भारतीय एक दूसरे को पहचान लेते हैं
‘आप उन्हें कैसे जानते हैं?’, उन्होंने मुझसे पूछा। उन्हें यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि विदेशों में रहने वाले भारतीय एक दूसरे को देख कर पहचान लेते हैं भले ही 500 किलोमीटर दूर रहते हों, अलग-अलग भाषाएँ बोलते हों, अलग-अलग ईश्वरों को पूजते हों, भीड़ में भी वे एक दूसरे को पहचान ले कते हैं और उनमें एक किस्म का याराना हो जाता हैहिन्दू राष्ट्र बनाने की पागलपन भरी अफरातफरी में हिन्दुत्ववादी ताक़तें एक देश के होने की और एक होने की इस भावना को नष्ट करने पर तुली हुई हैं।
तत्कालीन संघ प्रमुख से मुलाक़ात
आरएसएस के सरसंघचालक के. एस. सुदर्शन से मुलाक़ात मुझे याद आ रही है। मैं 1994 में रोमानिया से लौटा ही था। एक आईपीएस अफ़सर मित्र मेरे लिए न्योता लेकर आए थे।इस देश की विशाल जनसंख्या के 2.4 प्रतिशत ईसाई हैं और एक ईसाई के रूप में मुझे कभी नहीं लगा कि यहाँ किसी वर्ग की बेइज्जती की जाती है, एक ईसाई के रूप में मुझे ऐसी शिकायत करने की कोई वजह नहीं मिली।
बड़ी ग़लती ठीक करने की कोशिश
पर सुदर्शन इससे संतुष्ट नहीं थे। वह इस बात को लेकर पूरी तरह निश्चिंत थे कि 84 प्रतिशत हिन्दुओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है। मैं यह नहीं समझ पाया कि आरएसएस कैसे इस निष्कर्ष पर पहुँचा, पर आज मैं यह समझ सकता हूं कि मोदी और शाह जिस रास्ते पर चल रहे हैं, समझते हैं कि उससे बड़ी ग़लती ठीक हो जाएगी।टुकड़े-टुकड़े गैंग
इस 84 प्रतिशत में वे लोग भी हैं, जो यह नहीं मानते कि उनके साथ भेदभाव किया गया। ‘अर्बन नक्सल’, वामपंथी ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’, छिटपुट ‘राष्ट्र द्रोही’ जो मोदी और शाह की नफ़रत की राजनीति से असहमत हैं, उनके अलावा हाथ में झाड़ू लिए इस केजरीवाल ने भी नाक में दम कर रखा है। और इसने दिल्ली में 8 फरवरी को हुए चुनाव में ज़बरदस्त जीत हासिल कर ली।एक ऐसा हिन्दू राष्ट्र जो सेना और सरकार को अपने मन से चलाने के मामले में पाकिस्तान को टक्कर दे सके, ऐसे राष्ट्र के निर्माण के लिए मोदी और शाह की सोची समझी स्पष्ट रणनीति यह है कि ज़्यादा से ज़्यादा चुनाव जीते जाएं।
दिल्ली चुनाव का महत्व
दिल्ली का चुनाव उनके लिए इस तरह प्रतिष्ठा का विषय था कि इसे किसी भी कीमत पर जीतना ज़रूरी था और इसलिए उन्होंने ‘गाली’ और ‘गोली’ का सहारा लिया, जिससे राजनीतिक वातावरण इतना दूषित हो गया कि आने वाले समय में इसके नतीजों के बारे में सोच कर मैं सिहर उठता हूँ।बिना सोचे समझे बोलने वाले बीजेपी नेताओं ने जो नफ़रत फैलाई थी, ऐसे में दिल्ली में दंगे होना स्वाभाविक ही था।
एक ऐसे आदमी के लिए जो मुंबई की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले सभी धर्मों के लोगों को मुहल्ला कमिटी आन्दोलन के ज़रिए एक मंच पर लाने की कोशिश में लगा हो, बिल्कुल उल्टी दिशा में जा रही किसी राजनीतिक दल को रोकना बेहद चुनौती भरा काम है।
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