loader

संघ जब तक है नेहरू उससे लड़ते रहेंगे!

जवाहरलाल नेहरू को याद करना, उनके किये-कहे को गुनना- समझना क्यों ज़रूरी है, यह शायद अब किसी को समझने या समझाने की ज़रूरत नहीं है। कंगना रनौत ने नवंबर, 2021 में ठीक फ़रमाया था कि असली आज़ादी 2014 में मिली। दरअसल, वह संघी जमात की असली आज़ादी की बात कर रही थीं। यह साफ़ है कि जब संघ के लोग देश की बात करते हैं तो उस देश के आहाते से बहुत सारे तबके बाहर रखे जाते हैं। अल्पसंख्यक, दलित, पिछड़े और हर तरह के हाशिये पर पड़े लोग। विभाजन के इन असली पैरोकारों ने, हर तरह के विभाजनों की अपनी विशेषज्ञता करीने से संभाल कर रखी है। कहने की ज़रूरत नहीं कि ये उसी की खा रहे हैं।

विभाजन के इन असली पैरोकारों ने, हर तरह के विभाजनों की अपनी विशेषज्ञता करीने से संभाल कर रखी है। कहने की ज़रूरत नहीं कि ये उसी की खा रहे हैं।

संकीर्णता की उनकी घेरेबंदी में इतने बड़े हिंदुस्तान की समाई कहां। वहां इतनी रंगीनियों और विविधता की गुंजाइश ही नहीं। फिर वह दिल कहां, दिमाग़ कहां। इनकी परवरिश ही इकहरी, एकांगी और अपंग रही है। नफ़रत की ख़ुराक़ पर पले- बढ़े हैं और वही लिख-पढ़-बोल रहे हैं। तो कंगना इन्हीं लोगों को असली आज़ादी मिलने की बात कर रही हैं।

जब आज़ादी के लिए भगतसिंह जैसे वतन के नौजवान फांसी के फंदों को चूमते हुए शहीद हो रहे थे। गांधी के साथ हज़ारों हज़ार जेल भर रहे थे तब अंग्रेज़ों के मानसिक ग़ुलाम ये हिंदू महासभाई और संघी प्राणप्रण से ग़ुलामी की तरफ़दारी में लगे हुए थे। यह क़तई अजब नहीं था कि इन्हें यह आज़ादी रास नहीं आई। राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत संघ वालों के लिए बेमतलब और बेगानी चीज़ रहीं। साम्प्रदायिक ज़हर से, दंगों और अड़ंगों से वे स्वतंत्रता को छिन्न-भिन्न करते रहे। इस महादेश की विरासत, संस्कृति और पहचान पर सबसे गहन प्रहार इन्होंने बाबरी ध्वंस करके किया। उस समय की भाजपाई नेताओं की खिलखिलाहट भले आपके मन में कुत्सा पैदा करती हो पर वे खिली हुईं बांछें इशारा कर रही थीं कि उन्हें अपनी असली आज़ादी नज़र आने लगी है। 2014 में यह असली आज़ादी उन्हें मिल गयी जिसके बारे में नकली झांसी की रानी ने हमें बताया।

इनकी 'असली आज़ादी' ने 1947 में मिली दुश्मन-आज़ादी पर क्या कहर ढा रखा है इसे क्या बताना, यह तो सब खुलेआम और डंके की चोट पर किया जा रहा है। 

