देश में 22 मार्च के बाद से शिक्षा के तमाम संस्थानों में ताले पड़े हैं। कोरोना का प्रसार थमने का नाम नहीं ले रहा है। आज कोरोना से संक्रमित नागरिकों की संख्या पंद्रह लाख पार कर गयी है। संक्रमण की गति और उसकी वजह से होने वाली मौतों की दर के मामले में हिंदुस्तान दुनिया में पहले स्थान पर आ चुका है।
प्राइवेट स्कूलों में साधन सम्पन्न बच्चे ऑनलाइन शिक्षा ले रहे हैं। तमाम कोचिंग संस्थान भी ऑनलाइन ट्यूटोरियल्स पढ़ा रहे हैं। इनकी देखा देखी कई राज्यों में भी दूर दराज़ के गाँवों में सरकारी शिक्षकों को भेजकर अलग-अलग टोलों में 4-5 बच्चों को बैठाकर पढ़ाने के आदेश दिये जा चुके हैं। कई हल्कों से ऐसी भी ख़बरें आ रही हैं कि मास्टरों को लाउड स्पीकर से पढ़ाने के निर्देश मिले हैं। कुछ इलाक़ों में गाँव के शिक्षक अपनी साइकिल पर लाउड स्पीकर लगाकर शासनादेशों की अमल वजावणी करते हुए भी दिखलाई दे रहे हैं।
देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान लगभग दो महीने देश भर में संचालित आँगनवाड़ियाँ बंद रहीं। इससे नौनिहालों का पोषण और प्री-स्कूल लर्निंग बुरी तरह प्रभावित रही।
कुछ राज्यों में शिक्षकों को कोरोना की ‘डोर टू डोर’ स्क्रीनिंग के काम में भी लगाया गया। विवाद बढ़ने और कोरोना के प्रसार की आशंकाओं के चलते फिलवक्त शिक्षकों को इस काम से निवृत कर दिया गया है लेकिन उनका कोई न कोई इस्तेमाल करने किए जाने की प्रशासनिक पहल पर यह भी ख़बर आयी कि मध्य प्रदेश में शिक्षकों को शराब के ठेकों पर लगाया जाएगा। उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश में शराब के ठेकेदारों ने शराब बेचने से मना कर दिया था।
देश के बड़े हिस्से में बाढ़ का कहर बरपा हुआ है और ज़्यादातर जगहों पर स्कूलों की इमारतें बाढ़ प्रभावितों के लिए शेल्टर के काम आ रहे हैं।
ऐसे में देश में शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन कर दिये गए। 34 साल बाद नए सिरे से देश में नयी शिक्षा नीति को दो दिन पहले कैबिनेट की मंजूरी मिल गयी है। 1986 में अमल में आयी शिक्षा नीति में कुछ संशोधन 1992 में किए गए थे जिसके आधार पर देश का शिक्षा तंत्र अब तक चल रहा था।
शिक्षा नीति 2020 अतीत से कुछ सीखती है?
सिर्फ़ यह कह देना काफ़ी नहीं है कि 34 सालों से देश की शिक्षा नीति बदली नहीं गयी इसलिए इसे बदला जाना बहुत ज़रूरी था। इस तर्क से तो बहुत सी नीतियों और क़ानूनों को सदियाँ बीत गईं इसलिए उन्हें तत्काल बदल देना चाहिए। राजद्रोह की धारा औपनिवेशिक है, भारतीय वन क़ानून 1927 भी औपनिवेशिक है। इन्हें इसी तर्क के सहारे बदलने की पहल कभी देखी नहीं गयी।
शिक्षा नीति में यह मौजूद नहीं है कि 1986 की शिक्षा नीति जो 1992 के संशोधनों के साथ देश में लागू थी उसमें क्या-क्या ख़राबियाँ थीं या किन विशेष पहलुओं को बदला जाना चाहिए था या जो लक्ष्य 1986 की शिक्षा नीति और 1992 में हुए संशोधनों से हासिल होने थे वो किस पैमाने तक हो पाये या यह मौजूदा शिक्षा नीति सिरे से अप्रासंगिक हो चुकी थी?
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो अभी तक अनुत्तरित हैं और नई शिक्षा नीति के वजूद में आ जाने के बाद इन सवालों की प्रासंगिकता भी ख़त्म हो जाएगी। इन सवालों पर गंभीर चर्चा की दरकार थी और जिसके लिए देश की संसद एक मुफीद जगह हो सकती थी लेकिन संसद का ‘सेलेक्टिव इस्तेमाल’ करने में माहिर इस सरकार ने इस मामले में चर्चा की ज़रूरत ही नहीं समझी।
इस मामले पर कुछ इशारे हमें बीजेपी के 2019 के आम चुनाव में शिक्षा नीति में बदलाव को अपने घोषणा पत्र (मेनिफेस्टो) में जगह देने से मिलते हैं हालाँकि तब भी किसी दस्तावेज़ या सार्वजनिक भाषण में इस बात के प्रमाण नहीं मिलते कि इस चली आ रही शिक्षा नीति से देश को क्या-क्या समस्याएँ हैं?
