देश का अन्नदाता इन दिनों अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए शीत ऋतु में भी अपना घर-बार छोड़ कर सड़कों पर उतर आया है। केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि क़ानूनों को सही व किसान हितैषी ठहराते हुए बार-बार एक ही बात दोहराई जा रही है कि ये क़ानून किसानों के हित में हैं और आंदोलनकारी किसानों को कांग्रेस पार्टी द्वारा भड़काया जा रहा है।
कांग्रेस-बीजेपी की इसी रस्साकशी का परिणाम पिछले दिनों हरियाणा-पंजाब की सीमा पर जारी गतिरोध के दौरान दिखा। हरियाणा सीमा पर पुलिस बल किसानों को राज्य की सीमा में प्रवेश करने से रोकने पर कुछ इस तरह आमादा था, गोया वे देश के अन्नदाता नहीं बल्कि कोई विदेशी घुसपैठियों के झुंड को रोक रहे हों। आँसू गैस के गोले, सर्दियों में पानी की तेज़ बौछार, धारदार कंटीले तार, लोहे के भारी बैरिकेड, लाठियाँ आदि सारी शक्तियां झोंक दी गयीं।
संभवतः हरियाणा व केंद्र की सरकार इस ग़लतफ़हमी में थीं कि वे किसानों को पुलिस बल के ज़ोर पर दिल्ली जाने से रोक लेंगी। परन्तु दो ही दिनों में किसानों ने अपनी ताक़त व किसान एकता का एहसास करा दिया।
किसान आंदोलन ने तथा विशेषकर इन्हें दिल्ली पहुँचने से बल पूर्वक रोकने के प्रयासों ने एक सवाल तो ज़रूर खड़ा कर दिया है कि सरकार को किसानों के दिल्ली पहुँचने से आख़िर क्या तकलीफ़ थी।
ज़ाहिर है सरकार के पास इसकी वजह बताने का सबसे बड़ा कारण यही था और है कि कोरोना की दूसरी लहर के बढ़ते ख़तरों के मद्देनज़र किसानों को दिल्ली में प्रवेश करने से रोका जा रहा था। कई जगहों पर पुलिस बैरियर्स पर कोरोना से संबंधित इसी चेतावनी के बोर्ड भी लगाए गए थे।
मध्य प्रदेश व बिहार में चंद दिनों पहले हुए चुनावों में जिस तरह कोरोना के इन्हीं 'फ़िक्रमंदों' द्वारा एक दो नहीं बल्कि हज़ारों जगहों पर महामारी क़ानून की धज्जियाँ उड़ाईं, उसे देखते हुए इन्हें 'कोरोना प्रवचन' देने का कोई नैतिक अधिकार तो है ही नहीं?
दूसरा तर्क सत्ताधारी पक्षकारों द्वारा यह रखा जा रहा था कि किसान आंदोलन की आख़िर जल्दी क्या है? यह आंदोलन तो कोरोना काल की समाप्ति के बाद भी हो सकता था? इस पर भी किसान नेताओं का जवाब है कि कोरोना काल में ही कृषि अध्यादेश सदन में पेश करने और इसे बिना बहस के पारित करने की आख़िर सरकार को क्या जल्दी थी?
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तमिलनाडु के किसानों का आंदोलन
देश अगस्त, 2017 के वे दिन भूला नहीं है जब तमिलनाडु के हज़ारों किसानों द्वारा अपनी जायज़ मांगों के समर्थन में दिल्ली में प्रदर्शन किया गया था। तब किसान अपने साथ उन किसानों की खोपड़ियां भी लाए थे जिन्होंने ग़रीबी, भुखमरी व तंगहाली में आत्महत्याएँ की थीं। वे विरोध प्रदर्शन के स्वरूप कभी स्वमूत्र पीते तो कभी बिना बर्तन के ज़मीन पर ही रखकर भोजन करते तो कभी निःवस्त्र हो जाते।
परन्तु उन बदनसीब किसानों की कोई मांग नहीं मानी गयी। यहाँ तक कि हज़ारों किलोमीटर दूर से आए इन अन्नदाताओं से देश का कोई बड़ा नेता मिलने तक भी नहीं पहुँचा।
परन्तु इस बार मुक़ाबला हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों से है। दिल्ली के इर्द-गिर्द के ये किसान दिल्ली को राजनैतिक राजधानी नहीं बल्कि अपना घर ही समझते हैं। यदि इन्हें दिल्ली में प्रवेश करने से रोका जाता है तो इसका अर्थ है कि सरकार और सत्ता की ही नीयत में कोई खोट है।
रहा सवाल बीजेपी के इन आरोपों का कि कांग्रेस किसानों को भड़का रही है। यदि थोड़ी देर के लिए इसे सही भी मान लिया जाए तो इसका अर्थ तो यही हुआ कि किसानों पर कांग्रेस का बीजेपी से भी ज़्यादा प्रभाव है? दूसरी बात यह कि किसानों के साथ खड़े होने का अर्थ किसानों को भड़काना कैसे हुआ?