ताज़ा ख़बरें

लोकतंत्र, संविधान, संसद, स्तम्भ, संस्थाएँ सब बंधक और आहत हैं। परम्पराएं, प्रक्रियाएं, मर्यादाएं, लोकलाज, शोभनीयता तितर- बितर, ध्वस्त हैं। धर्मनिरपेक्षता, नागरिकता, समावेशिता, विविधता निशाने और गहरे संकट में हैं। जनजीवन, अर्थ व्यवस्था, रोज़गार, बुनियादी सुविधाएं बेहाल हैं। क़ानून का राज जंगलराज में बदल चुका है। अच्छे दिनों का कोई अता- पता नहीं। सत्तर साल का बदला लिया जा रहा है। आज़ादी की इस नयी रस्म के पीछे भले आभारों से लदा - फदा एक व्यक्ति साकार हो पर असल में इसके पीछे एक विध्वंसकारी विचार है। कंगना की बात जो मुंह में आया बक दिया वाला मामला है या इसके पीछे कोई डिजाइन है इसकी बहस फ़िज़ूल है क्योंकि इनके मन में यह सब चलता रहता है, बीच- बीच में कोई बक देता है पर बाक़ी स्वयंसेवक और उनका कारख़ाना अहर्निश ऐसे ही षडयंत्रों में लगा रहता है। हां इन बकवासों से समाज में छोड़े गये ज़हर के लेवल और असर का परीक्षण हो जाता है। 

कंगना को 47' वाली आज़ादी के लिए हुए बलिदानों के बारे में बताना निरर्थक है, यह भैंस के आगे बीन बजाना होगा। स्वतंत्रता भीख में मिली कहने वालों / वालियों से भी कुछ भी कहना बेकार है। अंग्रेज़ों से रिहाई के माफ़ीवीरों और इमरजेंसी में पेरोल के लिए गिड़गिड़ाने वालों को भीख के आगे कुछ नहीं सूझता। इनके चंदों से लेकर कोषों तक का यही हाल है। आगे ख़तरे भयावह हैं। अभी सत्तर सालों का बदला ले रहे हैं, फिर दो सौ सालों का लेंगे और फिर बारह सौ सालों का। इनकी ताक़त यह है कि इन्होंने नकली को असली, शेखचिल्लीपने को बहादुरी और बौनों को महानायकों में बदल दिया है। कम से कम हमें छद्म के सामने असली महानायकों को खड़ा करना और उनके साथ खड़े होना चाहिए। गांधीजी, भगतसिंह, आम्बेडकर और स्वतंत्रता संग्राम, राजनीतिक- सामाजिक आंदोलनों के महापुरुषों, उनकी विरासत व मूल्यों को  उनके प्रेरक स्वरूप में याद किया जाना चाहिए। इसी कारण  जवाहरलाल नेहरू का स्मरण बहुत ज़रूरी है। वे लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और उदार मूल्यों के सबसे बड़े प्रतीक हैं।

गांधीजी की हत्या के बाद वहीं बिड़ला भवन से जनता को इस दुखांत की आधिकारिक सूचना देते हुए नेहरूजी ने कहा था कि हमारे जीवन से प्रकाश चला गया। फिर उन्होंने जोड़ा कि मैंने ग़लत कहा कि प्रकाश जाता रहा, क्योंकि वह प्रकाश जिसने इस देश को आलोकित किया कोई साधारण प्रकाश नहीं था। वह आने वर्षों में इस देश में दिखाई देगा और दुनिया इसे देखेगी, क्योंकि वह प्रकाश तात्कालिक वर्तमान से कुछ अधिक का प्रतीक था, वह जीवित और शाश्वत सत्यों का प्रतीक था। तो वह प्रकाश तो भारतीय मन में, भले मुखर न हो पर, अंतर्भूत, आत्मसात हो गया, गांधीजी की उपस्थिति एक लुकाछिपी करती अंतर्प्रेरणा की तरह है। यही कारण है कि गांधीजी के घोर शत्रु होते हुए भी उन्होंने उन्हें फ़िलहाल रख छोड़ा, लेकिन जब तब उनके ख़िलाफ़ डॉ. आम्बेडकर को खड़ा किया जाता रहा वैसे ही जैसे नेहरू के विरोध में सरदार पटेल और नेताजी को। 

लेकिन अब गांधीजी भी निशाने पर ले लिए गए हैं। गांधी- दिवसों पर सोशल मीडिया पर गोडसे छाया रहता है, वैसे ही जैसे नेहरू के ख़िलाफ़ अनर्गल प्रचार से यह मीडिया कभी ख़ाली नहीं रहता।

