंत्र के प्रहरी लोकसभा के वातानुकूलित कमरों में देश की आम अवाम के दुखदर्द पर चर्चा की शुरुआत करने वाले थे और जेएनयू के विद्यार्थी बढ़ी फीस का दुखड़ा लेकर संसद भवन तक पहुंचना चाहते थे।
यह लाठीचार्ज साधारण नहीं था। जेएनयू आवासीय विश्वविद्यालय है, जहां करीब साढ़े पांच हजार विद्यार्थी छात्रावासों में रहते हैं। इसके अलावा करीब ढाई हजार विद्यार्थी कैंपस के बाहर अपने घरों या किराये के मकानों में रहकर पढ़ते हैं। बढ़ी हुई फीस के विरोध में संसद सत्र शुरू होने के दिन विद्यार्थियों ने संसद के सामने प्रदर्शन की योजना बनाई थी। सोमवार सुबह 11 बजे विद्यार्थियों के जत्थे को निकलना था और संसद पहुंचना था।
दिल्ली की सुरक्षा व्यवस्था केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह देखते हैं। यानी दिल्ली पुलिस से लेकर सीआरपीएफ़ शाह के अधीन काम करती है। पुलिस ने रात भर तैयारियां कीं। जेएनयू के चारों तरफ करीब 4,000 सीआरपीएफ़ और दिल्ली पुलिस के जवान लगा दिए गए। सड़कों पर 500 मीटर में 5 लेयर की बैरिकेडिंग की गई। यानी अगर विद्यार्थी एक बैरिकेडिंग तोड़ते हैं तो दूसरी और दूसरी तोड़ते हैं तो आगे की बैरिकेडिंग पर उन्हें पकड़ लिया जाए।
यह तो सिर्फ तकनीकी इंतजाम था। पहले तो जेएनयू के सभी गेट बंद कर दिए गए। जब विद्यार्थियों ने नारेबाजी करनी शुरू की और करीब साढ़े चार हजार विद्यार्थी गेट पर जमा हो गए तो विश्वविद्यालय का गेट खोल दिया गया। नेतृत्व कर रहे विद्यार्थी सबसे आगे थे। सबसे पहले सीआरपीएफ़ ने विद्यार्थियों को पकड़ना शुरू किया। एक-एक विद्यार्थी को 4 जवान हाथ-पांव पकड़कर टांग लेते और उन्हें अगले बैरिकेडिंग पर खड़े दिल्ली पुलिस के जवानों के हवाले कर देते।
अगली बैरिकेडिंग पर सादी वर्दी में पुलिसवाले बाउंसर की तरह तैनात थे। हिरासत में लिए गए विद्यार्थियों को गिरफ्तारी वाहन तक ले जाते समय सादी वर्दी में तैनात बाउंसर साथ-साथ चलते थे। जैसे ही उन्हें लगता था कि गिरफ्तार विद्यार्थी कैमरों से ओझल हो गए हैं तो वाहनों के बीच सादे कपड़ों में खड़े बाउंसर उन्हें लात-घूसों से पीटने लगते थे। विद्यार्थी कहीं भी किसी तरह भाग नहीं सकते थे। उनकी पिटाई के बाद उन्हें वाहनों में बिठाकर थानों में ले जाया जा रहा था।
सादी वर्दी में तैनात बाउंसर लड़कियों को गिरफ्तार करने वाली महिला सिपाहियों को भी निर्देश दे रहे थे। इससे सिर्फ यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सादी वर्दी वाले निजी बाउंसर नहीं, पुलिस के अधिकारी ही रहे होंगे, जो विद्यार्थियों को किसी भी तरीके से सबक सिखा देने की कवायद में लगे थे। यह भी एक अनुमान ही हो सकता है कि ऐसा वे अपनी इच्छा से नहीं बल्कि अपने राजनीतिक नेतृत्व के निर्देशों पर कर रहे थे।
जेएनयू के पास करीब 250 विद्यार्थियों की गिरफ्तारी हुई। यह सब करीब दो घंटे यानी 11 बजे से एक बजे तक चला। विद्यार्थी बैरिकेडिंग पर नारे लगाते रहे, पुलिस वाले गिरफ्तार करते रहे और उन्हें पीटकर गाड़ियों में बिठाते रहे।
ध्यान रहे कि इन तमाम लाठियों, पिटाइयों और वाटर कैनन की बौछारों के बीच न तो किसी विद्यार्थी ने किसी पुलिसकर्मी पर हाथ उठाया और न ही उन पुलिसकर्मियों को गालियां दीं। न कोई बस जलाई गई। न किसी भवन में आग लगाई गई। न जेएनयू के आसपास की दुकानों में आग लगाई गई। यह याद दिलाना इसलिए ज़रूरी है कि विश्वविद्यालयों के आंदोलन में ऐसा सामान्यतः होता है और पुलिस की बर्बरता को इसके पीछे यह कहकर छिपाया जाता है कि मजबूरन पुसिल को लाठियां चलानी पड़ीं।