केंद्रीकरण
क्या यह शिक्षा और उसके बहुस्तरीय तंत्र को केंद्रीयकृत किए जाने की कोशिश है?
यह सवाल कई देश के कई शिक्षाविदों, राजनैतिक दलों ने उठाए हैं कि शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची का विषय है जिस पर राज्यों की राय को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
उच्च शिक्षा में बड़े पैमाने पर सांस्थानिक फेरबदल किए गए हैं जिनके पीछे भी कोई विशेष ठोस तर्क उपलब्ध दस्तावेज़ में नहीं मिलते। उच्च शिक्षा में यूजीसी, एआईसीटीई, एनसीटीई की जगह एक नियामक बनाने की मंशा इस संदेह को बल देती है कि इसका केन्द्रीकरण किया जा रहा है।
बेहतर होता कि संसद में इस नीति पर खुली चर्चा होती और ऐसी किसी सर्वोपरि रेग्युलेटरी अथॉरिटी बनाने की ज़रूरत पर भी बात होती।
शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता?
शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता को लेकर इस नीति में कुछ भी उत्साहजनक नहीं है बल्कि हर कोशिश है कि इन्हें नियंत्रित किया जाएगा। जिन प्रावधानों को हाइलाइट किया जा रहा है वो ऐसे प्रावधान हैं जिन्हें संस्थानों को स्वायत्तता देकर भी हासिल किया जा सकता है। मसलन, विद्यार्थियों को हर तरह के विषय मुहैया करना और उसके चयन को तरजीह देना। एक स्वायत्त विश्वविद्यालय अपने पाठ्यक्रम संचालित करने में स्वत: सक्षम हो सकते हैं।
यहाँ सरकार का अधिनायकवादी रवैया साफ़ दिखलाई पड़ता है और स्वायत्त संस्थानों के प्रति जो बीते 6 सालों में किया गया है उससे भी ये सबक साफ़ हैं कि यह इस सरकार को मंजूर नहीं है।
उपलब्ध दस्तावेज़ कहता है कि कॉलेजों को स्वायत्तता (ग्रेडेड ऑटोनामी) देकर 15 साल में विश्वविद्यालयों से संबद्धता की प्रक्रिया को पूरी तरह से ख़त्म कर दिया जाएगा। जिसका इशारा साफ़ है कि कॉलेजों को अपने लिए आर्थिक संसाधन जुटाने होंगे जो इनके निजीकरण की दिशा में एक बड़ी पहल साबित होगी।
राजनैतिक क़दम: प्रो. अपूर्वानंद
संस्थानों की स्वायत्तता के सवाल और इस नीति पर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. अपूर्वानन्द कहते हैं– यह शिक्षा नीति एक राजनैतिक क़दम के तौर पर देखी जा सकती है। शिक्षा समवर्ती सूची में है लेकिन यहाँ भी केन्द्रीकरण की कोशिश दिखलाई पड़ती है। चूँकि सरकार की कथनी और करनी में बड़ी खाई है इसलिए इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है कि अलग शिक्षा मंत्रालय बना देने से भी इस मंत्रालय की स्वायत्तता होगी। अभी 3 दिन पहले गृह मंत्रालय ने आदेश जारी किया है कि सभी जगहों पर लंबित परीक्षाएँ अनिवार्य रूप से होंगी। इसके अलावा उच्च शिक्षा की रेग्युलेटरी अथॉरिटी का इस्तेमाल कैसे होगा अभी कहना मुश्किल है।शिक्षा नीति के मौजूदा दस्तावेज़ में शिक्षा के मौलिक अधिकार को योजना में बदले जाने पर दिल्ली यूनिवर्सिटी की फैकल्टी ऑफ़ एजुकेशन से संबद्ध रहीं शिक्षाविद अनीता रामपाल की राय है,
‘इस उपलब्ध दस्तावेज़ में शिक्षा के अधिकार क़ानून को कोई तरजीह नहीं दी गयी है बल्कि इसे सीमित बताते हुए शिक्षा के मौलिक अधिकार को एक योजना की तर्ज़ पर यूनिवर्सलाइज़ेशन (सर्वव्यापीकरण) की बात की गयी है’।
पूरे दस्तावेज़ में शिक्षा के अधिकार क़ानून (RTE) की समीक्षा या इसके मुताबिक़ स्कूलों में अपर्याप्त संसाधनों को लेकर भी कोई ठोस बात नहीं है।