भारतीय जन- मन में नेहरू हमेशा उपस्थित रहे हैं, उन्हें उनकी यही ताक़त बचाती रही वरन् संघ- सेना ने नेहरू को कभी बख़्शा नहीं, उनकी राजनीतिक और चरित्र हत्या करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसका भी कारण स्पष्ट है। आज़ाद भारत में नेहरू की मृत्युपर्यन्त केंद्रीय स्थिति रही और वे दक्षिणपंथी मंसूबों के आगे मजबूत दीवार की तरह खड़े रहे। उनका विराट व्यक्तित्व जनता के प्रेम-अमृत से सिक्त संजीवन था, संघ उनका सामने से कुछ बिगाड़ने में असमर्थ था, पर वह अपनी फ़ितरत के अनुसार पीछे से वार करता रहा। नेहरू के साथ पक्षपात करने का गांधीजी पर आरोप आमतौर पर लगता है।

नेहरू की धर्मनिरपेक्ष, उदार छवि, लोक स्वीकार्यता आदि विशेषताओं के साथ क्या गांधीजी यह समझ रहे थे कि नेहरू ही ऐसे हमलों को सहते हुए न सिर्फ़ अडिग खड़े रहेंगे बल्कि हमलावरों को जवाब भी देते रहेंगे! पत्रकार इंदर मल्होत्रा ने नेहरू पर एक लेख में लिखा था कि गांधीजी के ठीक पीछे कुछ दूरी पर नेहरू चल रहे थे, बाक़ी सब नेहरू के बहुत पीछे थे। शिव विश्वनाथन अपने एक लेख में लिखते हैं कि उनके पिता उनसे कहते थे कि सुभाष बोस, विनोबा, जयप्रकाश, कुमारप्पा, सरदार पटेल देश रूपी वाक्य के अद्भुत हाइफ़न थे पर गांधी और नेहरू उसके विषय और विशेषण थे। उनके पिता मानते थे कि गांधी के तर्क को नेहरू ही पूरा कर सकते थे।

Jawaharlal Nehru Birth Anniversary  - Satya Hindi

'प्लेबॉय' पत्रिका ने नेहरूजी से 1963 में लिए इंटरव्यू में गांधीजी से संबंधित प्रश्न में पूछा कि क्या आपके देश में गांधी- प्रकाश अब भी चमकता है? नेहरू ने कहा, 'आज जो भारत है उसे महात्मा गांधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जन्म दिया। विचार रूप में हम उनकी संतानें हैं। अत्यंत अपूर्ण, बेहद मूर्ख संतानें, पर फिर भी हम हैं उनकी संतानें।’

दोनों बहुत भिन्न थे पर दोनों ही भारत की मिट्टी और संस्कृति से उपजे थे और 10,000 साल पुरानी भारतीय परम्परा में गहरे   बद्धमूल थे। दोनों हमें भारत के असंख्य रूपों का स्मरण कराते रहे। वे युवा भारत के आदर्श का प्रतिनिधित्व करते थे। फिर भी अब मैं उन दोनों व्यक्तियों को काफ़ी दूरी पर पाता हूँ। रचनात्मक प्रयत्नों, आस्था और उम्मीद की जिस शक्तिशाली भावना का वे प्रतिनिधित्व करते थे उसकी जगह भारत, और दूसरे देश भी, अधिकाधिक नकारात्मकता और विध्वंस का प्रतिनिधित्व करने लगे हैं। इस कारण मेरे मन में यह भय घर करने लगता है कि हम सबकी मेहनत क्या वह बहा ले जायेगा जिस पर हमारा कोई बस नहीं।