इसके बाद बड़ी संख्या में विद्यार्थी मुनिरका की तमाम गलियों में घुस गए। ग्रुपों में जा रहे विद्यार्थियों को पुलिस वाले रोकते तो वे तितर-बितर हो जाते थे। शाम होते-होते बड़ी संख्या में विद्यार्थी भीकाजी कामा प्लेस होते हुए पैदल चलकर जोरबाग तक पहुंच गए। जोरबाग में विद्यार्थी जमा होने लगे कि वहां से संसद की तरफ बढ़ेंगे। विद्यार्थियों के साथ कुछ अध्यापक भी थे। भीड़ पूरी तरह नियंत्रित थी।
जोरबाग में एकबार फिर पुलिस और सीआरपीएफ़ ने विद्यार्थियों को घेर लिया। करीब 8 बजे स्ट्रीट लाइट्स बंद कर दी गईं और फिर पुलिस विद्यार्थियों पर टूट पड़ी। संसद जाने के इच्छुक विद्यार्थियों को बुरी तरह पीटा गया। इसमें से करीब 50 विद्यार्थी तो सिर्फ सफदरजंग अस्पताल में भर्ती कराए गए हैं।
इसी दौरान जेएनयू में पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी शशि भूषण को भी पुलिस का शिकार होना पड़ा है। शशि भूषण को दिखाई नहीं देता। उसे यह भी पता नहीं था कि कौन सा जवान उसे किधर से पीट रहा है। शशि भूषण सड़क पर गिर गया। प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि सादे कपड़े में तैनात एक व्यक्ति उसके सीने पर चढ़ गया और उसे कुचलने लगा। शशि भूषण इस समय एम्स के ट्रॉमा सेंटर में जिंदगी और मौत से जूझ रहा है।
2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने से पहले देश में बहुत कम लोग जानते थे कि जेएनयू क्या है और वहां क्या होता है। अभी भी तमाम लोगों को नहीं पता है कि वहां रूसी, चीनी, फ्रेंच आदि भाषाओं को छोड़कर किसी विषय की ग्रेजुएशन की पढ़ाई नहीं होती है। ग्रेजुएशन करने के बाद विद्यार्थी पोस्ट ग्रेजुएशन, एमफिल और पीएचडी करने जेएनयू में आते हैं।
अगर कोई विद्यार्थी धुरंधर विद्वान होता है और वह एक के बाद एक प्रवेश परीक्षा पास करता जाता है तो उसे पीएचडी करने का अवसर मिल जाता है। इस पूरी पढ़ाई में न्यूनतम 9 साल यानी 2 साल एमए, 2 साल एमफिल और फिर 5 साल पीएचडी में लगते हैं।
यह कहने की बात नहीं है कि जेएनयू देश का एकमात्र विश्वविद्यालय है, जो अपने शोध कार्यों के लिए दुनिया में जाना जाता है। यह कहावत भी बन गई है कि जेएनयू वाला आईएएस बनता है, नेता बनता है या फिर विदेश के किसी विश्वविद्यालय में ज्ञान देता है।
यह भी अब किसी से नहीं छिपा है कि देश के ज्यादातर नीति-नियंता और प्रमुख पदों पर बैठे नौकरशाह जेएनयू में पढ़े हुए हैं और मौजूदा सरकार में विदेश मंत्री एस. जयशंकर और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण जेएनयू के विद्यार्थी रहे हैं।
हाल के वर्षों में जेएनयू में एक अहम बदलाव हुआ है। अर्जुन सिंह जब मानव संसाधन विकास मंत्री थे तो उन्होंने केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान कर ग़रीबों, किसानों के बच्चों के लिए जेएनयू का दरवाजा खोल दिया था। अनुसूचित जाति व जनजाति का आरक्षण पहले से ही था। साथ ही यह भी माना जाता है कि जेएनयू में फेयर एडमिशन होता है। इसकी वजह से विश्वविद्यालय में 49.5 प्रतिशत आरक्षण के बाद करीब 60 प्रतिशत से ज्यादा विद्यार्थी वंचित तबके के पहुंचने लगे हैं। ये ऐसे विद्यार्थी होते हैं, जिनके मां-बाप ने 15-20 साल पहले सपने में भी नहीं सोचा था कि वे अपने बच्चों को 9 साल तक जेएनयू में शोध करा सकते हैं। इनमें तमाम ऐसे विद्यार्थी होते हैं, जिनकी यह क्षमता नहीं होती कि हॉस्टल में मौजूदा 2600 रुपये महीने रहने व खाने का खर्च दे सकें। बेहतर जिंदगी का सपना देख रहे युवा और उनके परिवार हर महीने यह बोझ किसी तरह उठा रहे थे लेकिन अब यह फीस बढ़ा दी गई है।
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