जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ़्रेंस के नेता फ़ारूक अब्दुल्ला सात महीने बाद आज़ाद हो गये। केंद्र सरकार ने शुक्रवार को उन पर लगा पब्लिक सेफ़्टी एक्ट हटा दिया था और उन्हें छोड़ने का एलान किया था।
82 साल के फ़ारूक अब्दुल्ला को उसी दिन यानी पाँच अगस्त को हिरासत में ले लिया गया था जब जम्मू कश्मीर का विशेष दर्ज़ा ख़त्म करने की घोषणा की गई थी। अनुच्छेद 370 में बदलाव करने के साथ ही राज्य को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था और अनुच्छेद 35 ए भी ख़त्म कर दिया गया था।
फ़ारूक अब्दुल्ला पर बाद में 15 सितंबर को पीएसए लगा दी गई थी, जिसका मतलब है कि बिना मुक़दमा चलाए उन्हें दो साल तक कैद में रखा जा सकता था। इसी के तहत पहले दिसंबर में और फिर हाल ही में 11 मार्च को पीएसए के तहत उनकी कैद को बढ़ा दिया गया था।
मगर अब अचानक सरकार को क्या हुआ कि उसने पीएसए हटाकर अब्दुल्ला को आज़ाद करने का फ़ैसला ले लिया? क्या उसकी कोई मजबूरी थी या इसे उसकी ओर से एक नई पहल के तौर पर देखा जाए।
पहली नज़र में तो यह उसकी मजबूरी का परिणाम ही दिखता है। आपको पता ही है कि केंद्र सरकार पर ज़बर्दस्त अंतरराष्ट्रीय दबाव है कि वह कश्मीर के हालात सुधारे। सरकार ने पिछले सात महीनों से कश्मीर में अँधेरगर्दी मचा रखी है। कश्मीर घाटी की 70 लाख आबादी को मूलभूत अधिकारों से उसने वंचित कर रखा है। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी यह सब देख रही है और प्रतिक्रिया भी दे रही है।
कहने का मतलब यह कि सरकार के लिए यह ज़रूरी हो गया है कि वह कुछ ऐसा करे कि अंतरराष्ट्रीय जगत को लगे कि सरकार कश्मीर पर शिकंजा ढीला कर रही है, लोकतंत्र की बहाली के लिए क़दम उठा रही है।
यही संदेश देने के लिए उसने चंद दिन पहले ही अल्ताफ़ बुखारी की रहनुमाई में अपनी पार्टी बनवाई थी। इस पार्टी के ज़रिए वह कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने की जुगत में है। लेकिन सबको पता है कि इस पार्टी का कोई जनाधार नहीं है और जब तक सूबे की तीनों प्रमुख पार्टियों को इसके लिए तैयार नहीं किया जाता तब तक बात आगे नहीं बढ़ेगी।
ऐसे में संभव है कि केंद्र सरकार के दिमाग़ में शायद यह बात हो कि फ़ारूक अब्दुल्ला की रिहाई के ज़रिए नेशनल कॉन्फ़्रेंस को सक्रिय किया जाए। अगर ऐसा हो गया तो कांग्रेस भी सक्रिय हो जाएगी और पीडीपी पर भी दबाव बन जाएगा।
लेकिन सवाल है कि क्या फ़ारूक केंद्र सरकार का खेल खेलेंगे? यह तो तय है कि केंद्र सरकार अगर उन्हें रिहा कर रही है तो यह सशर्त होगा। यानी मुमकिन है कि फ़ारूक ने केंद्र सरकार के साथ हाथ मिला लिया हो और अब वह बीच का रास्ता लेकर चलें।
यह बीच का रास्ता यही हो सकता है कि वह अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जे की बहाली की माँग न करें। इसके बजाय वह सूबे को राज्य का दर्ज़ा वापस देने और अनुच्छेद 35ए को लागू करके मूल निवासियों के अधिकारों को बहाल करने पर ज़ोर दें। इसके अलावा वह उन लोगों की रिहाई की माँग भी कर सकते हैं जिन्हें बेवजह गिरफ्तार कर हिरासत में रखा गया है।
अल्ताफ बुखारी की अपनी पार्टी को भी सरकार ने यही एजेंडा दिया है। उसने भी अपने गठन के बाद यही माँगें रखी हैं और जब उनसे अनुच्छेद 370 के बारे में सवाल पूछा गया तो वह टाल गए।
अगर केंद्र सरकार इसी रणनीति पर काम कर रही है तो तय है कि जल्द ही और नेताओं की रिहाई भी हो जाए। ख़ास तौर पर उमर अब्दुल्ला और नेशनल कॉन्फ़्रेंस के नेताओं को तो छोड़ा ही जा सकता है। पीडीपी के भी उन नेताओं को आज़ादी मिल सकती है, जो केंद्र की इस रणनीति के तहत काम करने के लिए तैयार हो जाएँ।
लेकिन केंद्र का खेल खेलना इतना भी आसान नहीं होगा, क्योंकि वादी के आवाम का मूड क्या है इस पर काफ़ी कुछ निर्भर करेगा। वादी के लोगों ने पिछले छह महीनों में जो भुगता है उसके बाद वे या तो इस तरह के केंद्र के पिट्ठुओं को सिरे से खारिज़ कर देंगे या फिर वे हारकर हथियार डाल देंगे।
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