'इतने बरस बाद संकट अब आकंठ है, सारी मेहनत मिट्टी की जा रही है। वे टैगोर ही थे जिन्होंने नेहरू की तुलना वसंत से की थी और नेहरू वसंत की सी सामर्थ्य, सुंदरता और महक से देश में नया रचते, उसे हरा- भरा करते रहे। अंतिम समय तक हिंदुस्तान की सरज़मीं पर अपने सपने साकार करने में लगे रहे। इंदर मल्होत्रा एक और लेख में बताते हैं कि भुवनेश्वर में हल्का लकवा लगने के कुछ दिनों बाद उन्होंने विदेश मंत्रालय आने की सूचना दी, पर इस बार उनकी आगवानी करने अधिकारी बाहर नहीं आये, वे उन्हें कोई ठेस पहुंचाना नहीं चाहते थे, क्योंकि एक बार में दो सीढ़ी चढ़ने वाले प्रधानमंत्री अब कठिनाई से चल पा रहे थे, उन्हें लिफ़्ट लेनी पड़ी, छिपकर उन्हें देख रहे कई लोग रो पड़े। नेहरूजी नेपाल के साथ गंडक पर भैंसालोटन परियोजना को लेकर चिंतित थे। कमोबेश उसी हालत में वे शिलान्यास के लिए गए।

हमारे आज के पर्यटनशील प्रधानमंत्री फूटी आंखों भी नेहरू को पसंद नहीं करते तो उनसे नेहरूजी से कुछ सीखने की आशा दुराशा ही है। उनकी बिरादरी के ही पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी भी कुछ नहीं सीख पाये।

बाजपेयी मोदी की तुलना में भले आज भले लगते हों पर वे कभी पार्टी के कार्यक्रमों से डिगे नहीं, असहमत नहीं हुए। वे बेहद ओवररेटेड नेता थे। इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ उनके दोहरे अर्थ वाले भाषण शर्मसार करते रहे। नेहरूयुगीन नेता के नाते उनकी एक छवि बन गयी थी। उनका एक वाक्य मशहूर है : संसद में भाषण दो और घर आकर सिनेमा देखो। नेहरूजी पर भी उनकी बातें हैं और भाषण है पर उन्होंने न उनसे सोचना सीखा न साहस पाया। चीन से युद्ध के समय नेहरू आलोचनाओं से घिरे थे, ऐसे में अटलबिहारी बाजपेयी ने उनसे बहस के लिए राज्यसभा बुलाने की माँग की और नेहरूजी फ़ौरन तैयार हो गए लेकिन कारगिल के वक़्त पूरा विपक्ष मांग करता रहा पर प्रधानमंत्री अटलबिहारी ने सत्र नहीं बुलाया। अटल हों या मोदी उनकी तुलना जब नेहरू जैसों से होने लगती है तो यह शेर याद आता है : असल कोई और शय है, नुमाइश कोई और \ यूँ तो यहाँ मुर्ग के भी सर पर ताज है। 

Jawaharlal Nehru Birth Anniversary  - Satya Hindi

इनमें एक चुटकुला- प्रशस्त प्रधानमंत्री हुए और एक जुमला- प्रशस्त प्रधानमंत्री हैं। एक बात और नेहरू ने स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका को कभी बचाव में ढाल नहीं बनाया और न अपने को आलोचना से परे माना। अटलजी ने लोकसभा में सोनिया गांधी की आलोचना से तिलमिलाकर अपने साठ साल के राजनीतिक जीवन का बखान कर डाला था।

वर्तमान प्रधानमंत्री के बारे में तो ऐसा दावा ही है कि असल में पहले प्रधानमंत्री वे ही हैं। वैसे भी उन्हें सरकारों, प्रधानमंत्रियों की निरंतरता से कोई मतलब रहा न उसकी कोई परवाह ही की, मामला सीधा अपने सिवा कुछ दिखाई न देने का है, जबकि असली मामला यह बनता है कि प्रधानमंत्री को बहुत कुछ देखना, सुनना, समझना, मानना पड़ता है। जयराम रमेश की कृष्ण मेनन की जीवनी में लंदन में तब के भारतीय उच्चायुक्त मेनन को नेहरूजी एक पत्र में लिखते हैं: आप क्या समझते हैं कि यहाँ मैं किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हूँ, मनमर्जी से काम करता हूँ या आप वहाँ इस तरह काम कर सकते हैं। प्रसंगवश, मेनन ने नेहरू के कुछ ऐसे पत्रों को 'क्रूर पत्र' कहा था। नेहरूजी के 120 वर्ष होने पर एक अंग्रेज़ी अख़बार ने अनेक जाने- माने लोगों से नेहरूजी से उनकी मुलाक़ात और अनुभव के बारे में पूछा था। कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन के पिता और परिवार से नेहरूजी परिचित थे!