क्या यह ज़रूरी है कि बहुमत प्राप्त सत्ता के हर फ़ैसले को समाज का हर वर्ग सिर्फ़ इसलिए स्वीकार कर ले क्योंकि बहुमत की सत्ता है और यहाँ अपनी आवाज़ बुलंद करना या इसका सुझाव देना अथवा क़ानून में संशोधन की बात करना अपराध या भड़काने जैसी श्रेणी में आता है?
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हरसिमरत को क्यों देना पड़ा इस्तीफ़ा?
बीजेपी की सहयोगी रही शिरोमणि अकाली दल के नेता सुखबीर बादल ने तो 26 नवंबर को हुए पुलिस-किसान टकराव की तुलना 26/11 से कर डाली थी। यदि कांग्रेस किसानों को भड़का रही है और सरकार द्वारा बनाए गए कृषि क़ानून किसानों के लिए हितकारी हैं तो फिर आख़िर हरसिमरत कौर को इन क़ानूनों के ख़िलाफ़ मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा क्यों देना पड़ा?
मोदी के पुतले जलाए
मुझे नहीं याद कि भारत के किसी भी प्रधानमंत्री के पुतले दशहरे के अवसर पर रावण के पुतलों की जगह जलाए गए हों। परन्तु विगत दशहरे में पंजाब में ऐसा ही हुआ। यहां कई पुतले किसानों ने ऐसे भी जलाए जिसमें प्रधानमंत्री के साथ अडानी व अंबानी के भी चित्र थे।
मोदी के साथ देश के बड़े उद्योगपतियों के पुतले भी पहली बार जलाए गए। क्या यह सब कुछ सिर्फ़ कांग्रेस के उकसाने व भड़काने पर हुआ? या किसान सत्ता द्वारा रची जाने वाली किसान विरोधी साज़िश से बाख़बर हो चुके हैं?
यहां एक बात यह भी स्पष्ट करना चाहूंगा कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की गिनती देश के सबसे संपन्न, शिक्षित व जागरूक किसानों में होती है। न तो इन्हें कोई भड़का सकता है न ही इन्हें कोई डरा या धमका सकता है। लिहाज़ा इनकी शंकाओं को सिरे से ख़ारिज करना और सारा आरोप कांग्रेस पर मढ़ना या इनके आंदोलन को देशविरोधी बताना अथवा इसके तार किसी आतंकी साज़िश से जोड़ने जैसा प्रयास करना किसी भी क़ीमत पर मुनासिब नहीं।
यदि सत्ता के इस तरह के अनर्गल आरोप सही हैं तो फिर सरकार का किसानों से इतने बड़े टकराव के बाद बातचीत के लिए राज़ी होने की वजह क्या यही है? क्या किसानों की शंकाओं के मुताबिक़, सरकार वास्तव में कॉर्पोरेट्स के दबाव में आकर बल पूर्वक किसानों के आंदोलन को दबाकर मनमानी करने की नाकाम कोशिश कर रही थी?
जब-जब लोकताँत्रिक व्यवस्था में विपक्ष की आवाज़ या धरने व प्रदर्शनों को इसी तरह दबाने व कुचलने का तथा सत्ता द्वारा दमनकारी नीतियों पर चलने का प्रयास किया जाएगा, तब-तब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की यह पंक्तियाँ हमेशा याद की जाती रहेंगी।
निसार मैं तेरी गलियों के, ऐ वतन कि जहाँ।
चली है रस्म कि कोई न सिर उठा के चले।।
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