भारत-चीन तनाव खत्म होने के संकेत मिलने लगे हैं। अभी दोनों तरफ की सेनाओं ने पीछे हटना शुरू नहीं किया है लेकिन दोनों इस बात पर सहमत हो गई हैं कि मार्च-अप्रैल में वे जहां थीं, वहीं वापस चली जाएंगी। उनका वापस जाना भी आज-कल में ही शुरू होने वाला है। तीन दिन में 30-30 प्रतिशत सैनिक हटेंगे। जितने उनके हटेंगे, उतने ही हमारे भी हटेंगे। उन्होंने पिछले चार-छह माह में लद्दाख सीमांत पर हजारों नए सैनिक डटा दिए हैं।
चीन ने तोपों, टैंकों और जहाजों का भी इंतजाम कर लिया है लेकिन चीनी फौजियों को लद्दाख की ठंड ने परेशान करके रख दिया है। 15000 फुट की ऊंचाई पर महीनों तक टिके रहना खतरे से खाली नहीं है। भारतीय फौजी तो पहले से ही ऐसे मौसम के अभ्यस्त हैं।
कई दौर की बातचीत हुई
आठ बार के लंबे संवाद के बाद दोनों तरफ के जनरलों के बीच यह जो सहमति बनी है, उसके पीछे दो बड़े कारण और भी हैं। एक तो चीनी कंपनियों पर लगे भारतीय प्रतिबंधों और व्यापारिक बहिष्कार ने चीनी सरकार पर पीछे हटने के लिए दबाव बनाया है।
दूसरा, ट्रंप प्रशासन ने चीन से चल रहे अपने झगड़े के कारण उसे भारत पर हमलावर कहकर सारी दुनिया में बदनाम कर दिया है। अब अमेरिका के नए बाइडन-प्रशासन से तनाव कम करने में यह तथ्य चीन की मदद करेगा कि भारत से उसका समझौता हो गया है।
लद्दाख की एक मुठभेड़ में हमारे 20 जवान और चीन के भी कुछ सैनिक ज़रूर मारे गए लेकिन यह घटना स्थानीय और तात्कालिक बनकर रह गई। दोनों सेनाओं में युद्ध-जैसी स्थिति नहीं बनी, हालांकि हमारे अनाड़ी टीवी चैनल और चीन का फूहड़ अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ इसकी बहुत कोशिश करता रहा लेकिन मैं भारत और चीन के नेताओं की इस मामले में सराहना करना चाहता हूं। उन्होंने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ नाम लेकर कोई आपत्तिजनक या भड़काऊ बयान नहीं दिए।
नेताओं ने दिखाया संयम
हमारे प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री ने चीनी अतिक्रमण पर अपना क्रोध ज़रूर व्यक्त किया लेकिन कभी चीन का नाम तक नहीं लिया। चीन के नेताओं ने भी भारत के गुस्से पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की। दोनों देशों की जनता चाहे ऊपरी प्रचार की फिसलपट्टी पर फिसलती रही हो, लेकिन दोनों देशों के नेताओं के संयम को ही इस समझौते का श्रेय मिलना चाहिए।
सतर्क रहना ज़रूरी
सच्चाई तो यह है कि भारत और चीन मिलकर काम करें तो इक्कीसवीं सदी निश्चित रूप से एशियाई सदी बन सकती है। इसका अर्थ यह नहीं कि भारत चीन से बेखबर हो जाए। दोनों देशों के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा ज़रूर चलती रहेगी लेकिन वह प्रतिशोध और प्रतिहिंसा का रूप न ले ले, यह देखना ज़रूरी है।
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