जब एमएस को 1951 में शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार मिला तब एक दिन नेहरूजी ने उन्हें बुलाया और कहा कि मुझे बताओ कि तुमने ऐसा क्या किया है कि यह पुरस्कार तुम्हें मिला। एमएस ने तब उन्हें गेहूँ और चावल के पौधों पर अपने काम के बारे में 45 मिनट तक बताया, नेहरूजी और इंदिरा गांधी दोनों दत्तचित्त होकर सुनते रहे। 

विचार से ख़ास

'सब कुछ इंतज़ार कर सकता है पर कृषि नहीं' 

एमएस ने याद किया कि 1950 में नेहरू जब भारतीय कृषि शोध संस्थान आये तब वहीं उन्होंने वह प्रसिद्ध वाक्य कहा था, 'सब कुछ इंतज़ार कर सकता है पर कृषि नहीं।' नयनतारा  सहगल द्वारा सम्पादित एक पुस्तक है 'नेहरू का भारत' (Nehru's  india), इसमें अपने लेख में मणिशंकर अय्यर बताते हैं कि वे तब 18 के थे जब पहली बार संसद में बहस सुनी। केरल की नम्बूदिरीपाद के नेतृत्व वाली पहली कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त करने के विरोध में कामरेड डांगे प्रखर मुखर थे। उन्होंने नेहरू की तुलना युधिष्ठिर से की जिनका रथ ज़मीन से ऊपर चलता था क्योंकि वे सत्यवादी थे, वह रथ धरती पर गिर पड़ा क्योंकि महाभारत में उन्होंने झूठ बोला था। कामरेड ने नेहरू से कहा ऐसे ही आपका भी रथ धराशायी होगा। नेहरू ने सारी आलोचना ध्यान और धीरज से सुनी। आज हम इसकी कल्पना नहीं कर सकते। निस्सार भ्रमण और हर कमरे में नया परिधान। इसमें ही अब एक प्रधानमंत्री का कितना क़ीमती वक़्त ख़र्च हो जाता है! उसी अख़बार में आर्किटेक्ट मानसिंह राणा बताते हैं कि वे जब अमेरिका में पढ़ रहे थे तब नेहरुजी से मिले थे, बाद में दिल्ली आकर मिले और काफ़ी काम किया। बाल भवन बनाया, दक्षिण दिल्ली में बुद्धा गार्डन आदि। 

नेहरू की तुलना जेफ़रसन से 

तीन मूर्ति के महलनुुमा मकान में रहते हुए परेशान नेहरू वहीं परिसर में सादगीभरा छोटा घर चाहते थे, राणा से उन्होंने बात की। इलाहाबाद वाले अपने आलीशान घर 'आनंद भवन' और 'स्वराज्य भवन' राष्ट्र को अर्पित कर देने वाले शख़्स की एक सादा घर की चाह हरगिज़ बेतुकी नहीं थी। नोटबन्दी की आर्थिक और कोरोना वायरस जैसी महामारियों के बीच हज़ारों करोड़ के सेंट्रल विस्टा के तरफ़दार देखें कि जनसंघ के श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने लोकसभा में इस प्रस्तावित मकान पर सवाल किया और नेहरू ने राणा से कहा यह मामला तो खटाई में पड़ गया और इस मामले का पटाक्षेप कर दिया। नयनतारा वाली पुस्तक में आकार पटेल नेहरू के विविध रुझानों, रुचियों पर हैरत जताते हुए नेहरू के ऑस्ट्रेलियाई जीवनी का वॉल्टर क्रॉकर की बात कहते हैं, 'Strange Case of Dr Jekyll and Mr Hyde में दो लोग हैं, नेहरू में ये सम्भवतः बीस से ज़्यादा हैं'। अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफ़रसन की विविध अनुशासनों में रुचि थी, उनकी लाइब्रेरी में पांच हज़ार किताबें थीं। राष्ट्रपति केनेडी ने 1962 में 49 नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हस्तियों को पार्टी दी और कहा कि मैं समझता हूँ कि व्हाइट हाउस में पहले कभी प्रतिभाओं और मानवीय ज्ञान का ऐसा सम्मिलन हुआ हो, हां शायद इसका एकमात्र अपवाद व्हाइट हाउस  में अकेले डिनर करते जेफ़रसन ही हो सकते हैं। आकार पटेल मानते हैं कि नेहरू की तुलना जेफ़रसन से ही की जा सकती है। 