नीति के महत्वपूर्ण प्रावधान जैसे क्रेडिट या एक्ज़िट–एंट्री को लेकर अनीता जी मानती हैं कि ‘एक्ज़िट–एंट्री की नीति को एक अच्छे क़दम के तौर पर देखा जा सकता है लेकिन एक कल्याणकारी जनतंत्र की सरकार का ध्यान इस बात पर भी होना चाहिए कि कोई भी विद्यार्थी किन्हीं भी वजहों से अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ने को मजबूर न हो। विशेष रूप से आर्थिक कारणों से। यह दस्तावेज़ इस संबंध में आश्वस्त नहीं करता’।
शिक्षा नीति के राजनैतिक पहलू
देश में बड़े पैमाने पर शिक्षा और विशेष रूप से उच्च शिक्षा से बाहर रखे जाने (एक्सक्लूजन) की मंशा इस नीति में अंतर्निहित है। शिक्षा के मौलिक अधिकार को लेकर इस नीति का मुखर न होना भी इस शंका को बल देता है कि इसे लोगों की आय-वर्ग के आधार पर हैसियत के लिहाज से एक बाज़ार उत्पाद में बदलने की कोशिश करती है।
इसके अलावा जो सबसे ज़रूरी पहलू है कि सत्तासीन दल के मातृ संगठन यानी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसकी तमाम आनुषंगिक इकाइयों का रुझान हमेशा अपनी विचारधारा आधारित शिक्षा के प्रचार–प्रसार पर रहा है। शिक्षा चेतना के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए यह एक परखा हुआ हथियार रहा है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि आरएसएस के कितने ही आनुषांगिक संगठन सालों से देश के दूर-दराज़ के इलाक़ों में शिक्षा का काम करते आ रहे हैं। सरस्वती शिशु मंदिर, एकल विद्यालय, कल्याण आश्रम आदि-आदि इस काम में मुस्तैदी से लगे हैं। इसके अलावा विभिन्न गाँवों, कस्बों और शहरों में शाखाओं में 6-14 साल के बच्चों (मुख्यता लड़कों) को शामिल करने को लालायित रहे हैं।
आज अगर भाजपा पूर्ण बहुमत से सत्ता पर काबिज है तो उसके पीछे सालों से इन संगठनों द्वारा किया गया काम भी है। इनके पास शिक्षा का एक सुचिंतित और आजमायी हुई योजना है। उल्लेखनीय यह भी है कि आज भाजपा केवल संसदीय लोकतंत्र में ही बहुमत में नहीं है बल्कि देश की बहुसंख्यक आबादी के दिलो-दिमाग पर भी इनका कब्जा मुकम्मल हुआ है। सत्ता तक पहुँचने में अगर लोगों का मत हासिल किया है तो अपनी विचारधारा को सामाजिक स्वीकृति दिलवाने में इनके द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में किया गया सालों का काम ही है।
हालाँकि अभी पाठ्यचर्या और शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए पाठ्यचर्या का मसौदा सामने नहीं आया है लेकिन जिनमें बदलाव होना तय है उनके बारे में सहज ढंग से भी अनुमान लगाए जा सकते हैं कि पाठ्यचर्या में क्या-क्या बदलाव होंगे। इसकी एक पुख्ता झलक हाल ही में पाठ्यक्रम का बोझ कम करने के लिए विभिन्न कक्षाओं से हटाये गए उन अध्यायों को देखा जा सकता है जिनमें लोकतंत्र, संघवाद, सिटीज़नशिप, नेशनलिज़्म और सेक्युलरिज़्म, डेमोक्रेटिक राइट्स, स्ट्रक्चर ऑफ़ द इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन, डेमोक्रेसी एंड डाइवर्सिटी, कास्ट रिलिजन एंड जेंडर, चैलेंजेज टू डेमोक्रेसी, सोशल एंड न्यू सोशल मूवमेंट्स तथा लोकल गवर्नेंस जैसे गंभीर राजनैतिक चेतना विकसित करने जैसे अध्याय शामिल हैं। इस आशंका को अतिशयोक्ति नहीं माना जाएगा अगर यह कहा जाए कि इस शिक्षा नीति के आधार पर तैयार होने वाले पाठ्यक्रमों में से ये अध्याय हमेशा के लिए हटा दिये जाएँ।
इन्हें मनुष्य की चेतना को बदलना है और इसके लिए शिक्षा एक बेहद उपयोगी और ज़रूरी संसाधन है। यह अंतर्विरोध ही है कि जो शिक्षा को जनता का मानस खास दिशा में बदलने का ज़रूरी संसाधन की तरह देखते हैं वो मानव संसाधन मंत्रालय का नाम शिक्षा मंत्रालय कर रहे हैं।
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