पूरी दुनिया को अपनी चपेट में लेने वाली कोरोना वायरस महामारी भारत ही नहीं बल्कि विश्व के कई देशों की जेलों में बंद कैदियों के लिये वरदान साबित हो रही है। इन जेलों में कोरोना वायरस के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए कुछ श्रेणियों में आने वाले कैदियों को रिहा करने की कवायद चल रही है। भारत की जेलों में कैदियों की भीड़ कम करने के इरादे से सात साल तक की सज़ा के दायरे में आने वाले दोषियों और विचाराधीन कैदियों को रिहाई के लिए राज्य सरकारें क़दम उठा रही हैं।
उच्चतम न्यायालय के एक आदेश के परिप्रेक्ष्य में यह कार्रवाई की जा रही है। इस आदेश पर अमल होने की स्थिति में 50 हज़ार से भी ज़्यादा कैदियों की एक निश्चित अवधि के लिए पैरोल या अंतरिम जमानत पर रिहाई की संभावना है। लेकिन पैरोल या अंतरिम ज़मानत पर रिहा होने वाले इन कैदियों की गतिविधियों पर पैनी निगाह रखने की व्यवस्था अगर नहीं की गयी तो कोरोना वायरस महामारी पर काबू पाने के प्रयासों के दौरान ये स्थानीय लोगों और पुलिस तथा प्रशासन के लिए बहुत बड़ी समस्या खड़ी कर सकते हैं।
प्राप्त जानकारी के अनुसार कोरोना वायरस महामारी के संकट से बुरी तरह जूझ रहे महाराष्ट्र में क़रीब 11,000, देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में क़रीब 11,000, मध्य प्रदेश में क़रीब 8,000, दिल्ली और पश्चिम बंगाल में तीन-तीन हज़ार, गुजरात और तमिलनाडु में 1,200-1,200 कैदियों को रिहा करने की कवायद जारी है। इसके अलावा, विदेशी नागरिक के रूप में पहचान निर्धारित होने के बाद दो साल से अधिक समय से असम के नज़रबंदी शिविरों में बंद सैकड़ों बंदियों की रिहाई के भी शीर्ष अदालत ने आदेश दिए हैं।
लेकिन बलात्कार, बलात्कार के प्रयास, मादक पदार्थों की तस्करी, हत्या के प्रयास और ऐसे ही दूसरे अपराधों में सात साल तक की सज़ा पाने वाले दोषियों और इतनी सज़ा के दंडनीय अपराधों में बंद विचाराधीन कैदियों को कोरोना वायरस महामारी के दौरान जेल से बाहर आने की रियायत नहीं मिलेगी।
न्यायालय ने पुलिस महानिदेशकों के माध्यम से राज्य सरकारों और केन्द्र शासित प्रदेशों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश ज़रूर दिया है कि जेल से रिहाई के बाद कैदियों को सुरक्षित तरीक़े से जाने की सुविधा सुनिश्चित की जाए ताकि वे अपने-अपने घर पहुँच जाएँ। जेल से रिहा होने वाले ऐसे कैदियों के पास यह विकल्प रहेगा कि लॉकडाउन के दौरान वे चाहें तो अस्थाई आश्रय गृहों में रह सकते हैं।
सवाल यह है कि पैरोल, ज़मानत या अंतरिम ज़मानत पर रिहाई के बाद जेलों से बाहर आने वाले इन कैदियों और नज़रबंदियों की गतिविधियों पर कैसे निगाह रखी जाएगी? क्या इन्हें अपने प्रवास वाले क्षेत्र के थाने में सप्ताह में एक या दो दिन उपस्थिति दर्ज करानी होगी?
जेल में कुछ कैदियों के महामारी का शिकार होने पर अदालत ने स्वत: संज्ञान लिया और 23 मार्च को कैदियों की रिहाई के लिए उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की अध्यक्षता में प्रत्येक राज्य में कमेटी गठित करने का निर्देश दिया था।
इस वक़्त देश की 1,339 जेलों में क़रीब 4,66,084 कैदी हैं जो इनकी क्षमता की तुलना में 117.6 प्रतिशत अधिक हैं।
हालाँकि, बिहार की नीतीश कुमार सरकार जेलों में बंद दोषियों अथवा विचाराधीन कैदियों की रिहाई नहीं कर रही है। राज्य सरकार का तर्क है कि उसके यहाँ किसी भी जेल में कोई भी कैदी कोरोना वायरस से संक्रमित नहीं मिला है और यहाँ की जेलों में कैदियों की भीड़ भी नहीं है।
हाल ही में बिहार सरकार के इस रवैये की ओर न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया गया था। किसी भी प्रकार के भ्रम को दूर करने के इरादे से न्यायालय ने साफ़ किया कि उसने सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों को अनिवार्य रूप से कैदियों को रिहा करने का आदेश नहीं दिया है। न्यायालय के 23 मार्च के आदेश का मक़सद कोरोना वायरस महामारी फैलने की स्थिति में क्षमता से अधिक कैदियों वाली जेलों में इस संक्रमण के विस्तार को रोकना है।
किसी भी दूसरे देश की तरह ही हमारे यहाँ भी कैदियों के इलाज के लिए जेलों में अस्पताल की सुविधा है। इसके अलावा, आवश्यकता पड़ने पर सरकारी अस्पतालों में भी उनका इलाज होता है।
देश की जेलों के रखरखाव और कैदियों पर सरकार हर साल भारी भरकम रक़म ख़र्च करती है। वर्ष 2018-19 में इन कैदियों पर 1,176 करोड़ रुपए ख़र्च किए गए थे जिसमें मेडिकल से संबंधित ज़रूरतों पर 76 करोड़ रुपए ख़र्च हुए थे।
न्यायालय के इन आदेशों के बाद भी यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि कड़ी सुरक्षा वाली जेलों से डेढ़ से दो महीने के लिए पैरोल या अंतरिम ज़मानत पर रिहा होने के बाद खुली हवा में साँस लेने की आज़ादी मिलने पर कितने कैदी अस्थाई आश्रय गृहों में रहना चाहेंगे। इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि इनमें से कुछ दोषी या आरोपियों का आगे चलकर कोई सुराग ही नहीं मिले।
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