नेहरू और पटेल

इसी पुस्तक में हरतोष बल नेहरूजी द्वारा उल्लिखित और अपेक्षया कम चर्चित प्रसंग की याद दिलाते हैं। यह महान शायर दार्शनिक और राजनीतिक मोहम्मद इक़बाल से संबंधित है। इक़बाल बाद में पाकिस्तान के पैरोकार हो गए थे। नेहरू ने लिखा : मृत्यु से कुछ महीने पहले उन्होंने मुझे बुलाया, मैं गया, वे बीमार थे। मैंने उनसे कई विषयों पर बात की। मैं उनका आदर करता और उनकी शायरी को पसंद करता था। मैंने पाया कि मतभेद होते हुए भी हमारे बीच कितनी चीज़ें समान हैं। वे पुरानी बातों को याद करते हुए एक से दूसरी पर आ- जा रहे थे, मैं उन्हें सुन रहा था। मुझे यह जानकर ख़ुशी हुई कि वे मुझे पसंद करते हैं और मेरे बारे में उनकी अच्छी राय है, 'तुम्हारे और जिन्ना के बीच क्या समान है? वह राजनीतिक है तुम देशभक्त हो'।

‌नेहरूजी ने सिर्फ़ अपनी महाछवि के बूते यह सब अर्जित नहीं कर लिया। पुनर्निर्माण में अपने को झोंक दिया था। विभाजन की त्रासदी, बाहर ही नहीं कांग्रेस के अंदर बहुत रोड़े थे। पटेल से उनके मतभेद सर्वविदित थे। पटेल की मृत्यु के बाद ही कांग्रेस पर उसका नियंत्रण हो पाया। पास कुछ था नहीं, सब कुछ शुरू से ही शुरू करना था। और वह उन्होंने किया। उनकी लोकप्रियता अपार थी। 

