जब राजनीति में जम कर धर्म का घोल मिलाया जा रहा हो, जब धर्म के नाम पर हक़ जायज़ और नाजायज़ बातों को सही ठहराया जा रहा हो, जब देश के प्रधानमंत्री और दिल्ली के मुख्यमंत्री संस्कृति की आड़ में लोगों की धार्मिक भावनाओं को दोहन कर अपनी राजनीति चमका रहे हों, तब जवाहर लाल नेहरू की याद आना स्वाभाविक है।
वह राजनीति में धर्म की मिलावट के ख़िलाफ़ थे। वह ख़ासतौर पर सरकार में रहते हुये किसी भी तरह के धार्मिक कार्यक्रमों में शामिल होने को ग़लत मानते थे। उनकी नज़र में सांप्रदायिकता किसी भी धर्म की हो, ख़तरनाक होती है ।
नेहरूवाद के चार स्तंभ!
वह समाजवाद से प्रभावित थे। लेकिन धर्म से नफ़रत नहीं करते थें। वह बस धर्म के बेजा इस्तेमाल के पक्ष में नहीं थे। विचारधारा का ही का प्रभाव था कि उन्होंने भारत में लोकतांत्रिक समाजवाद की स्थापना का लक्ष्य रखा। लोकतंत्र, समाजवाद, एकता और धर्मनिरपेक्षता-उनकी घरेलू नीति के चार ठोस स्तंभ थे। अपनी जिंदगी के आख़िरी वक़्त तक वह इन्हीं नीतियों पर कायम रहे। जातीय तथा धार्मिक विभिन्नताओं के बावजूद जवाहरलाल नेहरू ने हमेशा देश की एकता और अखंडता पर जोर दिया। वह साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी थे। उनकी नजर में संस्कृति के अलग ही मायने थे। संस्कृति को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा था,
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“संस्कृति का मतलब है-मन और आत्मा की विशालता और व्यापकता। इसका मतलब दिमाग को तंग रखना, या आदमी या मुल्क की भावना को सीमित करना कभी नहीं होता।’’
जवाहरलाल नेहरू, प्रथम प्रधानमंत्री
क्या थे नेहरू के राय
नेहरू मौजूदा दौर के राजनेताओं की तरह उथले विचारों वाले नेता नहीं थे, न ही वे बड़बोले थे। वे जो भी बोलते, सोच समझकर बोलते। नेहरू के विचारों के पीछे उनका गहरा अध्ययन-मनन साफ झलकता था। वे एक गंभीर विचारक थे। हर मौज़ू पर उनकी एक स्पष्ट राय थी। नेहरू द्वारा समय-समय पर दिए गए भाषणों का यदि अध्ययन करें, तो मालूम चलता है कि उनकी सोच अपने समय से कितनी आगे थी।
जवाहरलाल नेहरू साम्प्रदायिकता को पिछड़ेपन की निशाने मानते थे। उन्होंने 19 जुलाई, 1961 को श्रीनगर में दिए अपने भाषण में कश्मीर वासियों से कहा था, “राजनीति में धर्म या मजहब को लाना और देश को तोड़ना वैसा ही है, जैसा कि तीन सौ या चार सौ वर्ष पहले यूरोप में हुआ था। भारत में हमें इस चीज से अपने आपको दूर रखना होगा।”
सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़
अपने इसी भाषण में वे उन लोगों को आगाह करते हैं, जो राष्ट्रवाद की सतही परिभाषा करते हैं,
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“साम्प्रदायिकता के साथ राष्ट्रवाद जीवित नहीं रह सकता। राष्ट्रवाद का मतलब हिंदू राष्ट्रवाद, मुसलिम राष्ट्रवाद या सिख राष्ट्रवाद कभी नहीं होता। ज्यों ही आप हिंदू, सिख, मुसलमान की बात करते हैं, त्यों ही आप हिंदुस्तान के बारे में बात नहीं कर सकते।”
जवाहरलाल नेहरू, प्रथम प्रधानंत्री
जाहिर है, उनकी नज़र में राष्ट्रवाद की परिभाषा संकीर्ण नहीं थी। भारत का जिस तरह का चरित्र है, उसमें सिर्फ हिंदू राष्ट्रवाद की बात करना, देश का नुक़सान करना है। हिंदुस्तान का तसव्वुर किसी एक धर्म या मजहब को लेकर नहीं किया जा सकता। ये देश कई धर्मों और पंथों से मिलकर बना है। इसी भाषण में वे आगे कहते हैं,
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“अलगाव हमेशा भारत की कमज़ोरी रही है। पृथकतावादी प्रवृतियाँ चाहे वे हिंदुओं की रही हों या मुसलमानों की, सिखों की या और किसी की, हमेशा ख़तरनाक और ग़लत रही हैं। ये छोटे और तंग दिमागाों की उपज होती हैं। आज कोई भी आदमी जो वक्त की नब्ज पहचानता है, साम्प्रदायिक ढंग से नहीं चल सकता।”
जवाहरलाल नेहरू, प्रथम प्रधानंत्री
राजनीति-धर्म का रिश्ता
