आरसीईपी में शामिल न होने का फ़ैसला मोदी सरकार का अब तक का पहला (और इकलौता) फ़ैसला है जो चंद धन्नासेठों के ही नहीं, भारत की आम जनता, ख़ासतौर पर ग़रीबों और भारत के अपने दीर्घकालिक हितों में है।
लेकिन इसका श्रेय लेने की सरकार की हड़बड़ी बेढंगी है।
याद करना चाहिए कि अभी अक्टूबर तक सरकार और ख़ासतौर पर इसके व्यापार मंत्री पीयूष गोयल आरसीईपी में शामिल न होने पर भारत के वैश्विक रूप से अलग-थलग पड़ जाने का ख़तरा जता रहे थे, बैंकॉक में तैयारी बैठकों में शामिल हो रहे थे।
ख़ुद मोदी बैंकॉक में क्या कर रहे थे? राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष दोनों 'समझौतों पर हस्ताक्षर न करने के लिए' शिखर वार्ताओं में शामिल नहीं होते! कूटनीति पर उड़ती नज़र रखने वाले भी जानते हैं कि प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों का शिखर वार्ताओं में शामिल होना ऐसे अचानक नहीं होता जैसे शाम को बाज़ार से सब्जी लेकर लौट रहे हों तो सोचा ख़ान साहब या मिस्टर प्रसाद से मिल भी लें!
ऐसी शिखर वार्ताओं की महीनों- कई बार सालों लंबी तैयारी होती है। कैरियर डिप्लोमेट्स पूरी ज़मीन बनाते हैं- फिर मंत्री जी लोग जाते हैं।
बैंकॉक से कल दिन भर आये संकेत से साफ़ है कि भारतीय दल ने अंत समय तक अपनी माँगें मनवाने की कोशिश कीं। सो, इतना साफ़ है कि मोदी जी ने समूह में शामिल न होने का फ़ैसला गाँधी जी के ताबीज और अपनी अंतरात्मा दोनों ही वजहों से नहीं लिया है!
भारत ने यह फ़ैसला पहले से भयावह व्यापार असंतुलन से तबाह भारतीय अर्थव्यवस्था के सस्ते चीनी सामान, अन्य दक्षिण पूर्व एशियाई देशों और ऑस्ट्रेलिया व न्यूज़ीलैंड के उत्पादों से कूड़ादान बन जाने के डर से लिया है। भारत का आरसीईपी में शामिल अन्य 15 देशों के साथ व्यापार असंतुलन पहले ही 105 बिलियन यूएस डॉलर है।
दिलचस्प यह है कि आसियान सहित इन 16 देशों के साथ 2014 तक भारत का व्यापार असंतुलन कुल 54 बिलियन यूएस डॉलर था। यानी बीते 5 साल में यह असंतुलन दोगुना हुआ है, ‘मेक इन इंडिया’ के दावों के बीच। इसमें से अकेले चीन के साथ व्यापार असंतुलन 54 बिलियन यूएस डॉलर है। सनद रहे कि 2014 में चीन के साथ घाटा केवल 37.8 बिलियन यूएस डॉलर था- यानी चीनी झालर के बहिष्कार के आह्वानों के बीच चीन से आयात में क़रीब 42 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
2017 में हांगकांग का भारत से व्यापार असंतुलन 3.9 बिलियन यूएस डॉलर था। 2018 में ये आँकड़े उलट गए और हांगकांग 2.7 बिलियन यूएस डॉलर के फ़ायदे में आ गया।
2018 में भारत का चीन के साथ कम होकर 57.4 बिलियन यूएस डॉलर पर आ गया व्यापार असंतुलन। दरअसल, चीन और हांगकांग को जोड़ देने पर व्यापार घाटा 2017 के 55.4 बिलियन यूएस डॉलर से बढ़कर 2018 में 60.1 बिलियन यूएस डॉलर पर पहुँच गया।
दरअसल, यह वह चिंता थी जिससे भारत सरकार के हाथ-पाँव फूले हुए थे। छोटे किसान और दुग्ध उत्पादक न्यूज़ीलैंड के सस्ते और बहुत बेहतर दूध और अन्य दुग्ध उत्पादों के बाज़ार में पट जाने से डरे हुए थे।
भारत के इस तरह के पुराने समझौतों के अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं। सिर्फ़ आँकड़ों की नज़र से देखें तो भारत के वर्तमान में दुनिया के अन्य देशों से द्विपक्षीय और बहुपक्षीय समेत कुल 42 व्यापार समझौते हैं जिनमें वरीय व्यापार अनुबंध तक शामिल हैं। इनमें से 13 बाक़ायदा लागू हैं, 1 हस्ताक्षरित है पर लागू नहीं, 16 पर बातचीत चल रही है और 12 प्रस्तावित/अध्ययन में हैं। इनमें से ज़्यादातर एशियाई देशों के साथ ही हैं।
समझौतों से फ़ायदा हुआ या नुक़सान?