Jawaharlal Nehru Birth Anniversary  - Satya Hindi

बर्ट्रेंड रसल ने वीकली में प्रकाशित लेख में हैरत जताते हुए कहा कि इस बात की ओर बहुत कम ध्यान गया है कि सारी स्थितियां अनुकूल होते हुए भी नेहरू तानाशाह नहीं हुए। वे महानायक थे, देश में भयावह गरीबी, अशिक्षा, अज्ञान,  बीमारियां, जातिवाद, अनेक भाषायें, हिन्दू- मुस्लिम वैमनस्य और इतना बड़ा देश। वे कह सकते थे कि यहां प्रजातंत्र नहीं चल सकता। रसल कहते हैं कि अगर नेहरू ऐसा निर्णय करते तो सुरक्षा के नाम पर भारत की विविध और समृद्ध संस्कृति एकरंगी नियंत्रण में आ जाती। नेहरू इसे समझते थे। पर रसल कुछ लोगों  की इस बात से सहमत थे कि नेहरू को कांग्रेस को समाजवादी और ग़ैरसमाजवादी में तोड़कर समाजवादी हिस्से का नेतृत्व करना चाहिए था। रसल नेहरू को दुर्लभ क़िस्म का समर्पित व्यक्ति मानते थे। सुनील खिलनानी अपनी किताब 'आइडिया ऑफ़ इंडिया' (हिंदी में भारतनामा) में कहते हैं कि नेहरू बार- बार राज्य के काम- काज और लोकतांत्रिक राजनीति को जनता के सामने खोलकर रखने पर ज़ोर देते थे। नेहरू के शासन की असली ऐतिहासिक सफलता लोकतांत्रिक आदर्शवाद के प्रचार- प्रसार की नहीं थी। उनका सबसे बड़ा कारनामा तो यह था कि वे राज्य की संस्था को भारतीय समाज के केन्द्र में स्थापित करने में सफल रहे थे। नेहरू के ज़माने में राज्य का प्रभाव- क्षेत्र बढ़ता चला गया। उसकी महत्त्वाकांक्षाएँ आसमान छूने लगीं। भारतवासियों को जो राज्य कभी अजनबी और सुदूर लगता था, वह उनके दैनिक जीवन में घुसपैठ की इच्छा करने लगा।  पुस्तक के आरम्भ में ही खिलनानी गांधीजी समेत बड़े नेताओं का परिचय देते हुए कहते हैं, 'उन्होंने (नेहरू ने) गांधीजी के साथ एक ऊर्जावान और रहस्यमय रिश्ता क़ायम किया और 1947 के बाद प्रधानमंत्री के रूप में इस देश की राजनीति को निर्णायक शक्ल दी।

‌नेहरूजी जातिवाद, साम्प्रदायिकता मिटाना चाहते थे, यह सब नहीं हो पाया, ग़लतियाँ भी हुईं। चीन से हार एक बड़ा मामला था और उसने नेहरू और उनकी छवि को भरपूर झटका और विरोधियों को बड़ा मौक़ा दिया।

जैसा कि शिव विश्वनाथन कहते हैं, 'एक सैन्य पराजय से  सांस्कृतिक भय व्याप गया। हम सारे मानकों पर सवाल करने लगे...  हमारा विज्ञान, हमारी टेक्नालजी,  हमारी सेना, हमारी विदेश नीति, सब पर सवाल पूछे जाने लगे '। पर तब तक नेहरू एक दुनिया रच चुके थे। भारत को उसके विचार के अनुरूप ढालने की मजबूत नींव रख चुके थे। इस नये बनते हिंदुस्तान और उसे बनाने वाले को दुनिया कौतुक और प्रशंसा से देख रही थी। 1952 से 62 तक भारत में दो बार ऑस्ट्रेलिया के राजदूत रहे वॉल्टर क्राकर ख़ुद को 'नेहरू वाचर' कहते थे। 1966 में उन्होंने नेहरू पर किताब लिखी जो बयालीस साल बाद फिर छपी- नेहरू: अ कन्टेम्परेरी एस्टीमेट (नेहरू ;  एक समसामयिक आकलन)। यहाँ देश में कम्युनिस्ट नेता प्रोफ़ेसर हीरेन मुकर्जी 'जेन्टल कलासस' पुस्तक लिखकर उनकी समीक्षा कर रहे थे, देश के लेखक कवि, शायर, कलाकार, बुद्धिजीवी बड़ी हसरत और उम्मीद से उनको निहार रहे थे। सत्यजीत राय कहते थे- गांधी से ज़्यादा उन्हें नेहरू समझ में आते हैं, उनसे विचारों का एक रिश्ता जुड़ता है। 