राजनीति और धर्म का क्या रिश्ता होना चाहिए? इस विषय पर लंबे समय से बहस चलती रही है। आज भी यह बहस बदस्तूर जारी है। आज़ादी के बाद संविधान सभा में इस सवाल पर बक़ायदा एक विस्तृत बहस हुई। संविधान सभा के एक सदस्य अनन्तशयनम आयंगर ने जब अपने एक प्रस्ताव जिसमें उन्होंने धर्म, मजहब, जाति और बिरादरी के आधार पर हर वर्ग की साम्प्रदायिक गतिविधियों को रोकने के लिए क़ानूनी और प्रशासकीय कदम उठाए जाने की बात की, तो इस बहस में हिस्सा लेते हुए 3 अप्रेल, 1948 को अपने विधायी भाषण में पंडित नेहरू ने कहा,
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“राजनीति और मजहब का (संकीर्ण से संकीर्ण मायने में) गठबंधन सबसे ज्यादा ख़तरनाक गठबंधन है और इसको ख़त्म कर देना चाहिए। इससे साम्प्रदायिक राजनीति पनपती है। इस बारे में कोई भी शिकायत नहीं होना चाहिए।
जवाहरलाल नेहरू, प्रथम प्रधानंत्री
नेहरू ने इसके आगे कहा, "यह साफ है कि जैसा माननीय प्रस्तावक ने कहा है कि यह गठजोड़ सारे मुल्क़ के लिए नुक़सान देने वाला है। यह बहुमत के लिए भी हानिकर है, लेकिन संभवतः यह उस अल्पसंख्यक वर्ग के लिए भी नुक़सानदेह है, जो इससे कुछ फ़ायदा लेना चाहता है।’’
जाहिर है कि पंडित नेहरू सियासत में मजहब के इस्तेमाल के ख़िलाफ़ थे। वह इस गठबंधन को बेहद ख़तरनाक मानते थे। न सिर्फ बहुसंख्यक वर्ग के लिए, बल्कि अल्पसंख्यक वर्ग के लिए भी।
संघ परिवार, आज जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या हिंदू राष्ट्रवाद की बात करता है, उस राष्ट्रवाद के पंडित नेहरू घोर विरोधी थे।
राष्ट्रवाद
उनकी यह सोच अचानक नहीं बनी थी। उन्होंने दुनिया के कई देशों की सियासत का अच्छी तरह से अध्ययन किया था, तब जाकर वे इस नतीजे पर पहुंचे थे। उनका कहना था,
“राष्ट्रवाद एक विचित्र वस्तु है, जो देश के इतिहास के किसी ख़ास मुक़ाम पर तो जीवन, उन्नति, शक्ति और एकता प्रदान करती है, लेकिन साथ ही इसकी सीमित कर देने की भी प्रवृत्ति है। क्योंकि आदमी यह सोचने लगता है कि मेरा देश बाकी दुनिया से भिन्न है। इस तरह, देखने का नज़रिया बदलता जाता है और आदमी अपने ही संघर्षों और अच्छाइयों और बुराइयों के सोचने में फँसा रहता है और दूसरे विचार उसके सामने आते ही नहीं। नतीजा यह होता है कि वही राष्ट्रवाद, जो किसी जाति की उन्नति का प्रतीक होता है, मानसिक विकास के अवरुद्ध होने का प्रतीक बन जाता है।’’ भारत के लिए जवाहरलाल नेहरू के दिल में क्या सपना था और वे किस तरह का देश बनाना चाहते थे? इस संबंध में देशवासियों से उनकी क्या अपेक्षा थी इन सब सवालों के जवाब उनके एक नहीं, कई भाषणों में मिल जाएंगें।
आजादी के तुरंत बाद 13 दिसम्बर, 1947 को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक विशेष दीक्षांत समारोह में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था,
“अपने राष्ट्रीय लक्ष्य के बारे में हमारी स्पष्ट कल्पना होनी चाहिए। हमारा लक्ष्य स्वतंत्र, सशक्त और लोकतांत्रिक भारत है। हम चाहते हैं कि भारत सशक्त, स्वाधीन और लोकतांत्रिक हो, जहाँ हर नागरिक को समान स्थान और तरक्क़ी तथा सेवा के समान अवसर मिलें, जहाँ आजकल की जैसी धन-संपत्ति और हैसियत की असमानताएं मिट जाएं, जहां हमारा उत्साह और भावनाएं रचनात्मक और सहकारी अध्यवसाय की दिशा में काम करें। ऐसे भारत में साम्प्रदायिकता, अलगाव, पृथकता, छुआछूत, दंभ और आदमी द्वारा आदमी के शोषण का कोई स्थान नहीं होगा। धर्म जहां स्वतंत्र रहेगा, लेकिन उसे राष्ट्रीय जीवन के आर्थिक और राजनीतिक पक्ष में दखल देने की इजाजत नहीं दी जाएगी। अगर ऐसा होता है तो हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई के ये सब झगड़े राजनीतिक जीवन से बिल्कुल खत्म हो जाएंगे। हमें एक संगठित और मिले-जुले राष्ट्र का निर्माण करना चाहिए, जिसमें व्यक्तिगत और सामूहिक आजादी सुरक्षित रहेगी।’’ काश! आज के सत्ताधारी इन बातों को अपने अंतर्मन में बैठा पाते!
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