इनमें से सबसे महत्वपूर्ण समझौतों में से साउथ एशियन फ़्री ट्रेड एग्रीमेंट (साफ्टा), इंडिया आसियान कंप्रिहेंसिव इकोनॉमिक कोऑपरेशन एग्रीमेंट (सेसा) इंडिया कोरियन कंप्रिहेंसिव इकोनॉमिक कोऑपरेशन एग्रीमेंट (सेपा) और इंडिया जापान सेपा।
इनमें से ख़ुद सेसा का अनुभव देखें जिसमें आरसीईपी के 15 देशों में से आसियान वाले सारे 10 देश शामिल हैं तो इसके बाद भारत का आसियान देशों से व्यापार अंसतुलन क़रीब तीन गुणा बढ़ गया है। 1 जनवरी 2010 को लागू हुए इस समझौते के बाद दोनों पक्षों (आसियान के 10 देशों) और भारत के बीच पारस्परिक व्यापार 2010 में 43 बिलियन यूएस डॉलर से दोगुने से भी ज़्यादा होकर 2019 में 97 बिलियन यूएस डॉलर तक पहुँच गया। यहाँ तक ठीक है। पर इसी समय में भारत का आसियान देशों से व्यापार अंसतुलन 3 गुना बढ़ गया और 2010 में 8 बिलियन यूएस डॉलर से बढ़कर यह 2019 में 22 बिलियन यूएस डॉलर पर पहुँच गया। इंडिया कोरिया सेपा का अनुभव भी यही है- 1 जनवरी 2010 को लागू हुए इस समझौते के बाद भारत का कोरिया से भी व्यापार घाटा 5 बिलियन यूएस डॉलर से बढ़कर 2019 में 12 बिलियन यूएस डॉलर पहुँच गया। जापान सेपा का अनुभव भी यही है।
क्यों बढ़ रहा है व्यापार घाटा?
व्यापार अंसुतलन की यूँ तो तमाम वजहें हैं- ढांचागत कमज़ोरियाँ जिनमें खेत/बागान/कारखाने से लेकर निर्यात की जगह तक आपूर्ति श्रृंखला की कमज़ोरियाँ शामिल हैं; क्वालिटी कंट्रोल की वजह से अंतिम उत्पाद की गुणवत्ता, तमाम देशों द्वारा घरेलू निर्यात सब्सिडी देना आदि, लेकिन बीते 5 सालों में इनमें एक और कारण जुड़ा है- नीतिगत दुस्साहस और सामाजिक स्थिरता। नोटबंदी और जीएसटी जैसे निर्णयों के साथ-साथ भारत में बढ़ती घरेलू हिंसा ने व्यापार और वाणिज्य के लिए स्थिति मुश्किल ही बनाई है और उसका असर हमारे निर्यात में दिख रहा है।
उदाहरण के लिए सेसा के बाद भारतीय रबर उत्पादक इंडोनेशिया और विएतनाम से आ रहे सस्ते रबर से तबाह हुए, तो उधर धातु आयात पर टैक्स की कमी के बाद उसका आयात भी तेज़ी से बढ़ा।
आरसीईपी पर विरोध क्यों?
यह वह चिंताएँ थीं जिनके चलते पूरे देश में आरसीईपी विरोधी आंदोलन चल रहे थे जिनमें मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषांगिक संगठन जैसे- स्वदेशी जागरण मंच भी जुड़े हुए थे। इन आंदोलन के तीखे सवाल भी थे, जैसे- आरसीईपी के बाद सरकार डंपिंग कैसे रोकेगी? इस समझौते की पृष्ठभूमि में मेक इन इंडिया तक के बुरी तरह से असफल होने के खुलते हुए तथ्य सरकार के लिए परेशान करने वाले थे।
सरकार के पास व्यापार मंत्री पीयूष गोयल की अंतिम मंत्री स्तर की बैठकों में भागीदारी के बावजूद कुछ उत्पादों पर एक निश्चित सीमा के बाद 'ऑटो ट्रिगर' जारी कर उनका आयात रोकने जैसे कॉस्मेटिक तरीक़ों से ज़्यादा कुछ भी नहीं था। लेकिन विशेषज्ञ बता रहे थे कि 100- 200 उत्पादों पर ऑटो ट्रिगर से कुछ नहीं होना।
सो बात साफ़ है। न मोदी जी बैंकॉक में किसी फॉरेन टूर के लिए थे, न ही उन्हें इस समझौते से गाँधी जी के ताबीज या उनकी ख़ुद की अंतरात्मा ने रोका। उन्हें रोका घरेलू विरोध के बावजूद अन्य आरसीईपी देशों को अपनी चिंताओं पर सहमत न कर पाने ने।
शुक्र है कि सरकार ने एक अच्छा फ़ैसला लिया है। पर इस मुद्दे से जुड़े सभी पक्षों को नज़र खुली रखनी होगी, सतर्क रहना पड़ेगा। आरसीईपी पर अंतिम हस्ताक्षर 2020 से शुरू होने हैं और चीन से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक सभी भारत के लिए दरवाज़े खुले रखने पर सहमत ही नहीं मुखर भी हैं। वह हो, पर हमारे किसानों और व्यापारियों की क़ीमत पर नहीं।
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