पिछले कुछ दिनों से जब किसी जानने वाले का फ़ोन आता है तो डर लगने लगता है। न जाने कौन सी मनहूस ख़बर आ जाए। इतना डर, इतना ख़ौफ़ पहले कभी नहीं देखा। हर तरफ़ मायूसी और उदासी। बेबसी और विवशता का आलम यह है कि न किसी से कुछ कहते बनता है और न ही यह यक़ीन होता है कि कुछ कहने से कुछ हो पाएगा।
ये हालात बने क्यों? पिछले साल जब जनवरी फ़रवरी में कोरोना आया था, तभी से विशेषज्ञ कह रहे थे कि कोरोना की दूसरी लहर आएगी। दूसरी लहर पहले से अधिक ख़तरनाक होगी। दूसरी के बाद तीसरी और चौथी लहर भी आएगी। जब 24 मार्च को रात आठ बजे लॉकडाउन का ऐलान प्रधानमंत्री ने किया था तब भी डर और दहशत का ऐसा ही मंजर था। लोग घरों में दुबके थे। एक पूरी पीढ़ी पहली बार महामारी को देख रही थी। पूरी दुनिया ही इस हादसे से दो-चार हो रही थी। इटली हो या स्पेन या फिर जर्मनी और अमेरिका, हालात हर जगह ख़राब थे। भारत तो एक पिछड़ा हुआ मुल्क था, स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत बहुत ख़राब थी, ऐसे में लॉकडाउन एक मात्र सहारा था।
लॉकडाउन समस्या का समाधान नहीं है, ये हमें तब भी विशेषज्ञों ने बताया था। बस कोरोना को रोकने का एक अंकुश है। लॉकडाउन के बहाने स्वास्थ्य तंत्र को चुस्त करने का। पहले से बहुत बेहतर करने का। पर हुआ क्या?
पिछले एक साल में जिन सरकारों पर ज़िम्मेदारी थी उन्होंने किया क्या? क्या मार्च 2020 से अब तक अस्पतालों की संख्या बढ़ी, अस्पतालों में कोरोना बेड बढ़े, डॉक्टर-नर्स बढ़े, ऑक्सीजन की सप्लाई बढ़ायी गयी, आईसीयू के इंतज़ाम हुए कि किसी आपात स्थिति से निपटा जाए, वेंटीलेटर ख़रीदे गए, एम्बुलेंस की रफ़्तार बढ़ी, कोरोना की दवाओं की आमद में इज़ाफ़ा हुआ, और वैक्सीन लगाने में तेज़ी दिखायी गयी? इन सबका जवाब एक ही है। नहीं। सितंबर के बाद से कोरोना की संख्या में जैसे-जैसे कमी आती गयी, यह मान लिया गया कि कोरोना ख़त्म हो गया। ज़िंदगी पुराने ढर्रे पर चलने लगी। लोगों ने मास्क लगाना बंद कर दिया। सड़कों, बाज़ारों, हाट, माल्स में भीड़ बढ़ने लगी। सोशल डिस्टेंसिंग को धता बता दिया गया। लोग लापरवाह हो गये क्योंकि जिन्हें सबको टाइट करना था वो ख़ुद चुनाव जीतने में लग गए। लोग मरे तो मरे, उनकी बला से। चुनाव करवाना, रैली करना, रोड शो करना ज़रूरी हो गया।
एकाध नेता को छोड़ दें तो किसी ने कोरोना प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया। यहाँ तक कि देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री तक ने यह ज़हमत नहीं उठायी कि चुनावी सभाओं में शिरकत करते समय मास्क लगाएँ, रैलियों में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करवाएँ। रोड शो और रैलियों में भीड़ इकट्ठा करना सबसे ज़रूरी काम हो गया। लोग बिना मास्क लगाए, एक दूसरे से सटे बैठे और चलते दिखायी दिए। किसी नेता ने नहीं कहा कि नियमों का पालन हो। और जब देश के गृह मंत्री से सवाल पूछा गया कि क्या रैलियों से कोरोना नहीं बढ़ेगा तो अमित शाह ने जवाब दिया ये आरोप ग़लत हैं। महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा कोरोना फैला, वहाँ तो कोई चुनाव नहीं था। इस तर्क का कोई जवाब नहीं हो सकता। क्या अमित शाह को यह नहीं पता है कि कोरोना प्रोटोकॉल के तहत मास्क लगाना, सोशल डिस्टेंसिंग करना अनिवार्य है? लेकिन अपनी ग़लती वो क्यों मानें?
चुनाव आयोग की यह ज़िम्मेदारी है कि वो नेताओं, पार्टियों से कोरोना प्रोटोकॉल को लागू करवाये, लेकिन क्या आपने देखा कि उसने कोई क़दम उठाया? वो हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। प्रतिदिन दो लाख कोरोना केस आने लगे, फिर भी वो चुप तमाशा देखता रहा।
कोलकाता हाईकोर्ट को दखल देना पड़ा। तब भी सिर्फ़ सर्वदलीय बैठक हुई। इतना कमज़ोर, असहाय चुनाव आयोग मैंने अपनी ज़िंदगी में नहीं देखा। उसकी ज़िम्मेदारी थी कोरोना प्रोटोकॉल को लागू करवाना। चुनाव आयोग को यह नहीं पता था कि जितना लंबा चुनाव खिंचेगा, उतना ही कोरोना का ख़तरा बढ़ेगा? तमिलनाडु, केरल, पुडुचेरी के साथ और असम-बंगाल के एक-एक चरण के चुनाव हो सकते हैं पर बंगाल के चुनाव को आठ चरणों में करवाया जाता है। असम में 126 सीटें हैं पर तीन चरणों में मतदान हुआ। बिना किसी कारण के। किसके इशारे पर? इन दोनों राज्यों में बीजेपी की क़िस्मत दांव पर लगी है।
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ऐसे में ये सवाल क्यों न उठे कि बीजेपी को लाभ पहुँचाने के लिए उसने एक दिन की जगह चरणों में चुनाव करवाए। सवाल यह उठता है कि आम आदमी की जान बड़ी है या चुनाव? क्या ये चुनाव टाले नहीं जा सकते थे? और अगर संवैधानिक रूप से करवाना ज़रूरी था तो वर्चुअल रैलियाँ करवायी जातीं? अगर प्रचार का तरीक़ा सभी दलों और उम्मीदवारों के लिये एक समान होता यानी लेवल-प्लेइंग-फ़ील्ड सबके लिए समान होता तो किसी को आपत्ति क्यों होती। जब पदों पर बैठे लोगों को सत्ता को उपकृत करना हो तो फिर इंसान की जान की क़ीमत सस्ती हो जाती है!
शायद यह देश अभिशप्त है। अभिशप्त है नेताओं की ग़ुलामी करने के लिए। जिन पर कोरोना फैलाने के लिए आपराधिक मुक़दमा दर्ज होना चाहिये, हम भारतीय उनपर फूल बरसाते हैं। हम ये सवाल नहीं पूछते कि पिछले एक साल में कोरोना से निपटने के लिए क्या क़दम उठाये गये?
हम यह नहीं पूछते कि जब 162 ऑक्सीजन के प्लांट लगाना तय हो गया तो फिर आठ महीने तक सरकार ने ऑर्डर क्यों नहीं दिया? ये किस मंत्री और अफ़सर की ग़लती है? अभी तक बस 32 ऑक्सीजन प्लांट ही बन पाये हैं। 47 मई के अंत तक बन जायेंगे, ऐसा सरकार का दावा है। बाक़ी के कब तक बनेंगे किसी को नहीं मालूम है। कोरोना की दूसरी लहर में ज़्यादातर लोगों की मौत ऑक्सीजन की कमी से हो रही है। अगर 162 ऑक्सीजन प्लांट बन गये होते तो ये मौतें नहीं होतीं। क्यों न उन मंत्रियों और अफ़सरों के ख़िलाफ़ हत्या का मुक़दमा दर्ज हो जिनकी वजह से अब तक प्लांट नहीं बने? ये मंत्री और अफ़सर पहले की तरह ही बेशर्मी से रौब झाड़ते मिलेंगे, नये बड़े पदों पर सुशोभित और जनता की बेवक़ूफ़ी पर अट्टहास लगाते हुए।
क्या ये सवाल नहीं पूछेंगे कि जिस देश की आबादी 135 करोड़ है, हर शख़्स को वैक्सीन देनी है, तो 6 करोड़ वैक्सीन निर्यात क्यों किए गए? दो हफ़्ते पहले तक रेमडेसिविर दवा का एक्सपोर्ट क्यों होता रहा? और आज जब देश में वैक्सीन की कमी है, रेमडेसिविर की कालाबाज़ारी हो रही है तो कौन ज़िम्मेदार है? ये वही लोग हैं जो पिछले साल 26 मार्च तक वेंटिलेटर के पार्ट्स का निर्यात होने दे रहे थे। तब तक देश में लॉकडाउन लग चुका था और लोग शहरों को छोड़ पलायन करने लगे थे। आज भी वही वी के पाल कोरोना टास्क फ़ोर्स के चेयरमैन हैं जिन्होंने 22 अप्रैल 2020 को प्रेस कांफ्रेंस कर कहा था कि 16 मई से देश में कोरोना का एक भी नया केस नहीं आयेगा और अजीब इत्तिफ़ाक़ देखिए कि 16 मई से ही कोरोना के मामलों में उछाल दिखा जो सितंबर महीने में 97 हज़ार तक जा पहुँचा। आज यह आँकड़ा पौने तीन लाख के आसपास है। क्या पाल को अपने पद पर बने रहने का हक़ है?
प्रधानमंत्री तो तब बनारस में कह रहे थे कि महाभारत जीतने में 18 दिन लगे थे, हमें 21 दिन दे दो। कोई उनसे पूछेगा और कितने 21 दिन चाहिये?
शायद इस देश की जनता को ऐसे ही शासक चाहिए। जो जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर बरगलाते रहे। और अपना उल्लू साधते रहे। जो जनता यह सवाल नहीं पूछती कि पिछले पाँच सालों में कितने रोज़गार दिए गए, कितनों की ग़रीबी दूर हुई, कितने नये स्कूल खोले गए, कितने अस्पताल बने, सड़कें बनीं, तरक़्क़ी के नये अवसर पैदा हुए, ग़रीबों को रहने के मकान बने, तन पर नये कपड़े आये या नहीं, जो लॉकडाउन के बाद सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने के बाद भी उन्हीं को वोट देती है, जिनकी वजह से वो उजड़े तो फिर उम्मीद कहाँ दिखती है। वो जनता तो अभिशप्त होगी ही जो चुनाव में महज़ इस बात पर वोट देती है कि कौन मुसलमानों को ठीक कर सकता है। वो पढ़े लिखे लोग जिनसे उम्मीद की जाती है कि वो समझबूझ कर अपना प्रतिनिधि चुनेंगे वो अपने वाट्सऐप ग्रुप में दूसरे धर्मों और जातियों ख़िलाफ़ नफ़रत का व्यापार करते हों तो फिर दोष किसे दें?
हमें पूरा यक़ीन है यह मंज़र भी गुज़र जायेगा। कुछ दिन रो-धो कर फिर ज़िंदगी ढर्रे पर चलने लगेगी। कोरोना को भूलकर जाति और धर्म के बुनियादी सवालों पर हम फिर लौट आएँगे। धर्म के आधार एक दूसरे से फिर नफ़रत करने लगेंगे। और उन्हीं को फिर सत्ता में बिठायेंगे जो सबसे अधिक नफ़रत का ज़हर बोएगा। जो ज़हर की सबसे बड़ी फ़सल काटेगा।
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