भुवनेश्वर में नेहरू लकवाग्रस्त हुए तो दिल्ली ‌में इलाज करा रहे मुक्तिबोध उनकी तबियत के बारे में पूछते रहते। नेहरू की मौत के सदमे में महबूब ख़ान गुज़र गए। दिलीपकुमार, राजकपूर के साथ एक मुलाक़ात में देव आनंद ने उनसे कहा, हम लोगों से अधिक आपका चेहरा फ़ोटोजनिक है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया में पहले सम्पादकीय पृष्ठ पर मिडलर छपता था, और अख़बारों में भी छपता था। नेहरू पहली बार प्रधानमंत्री बतौर अमेरिका 1949 में गये थे, यह मिडलर उसी से संबंधित था और इसे उस समय वहाँ भारत के राजदूत की पत्नी ने लिखा था। एक शाम होटल में नेहरू का भाषण था। हर टेबिल पर उन दो के नाम की स्लिप लिखी रखी थी जिन्हें साथ बैठना था। लेखिका ने अपने साथ वाले का नाम देखा तो  ख़ुशी से दमक उठीं, उनके साथ मार्लन ब्रैंडो का नाम था, तभी मार्लन आ गये औपचारिक परिचय के बाद ब्रैंडो ने बताया कि वे शूटिंग से भागते हुए आये हैं, ठीक से मेकअप तक नहीं छुटाया। उन्होंने कहा कि वे नेहरू का भाषण मिस नहीं करना चाहते थे। और महान नेल्सन मंडेला का वह अमर वाक्य 'बट माइ हीरो इज़ नेहरू'। देश- विदेश में पंडितजी छाये हुए थे। इस पर भी ध्यान दीजिये कि एक नेहरू को ऐसे कितने आत्मीय सम्बोधन मिले। यह उनके प्रति आम और ख़ास लोगों के प्रेम को ही जताता है। प्रेमी जनता भावविभोरता में लाड़ का नाम दे देती है। नेहरू को उसने अनेक दिये। गांधीजी भी जब- तब उनका उल्लेख पंडितजी कहकर ही करते थे, जबकि तीस के दशक में कृष्ण मेनन को एक पत्र में इस सम्बोधन से मना करते हुए उन्होंने लिखा था, 'आपसी संबंधों में ये विशेषण मुझे बोर करते हैं'।

ख़ास ख़बरें

नेहरूजी ने असीम प्यार पाया तो ताउम्र सघन विरोध भी झेला, हर तरफ़ से। संघ वालों से उनकी लड़ाई चल ही रही है। संघ जब तक है  नेहरू उससे लड़ते रहेंगे। प्रसिद्ध लेखक और टिप्पणीकार एजी नूरानी ने एक जगह लिखा,  'नेहरू देश के भूभाग पर एक महानायक की तरह आन और शान से चले। उनकी महानता आत्मसेवी समर्थकों से नहीं बल्कि नफ़रती समूहों, संघ परिवार के नेताओं के उस क्षोभ से नापी जानी चाहिए जो उनका नाम सुनते ही सुलग उठता है। नेहरू अत्यंत सभ्य और सुसंस्कृत व्यक्ति थे और वे विज्ञान, साहित्य, इतिहास, ज्ञान के प्रति अपने तिरस्कार के कारण बर्बर हैं।' इसीलिए  संघ परिवार के लिए नेहरू के बाद भी नेहरू ही हैं।

इलाहाबाद कॉफ़ी हाउस में फ़िराक़ साहब नियमित आते और नियत जगह पर बैठते, साथ दोस्त और कुछ मुंहलगे होते। '64 का साल था। एक दिन अचानक एक ने सवाल दागा कि फ़िराक़ साहब यह बहुत चल रहा है कि आफ्टर नेहरू हू, आप बताइये आफ्टर फ़िराक़ हू। महफ़िल में बनाया खिंच गया कि ये क्या पूछ दिया मैंने! चुप्पी छा गयी। फ़िराक़ साहब ने सिगरेट के कुछ गहरे कश लिए और फिर बोले। इस देश में कालिदास के बाद तुलसीदास को पैदा होने में चौदह सौ बरस लगे, दूसरे फ़िराक़ को पैदा होने में अट्ठाईस साल लगेंगे। पता नहीं अगले नेहरू के लिए कितनी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, अभी कोई वैसा नज़र आता नहीं। पर कोई कमोबेश नेहरू जल्दी आये।

(‌मनोहर नायक की फेसबुक वाल से)

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
मनोहर नायक
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें