भक्ति तर्क और तथ्य से परे होती है। भक्ति में डूबकर लिखे गए किसी भी आख्यान या मान्यता को तथ्यों की कसौटी में नहीं कसा जा सकता। जब कोई कहता है कि ‘मेरी ऐसी मान्यता है’, तो बात वहीं ख़त्म हो जाती है। दुनिया के सभी धर्म सिर्फ़ मान्यता की बुनियाद पर टिके हुए हैं। मान्यता है कि ईसा मसीह का जन्म कुँवारी मरियम के गर्भ से हुआ था। मान्यता है कि इस्लाम के पैग़म्बर मोहम्मद बुर्राक घोड़े पर सवार होकर सात आसमानों के पार अल्लाह से मिलने गए। मान्यता है कि क़यामत के रोज़ सब मुर्दे अपनी-अपनी क़ब्रों से उठ खड़े होंगे और अल्लाह उनका हिसाब-किताब करेगा। मान्यता है कि हज़रत मूसा ने समंदर को फाड़कर रास्ता बना दिया था। मान्यता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की, विष्णु ने उसे सजाया-सँवारा और शिव उसका संहार करेंगे। मान्यता है कि भगवान राम का जन्म अयोध्या नगरी में ठीक उस जगह पर हुआ था जहाँ बाबर के सिपहसालार मीर बाक़ी ने 1528 में बाबरी मस्जिद बनाई। इन मान्यताओं को चुनौती कैसे दी जा सकती है? आप ऐतिहासिक तथ्यों पर विवाद कर सकते हैं। नए तथ्य प्रस्तुत कर सकते हैं। वैज्ञानिक अवधारणाओं को झुठला सकते हैं। पर भक्ति रस में डूबे किसी व्यक्ति के विश्वास को तर्क की कसौटी पर कैसे कसेंगे?
पत्रकार हेमंत शर्मा की किताब ‘राम फिर लौटे’ विश्वास और भक्ति के ऐसे ही रस में डूबकर लिखी गई है। इसके लोकार्पण का समय बहुत महत्वपूर्ण है। अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा से लगभग एक महीना पहले दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद के पदाधिकारियों की मौजूदगी में इसका लोकार्पण किया गया। किताब का शीर्षक संघ परिवार और उसके समर्थकों के इस दावे पर मुहर लगाता है कि पूरे 500 बरस बाद राम अयोध्या लौटे हैं। भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों ने प्राण प्रतिष्ठा के आसपास गाना शुरू कर दिया था – जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएँगे – दुनिया में फिर से हम भगवा लहराएँगे!
पर राम गए कहाँ गए थे और उन्हें लौटा कर कौन लाया है? इस सवाल का जवाब कई बार प्रकट तो कई बार संकेतों में दिया जाता है कि 1528 ईसवी में राम को एक बार फिर से अयोध्या छोड़कर जाना पड़ा था और अब 500 बरस बाद इस युग के हिंदू हृदय सम्राट ने उन्हें वापिस लाकर अयोध्या में उनके विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा की है। इसलिए हिंदुत्व का गायक सीधे वोटरों से अपील करता है – जो राम को लाए हैं, हम उनको (सत्ता में) लाएँगे। इसके प्रकाश में किताब के शीर्षक ‘राम फिर लौटे’ का निहितार्थ पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है।
हेमंत शर्मा को राम के ‘लौटने’ पर किताब लिखने की प्रेरणा दो दिशाओं से मिली – पहली किसी ‘अदृश्य दैवीय शक्ति’ से और दूसरी विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्याध्यक्ष आलोक कुमार से। ‘राम फिर लौटे’ किताब विश्व हिंदू परिषद के कहने पर लिखी गई है – ये जानकारी ख़ुद विहिप के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष आलोक कुमार ने पुस्तक के विमोचन के दौरान दी थी। इसी अवसर पर हेमंत शर्मा ने भी बताया था –
“रात में सोचते-सोचते मुझे लगा कि किसी ने मुझसे कहा, ‘तुम लिखो। तुम लिख सकते हो। मैंने तुम्हें इस आंदोलन का चश्मदीद बनाया है। तुम सिर्फ़ लेखकीय कर्म का निर्वाह करो, कर्त्ता तो मैं ही हूँ’।”
अयोध्या और राम जन्मभूमि के मामले में हेमंत की पत्रकारिता और भक्तिभाव एकाधिक बार एकमेक हो जाता है।
राम की सत्ता का विस्तार अखिल विश्व में था – इसके सबूत के तौर पर हेमंत ने रामकथा से प्रभावित तमाम आख्यानों का ज़िक्र अपनी किताब में किया है। इसमें कोई शक नहीं कि रामकथा का विस्तार जावा-सुमात्रा से लेकर वियतनाम और कंबोडिया तक है। राम अब भी उन संस्कृतियों का हिस्सा हैं। लेकिन समस्या तब होती है जब कई बार तमाम क़िस्से कहानियों को भी रामकथा के विश्वव्यापी विस्तार के सबूत के तौर पर पेश किया जाता है। इन क़िस्सों को पेशेवर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकार ऐसी बतकही से ज़्यादा और कुछ नहीं मानते हैं, जिसे किसी ठोस वैज्ञानिक खोज या अध्ययन के आधार पर साबित नहीं किया जा सका है। मसलन, ये कहना कि ‘इटली में पाँचवीं शताब्दी ईसापूर्व रामायण से मिलते-जुलते चित्र दीवारों पर मिले हैं। इटली में मिले इन चित्रों में राम, लक्ष्मण, सीता का वनगमन, सीताहरण, लव-कुश द्वारा घोड़ा पकड़ना, हनुमान का संजीवनी लाना आदि प्रमुख हैं।’ या दक्षिण अमेरिका में होंडुरास के घने जंगलों में ‘हनुमान जी की प्रतिमा’ का पाया जाना आदि। ऐसी सामग्री से इंटरनेट भरा हुआ है। गूगल सर्च करेंगे तो कई लेख मिल जाएँगे जिनमें कहा गया है कि मक्का में हरम शरीफ़ में रखा गया काला पत्थर वास्तव में शिवलिंग है। ऐसा इशारा करने वालों में हिंदुत्व के समर्थक फ़्रांसीसी पत्रकार और लेखक फ़्रांसुआ गोतिये भी शामिल हैं। उन्होंने 16 जनवरी 2017 को ट्विटर पर एक वीडियो शेयर किया जिसमें कई लोग एक लिंगाकार पत्थर को चूमते और हाथों से छूते नज़र आते हैं। गोतिये ने लिखा –
“कई बार सुना है कि मक्का के काबा का पत्थर प्राचीन शिवलिंग है। सोशल मीडिया पर पहली दफ़ा पोस्ट किया गया ये वीडियो इस बात को सिद्ध कर सकता है या नहीं कर सकता है।”
उन्होंने वाक़ई लिखा है कि “दिस वीडियो मे और मे नॉट प्रूव इट।” क्या ऐसी कपोल कल्पनाओं को अकाट्य सत्य की तरह प्रस्तुत किया जा सकता है?
सबसे कमाल की बात तो ये है कि लेखक ने उस विवादास्पद ‘तुलसी दोहा शतक’ को भी किताब में शामिल कर लिया है जिसकी प्रामाणिकता पर नामवर सिंह जैसे हिंदी के नामी आलोचक और दुर्धर्ष विद्वान तक ने शक जताया था। अदालतों में मंदिर-मस्जिद विवाद की जिरह के दौरान मुस्लिम पक्ष की ओर से ये बार बार कहा जाता था कि अगर मुग़लों ने राम मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाई तो गोस्वामी तुलसीदास जैसे भक्त-कवि ने इस पर कुछ क्यों नहीं कहा? उन्होंने तो लिखा: माँग के खइबो, मसीत को सोइबो – लैबे को एकु न दैबे को दोऊ (यानी भिक्षावृत्ति करके खाता हूँ और मस्जिद में सो रहता हूँ – किसी से लेना एक न देना दो)। अगर उनके जीवनकाल में राम जन्मभूमि मंदिर का ध्वंस होता तो तुलसीदास इस पर ज़रूर लिखते।
इस दलील को चित्त करने की गरज से चित्रकूट की तुलसी पीठ के प्रमुख रामभद्राचार्य 2003 में एक अजब ‘सबूत’ लेकर अदालत गए। उन्होंने हलफ़नामा देकर दावा किया कि तुलसीदास ने राममंदिर ध्वंस के बारे में ‘तुलसी दोहा शतक’ में सबकुछ लिख दिया है। मगर जो दोहे अदालत में पेश किए गए वो तुलसी की श्रेष्ठ कविता की ध्वनि और मुहावरे से किसी भी सूरत मेल नहीं खाते।
राम जन्म मंदिर महिं मंदिरहिं, तोरि मसीत बनाय I
जबहि बहु हिंदुन हते, तुलसी कीन्ही काय II
दल्यो मीर बाकी अवध, मंदिर राम समाज I
तुलसी रोवत हृदय अति, त्राहि त्राहि रघुराज II
राम जन्म मंदिर जहँ, लसत अवध के बीच I
तुलसी रची मसीत तहँ, मीर बाकी खल नीच II
हेमंत शर्मा ने अपनी पुस्तक में रामभद्राचार्य के हलफ़नामे में दिए गए ये दोहे छाप दिए हैं, साथ ही टिप्पणी भी लिखी है: “तुलसी ने जो लिखा, लगता है, उनका आँखों देखा हाल है। तब न बाबरी एक्शन कमेटी थी, न रामजन्मभूमि न्यास। तुलसीदास ने जो देखा, वही लिखा। हिंदी के कुछ वामपंथी आलोचक तुलसीदास के इस दोहा शतक की प्रामाणिकता पर सवाल खड़े करते हैं। पर हाईकोर्ट ने ‘दोहा शतक’ को संज्ञान में लिया, इसलिए हम इसका यहाँ ज़िक्र कर रहे हैं।” यानी हेमंत ने मान लिया है कि ये दोहे तुलसीदास ने ही लिखे होंगे, और जो देखा वही लिखा।
ये कौन ‘वामपंथी आलोचक’ हैं जिन्होंने रामभद्राचार्य के ‘दोहा शतक’ की प्रामाणिकता पर संदेह प्रकट किया है? हेमंत ने इस पुस्तक में किसी का नाम नहीं लिखा है लेकिन‘तुलसी दोहा शतक’ को पूरी तरह अप्रामाणिक मानकर ख़ारिज करने वाले सबसे बड़े हिंदी के आलोचक नामवर सिंह थे। उन्हीं नामवर सिंह ने हेमंत शर्मा की ‘युद्ध पर अयोध्या’ और ‘अयोध्या का चश्मदीद’ की तारीफ़ करते हुए कहा कि ‘तुलसीदास के 500 बरस बाद किसी काशीवासी ने अयोध्या पर ऐसी रचनाएँ लिखी हैं’। हेमंत ने इसी विवादास्पद और मशकूक ‘तुलसी दोहा शतक’ को राममंदिर ध्वंस के सबूत के तौर पर लगभग स्वीकार कर लिया है। लेकिन ये आमफ़हम बात है कि सबसे प्रामाणिक तुलसी साहित्य या तो गीताप्रेस, गोरखपुर ने प्रकाशित किया है या नागरी प्रचारिणी सभा ने। इन दोनों ने ही ‘तुलसी दोहा शतक’ को प्रकाशित नहीं किया है। प्रसंगवश, मोदी सरकार ने रामभद्राचार्य को 2015 में देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मभूषण से विभूषित किया है, और हाल ही में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार भी दे दिया गया है।
फिर भी ‘राम फिर लौटे’ पुस्तक को अगर किसी एक चश्मे से पढ़ा गया तो लेखक के साथ ज़्यादती होगी। किताब के कई पहलू हैं।
पहला है भाषागत यानी लेखकीय पहलू, फिर अध्ययन और शोध का पहलू, तीसरा दार्शनिक और अंतिम है राजनीतिक पक्ष। इनमें सबसे मज़बूत है लेखकीय पक्ष। बरसों तक टेलीविज़न की पत्रकारिता करने के बावजूद हेमंत अपनी भाषा की जीवंतता बचाकर रखने में सफल हुए हैं। उनकी भाषा टकसाली नहीं हुई है। वो जिस तरह भाषा को बरतते हैं वह सुग्राह्य और समझ में आने वाली है लेकिन हिंग्लिश जैसी भ्रष्ट नहीं है। उसमें पाठक को बाँध कर रखने वाला प्रवाह है। हेमंत अपनी भाषा को ऐसे बरतते हैं जैसे फागुन की हवा में आम के बौर और नई पत्तियाँ नैसर्गिक रूप से डोलते रहते हैं। उसमें चमत्कार पैदा करने का भाव नहीं है। भाषा का यही नैसर्गिक स्वरूप उनकी दूसरी किताबों में भी नज़र आता है। भाषा की ताज़गी, उत्कृष्ट कलापक्ष और बेहतरीन कलेवर के कारण ये पुस्तक पठनीय बनी रहती है।
किताब की दूसरी ख़ूबी है कि भारतीय राजनीति कि दशा-दिशा बदल देने वाले रामजन्मभूमि आंदोलन से जुड़े हर महत्वपूर्ण व्यक्ति, तारीख़ और क़ानूनी व पुरातात्विक तथ्यों की लगभग सभी जानकारियाँ इसमें एक जगह मिल जाती हैं। ऐसे काम को करने के लिए सिर्फ़ ‘चश्मदीद’ होना ही काफ़ी नहीं था बल्कि विषय का गहरा अध्ययन भी ज़रूरी था। हेमंत इसमें सफल हुए हैं। उन्होंने अथर्ववेद और स्कंदपुराण से लेकर कालिदास, ह्वेनसांग और कई दूसरे प्राचीन अध्येताओं के हवाले से अयोध्या और राम के होने का अर्थ समझाया है। पुस्तक के दूसरे अध्याय में राम के चरित्र की दार्शनिक व्याख्या की गई है और बताया गया है कि राम क्यों भारतीयों के मानस में इतना गहरे पैठे। राम ने कोई चमत्कार नहीं दिखाया। उन्होंने एक सामान्य मनुष्य की तरह सुख, दुख, विरह, पितृशोक आदि का अनुभव किया। उनके पास शिव और कृष्ण जैसे चमत्कार नहीं थे। फिर भी वो पुरुषोत्तम कहलाए। राम के चरित्र के विभिन्न आयामों के बारे में जितने विस्तार से इस पुस्तक में लिखा गया है वो वाल्मीकि रामायण, रामचरित मानस, महाभारत और दूसरे पौराणिक ग्रंथों के गहन अध्ययन के बिना संभव नहीं है। विभिन्न युगों में राम को किस रूप में पूजा गया, उन पर क्या लिखा गया इसका उल्लेख भी इस किताब में है: कालिदास का रघुवंश, भट्टि का भट्टिकाव्यम्, शाकल्यमल्ल का उदारराघव, अध्यात्म रामायण, आनंद रामायण, क्षेमेंद्र का दशावतारचरित, कुमारदास का जानकीहरण, प्रतिमाननाटकम्, अभिषेकनाटकम्, उदात्तराघव, अनर्घराघव, भवभूति के महावीरचरितम् आदि न जाने कितने महाकाव्यों और ग्रंथों का हवाला इस किताब में दिया गया है।
राम की सेना का सामाजिक वर्गों के आधार पर विश्लेषण करते हुए उसे प्राणिमात्र की एकता का सबूत कहा गया है। “हनुमान, सुग्रीव, नल, नील, जामवंत ये सब बंदर, रीछ, भालू नहीं थे; ये अलग-अलग इलाक़ों की जनजातियाँ थीं। राम ने सबको इकट्ठा किया। इनकी एकता की ताक़त से रावण को परास्त किया।” दूसरी ओर राम की अयोध्या से जैन, बौद्ध और सिख धर्मों का गहरा संबंध बताया गया है। इन सभी धर्मों के प्रवर्तक या दार्शनिक किसी न किसी समय पर अयोध्या में रहे या वहाँ की यात्रा की। ऐसा करके ये बताने की कोशिश की गई है कि राम का प्रभाव सिर्फ़ हिंदू परंपरा की परिधि तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि उससे बाहर के भारतीय पंथों-धर्मों में भी उसकी व्याप्ति रही है।
और यहीं से शुरू होता है पुस्तक का राजनीतिक पहलू। जिसकी बारीक और आलोचनात्मक पड़ताल ज़रूरी है। इस किताब में हेमंत ने मौजूदा भारतीय राजनीति में चलाए जा रहे हिंदुत्व-प्रेरित ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के प्रोजेक्ट को रामकथा का आधार देने की कोशिश की है। एक ओर वो जैन, बौद्ध और सिखों को राम और अयोध्या से जोड़ते हैं तो दूसरी ओर वो भीलनी शबरी, निषादराज, केवट, बालि, सुग्रीव, हनुमान, जटायु और जामवंत को हिंदू वर्णव्यवस्था में पिछड़ी जातियों, दलितों और आदिवासियों के प्रतिनिधियों के तौर पर सामने लाते हैं। वो कहते हैं ‘निचली जाति के निषाद राज’ और ‘कोल जाति की शबरी’ भी राम के साथ थी और ‘वानर, हनुमान, सुग्रीव, बाली, जामवंत की भी वनवासी जातियाँ रही होंगी जिन्हें संगठित कर राम ने अपनी सेना बनाई और रावण का संहार किया’। ध्यान देने लायक़ बात ये है कि ‘राम फिर लौटे’ में निषाद केवट, शबरी, सुग्रीव, हनुमान, जटायु और जामवंत से भगवान राम के संवाद का ज़िक्र है, मगर शंबूक की हत्या का कोई ज़िक्र नहीं किया गया है। शंबूक रामकथा के उतने ही महत्वपूर्ण किरदार हैं जितने नल, नील, जामवंत, जटायु या शबरी आदि। उनकी हत्या के कारणों और परिस्थितियों को समझे बिना ‘रामराज्य’ को संपूर्णता में समझना संभव नहीं है। पर अक्सर इस विषय पर चर्चा लोगों को असहज कर देती है, हालाँकि शंबूक की हत्या के बिना रामकथा पूरी नहीं होती। इसलिए इस पर लिखा जाना ज़रूरी है।
वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में शंबूक वध का प्रकरण आता है। कहा गया है कि रामराज्य में एक ब्राह्मण के बेटे की अकाल मृत्यु हो गई। वो ब्राह्मण अपने बेटे का शव लेकर राजा राम के पास गया और उनसे कहा कि उनके राज्य में उसके बेटे की मृत्यु क्यों हुई? नारद मुनि वहाँ मौजूद थे। उन्होंने भगवान राम को बताया कि शंबूक नाम का एक शूद्र तपस्या कर रहा है जबकि शूद्रों के लिए तपस्या वर्जित है। इसीलिए इस ब्राह्मण के बेटे की अकाल मृत्यु हुई। तपस्या में लीन शंबूक को खोजा गया। राजा रामचंद्र ने उस तपस्वी की जाति पूछी। जब उसने बताया कि वो शूद्र है और सशरीर स्वर्ग जाने के लिए तप कर रहा है तो राम ने तलवार निकालकर वहीं उसका वध कर दिया, क्योंकि वो शूद्र होने के बावजूद तप कर रहा था। राम के नाम पर कलिकाल में राजनीति करने वालों के पूरे विमर्श को शम्बूक-वध प्रकरण सवालों के घेरे में ला खड़ा करता है।
फिर राम से सिख पंथ को जोड़ने के लिए भी हेमंत की किताब में दृष्टांत दिए गए हैं। ये किताब बताती है कि नानक ने ‘मुसलमानों द्वारा पैदा किए गए संकट’ से लड़ने के लिए जन्म लिया था। उन्होंने गुरु गोविंद सिंह के साक्षात शिष्य भाई मणि सिंह की किताब पोथी जनम साखी के हवाले से लिखा है –
“
जगत में विष्णु भक्ति मुसलमानों के कारण लुप्त हो रही है। इससे उद्धार की विनती ईश्वर से की गई। तां महाराज ने धिआन से गुरुनानक जी का सरुप परगट हुआ।
भाई मणि सिंह की किताब पोथी जनम साखी के हवाले से लिखा
हेमंत आगे लिखते हैं- इस संकट से लड़ने के लिए गुरुनानक देव जी ने भारतवर्ष में जन्म लिया। ‘पोथी जनम साखी’ की प्रामाणिकता पर मैं कोई टिप्पणी नहीं कर रहा। पर इस बात पर विचार करना ज़रूरी है कि ‘मुसलमानों के कारण विष्णु भक्ति लुप्त होने के संकट से मुक्ति दिलाने वाले’ नानक का ज़िक्र तो किताब में आता है लेकिन वो नानक ग़ायब हैं जिसका सबसे नज़दीकी शिष्य मुसलमान था, वो नानक जिसने कहा – ‘अव्वल अल्लाह नूर उपाइया, कुदरत दे सब बंदे, एक नूर ते सब जग उपजेया, कौण भले को मंदे।’
भारत की सभी जातियों, आदिवासियों और धर्मों को एक व्यापक वितान के नीचे लाकर उन सबको हिंदू पहचान देना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का बहुत पुराना और घोषित प्रोजेक्ट रहा है। संघ अपने प्रकल्पों के माध्यम से आदिवासियों – जिन्हें संघ के लोग वनवासी कहते हैं – के बीच हिंदू धर्म के प्रतीकों, कर्मकांडों, देवताओं और त्यौहारों को स्वीकार्य बनाने का काम कई दशकों से करता आ रहा है। प्राचीन कथानकों और प्रतीकों के माध्यम से हेमंत बहुत बारीक और प्रच्छन्न ढंग से संघ के इस प्रोजेक्ट में अपना हिस्सा बटाते हैं। ‘राम फिर लौटे’ किताब का यही वो पहलू है जिसकी गहरी पड़ताल किए जाने की ज़रूरत है। आगे बढ़ने से पहले कुछ तथ्यों पर नज़र डाल लेनी चाहिए।
अगर कोई मानता है कि ‘राम भारत की चेतना हैं, भारत की प्राण शक्ति हैं, राम ही धर्म हैं, धर्म ही राम है’ (जैसा कि किताब में बार-बार हमें याद दिलाया गया है) तो इसमें वितर्क की क्या गुंजाइश बचती है? ऐसा मानने वाले को ये बताने की कितनी सार्थकता होगी कि अरुणाचल प्रदेश में दोन्यी-पोलो (चंद्र-सूर्य) धर्म को मानने वाले आदिवासियों के लिए राम उस अर्थ में धर्म का पर्याय नहीं हैं जिस अर्थ में हिंदुओं के लिए? या फिर ये तथ्य कि 2011 की जनगणना के मुताबिक़ लगभग 80 लाख भारतीय नागरिक किसी भी प्रमुख धर्म जैसे हिन्दू, इस्लाम, सिख, ईसाई, जैन या बौद्ध धर्म को नहीं मानते। इन्हें ORP (Other Religions and Persuasions) वर्ग में रखा गया है। भारत के इन नागरिकों के लिए राम ठीक उन्हीं अर्थों में आराध्य कैसे हो सकते हैं जैसे वो हिन्दुओं के लिए हैं? तो क्या पाकिस्तान के हिंदू नागरिकों के सामने ये शर्त रखी जा सकती है कि वो भी उसी तरह मोहम्मद साहब को अल्लाह का पैग़म्बर मानें जैसे पाकिस्तानी मुसलमान मानते हैं? पारसियों के लिए आहुर माज़्दा ही सबसे बड़ा आराध्य है, यहूदी धर्म में ईश्वर की वैसी परिकल्पना नहीं है जैसी हिन्दुओं में। पर इन दोनों धर्मों को मानने वाले कई लोग भारत के नागरिक भी हैं। उन्हें भारतीय संविधान ने वही नागरिक अधिकार दिए हैं जो हिंदुओं या दूसरे धर्म के लोगों को। राम हिंदुओं की चेतना के प्रतीक और प्राण शक्ति हो सकते हैं पर केरल में रहने वाले किसी यहूदी या बंबई के किसी पारसी परिवार में भी क्या उनकी वैसी ही पूजा की जाएगी जैसी किसी हिंदू के घर में की जाती है?
एक बड़ी दिलचस्प बात है। जिन शब्दों में हेमंत ने राम की हस्ती का बयान किया है उसमें और 22 जनवरी को अयोध्या में ‘प्राण प्रतिष्ठा’ के वक़्त दिए गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में अद्भुत समानता है। लगभग चमत्कार की तरह प्रधानमंत्री ने लगभग उन्हीं शब्दों में राम की महिमा का बखान किया है जैसे हेमंत ने अपनी किताब में। यहाँ तक कि वाक्यों की बनावट भी मिलती-जुलती है। प्रधानमंत्री ने कहा,
“ये राम के रूप में राष्ट्र चेतना का मंदिर है। राम भारत की आस्था है। राम भारत का आधार है। राम भारत का विचार है। राम भारत का विधान है। राम भारत की चेतना है। राम भारत का चिंतन है। राम भारत की प्रतिष्ठा है। राम भारत का प्रताप है। राम प्रवाह है। राम प्रभाव है। राम नेति भी है। राम नीति भी है। राम नित्यता भी है। राम निरंतरता भी है। राम विभु है। विशद है। राम व्यापक है। विश्व है। विश्वास है।”
हेमंत लिखते हैं, “राम भारत की चेतना हैं। राम भारत की प्राणशक्ति हैं। राम ही धर्म हैं। धर्म ही राम हैं… अयोध्या का मंदिर राम का है। राम कण-कण में हैं। हमारे भाव की हर हिलोर में राम हैं। कर्म के हर छोर में राम हैं। राम यत्र-तत्र हैं। राम सर्वत्र हैं। जिसमें रम गए , वही राम है। यहाँ सबके अपने-अपने राम हैं।” पता नहीं मोदी और हेमंत के शब्दों और वाक्यों में नज़र आने वाली ये समानता संयोगवश है या योजनावश।
इसमें कोई शक नहीं कि पिछले कुछ दशकों में भारत के आदिवासी समाजों में हिन्दू धर्म के रीति-रिवाज और कर्मकांडों-त्यौहारों का प्रभाव बढ़ा है, लेकिन तथ्य तो ये है कि गोंडी, सनमाही, सरना, सारी और दोन्यी-पोलो जैसे आदिवासी धर्मों की पूजा पद्धति अलग रही है। ईसाई मिशनरियों ने इन आदिवासियों के एक बड़े हिस्से को उनके धर्म से विमुख किया, ठीक वैसे ही अब राजनीतिक हिन्दुत्व उनमें सनातन देवी-देवताओं और मान्यताओं का प्रचार कर रहा है और उन्हें सदियों से चली आ रही मान्यताओं से विमुख कर रहा है।
संघ परिवार और उससे जुड़ी संस्थाएँ और संगठन राम जन्मभूमि मंदिर को ‘हिन्दुओं के 500 बरस के संघर्ष का परिणाम’ बता रहे हैं। इस बात पर ख़ास तौर पर बार बार ज़ोर दिया जा रहा है कि राम मंदिर के लिए पहली लड़ाई एक निहंग सिख ने लड़ी और इस सिलसिले में पहली बार आपराधिक मुक़द्दमा 28 नवंबर, 1858 को दर्ज किया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवार दत्तात्रेय होसबाले ने तो पुस्तक विमोचन के मौक़े पर कहा, “कुछ लोगों ने अनावश्यक इतिहास को दबाकर अपना नैरेटिव चलाने की कोशिश की है। राम मंदिर के लिए एक-दो बार नहीं 72 बार आंदोलन हुए हैं।”
पर क्या ख़ुद आरएसएस रामजन्मभूमि को ‘मुक्त’ करवाने के प्रति अस्सी के दशक से पहले गंभीर था? तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में दलितों ने 1980 में बड़ी संख्या में धर्म-परिवर्तन करके इस्लाम अपना लिया तब संघ और भारतीय जनता पार्टी के नेता सतर्क हुए। आरएसएस को एक ऐसे मुद्दे की ज़रूरत थी जिससे बहुसंख्यक हिंदू समुदाय को गोलबंद किया जा सके। हेमंत ने ख़ुद लिखा है कि जनवरी 1984 में इलाहाबाद में संघ के शीतकालीन सत्र के दौरान तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस मौजूद थे और उन्होंने संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवकों से सवाल किया – “ ‘सुना है अयोध्या में रामजन्मभूमि पर ताला लगा है?’ जवाब में किसी ने ‘हाँ’ कहा। तब तक उत्तर प्रदेश में भी जनता नहीं जानती थी कि अयोध्या के रामजन्मभूमि मंदिर में राम का विग्रह ताले में बंद है। यह बात जनता तक कैसे पहुँचे, इसे बताने के लिए रथयात्रा का आयोजन हुआ।”
ये कैसे संभव है कि जिस रामजन्मभूमि की ‘मुक्ति’ के लिए हिंदू समाज ‘500 वर्षों’ से लड़ रहा था उसके बारे में संघ के सरसंघचालक 1984 में एक जिज्ञासा और मासूमियत से भरा प्रश्न करें – ‘सुना है अयोध्या में रामजन्मभूमि पर ताला लगा है’!
तो क्या इससे ये समझा जाए कि 1984 तक ख़ुद राष्ट्रीय स्वसंसेवक संघ को पता ही नहीं था कि अयोध्या में रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद को लेकर कोई विवाद भी था और बाबरी मस्जिद पर ताला लगा हुआ है?
जन्मभूमि को लेकर हिंदुओं ने 500 वर्षों से 72 युद्ध लड़े हों या न लड़े हों पर भारत को गाँधी-नेहरू की धर्मनिरपेक्ष राजनीति के प्रभाव से निकालकर सावरकर और गोलवलकर के हिंदू प्रभुत्त्वतावादी विचार के प्रभाव में ले जाने का रास्ता अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दिखने लगा था। अब संघ के सामने राम मंदिर आंदोलन की लहर बनाने और उसके बहाने धर्मनिरपेक्षता, हिंदू-मुस्लिम भाईचारे और गंगा-जमनी तहज़ीब जैसे विचारों को सवालों के दायरे में खींच लाने की चुनौती थी।
संघ परिवार के आनुषांगिक संगठनों ने अपने रणनीतिक कौशल से, और देश की सर्वोच्च अदालत को दाँव देकर, इस कठिन चुनौती पर पार पाया और आख़िरकार 22 जनवरी 2024 को अयोध्या में पूरा आंदोलन उसी परिणति को पहुँचा जहाँ संघ के रणनीतिकार उसे ले जाना चाहते थे। उस दिन अयोध्या में राम और राष्ट्र-राज्य को एकाकार करने की ठोस शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर दी। उस दिन मोदी ने दस-बीस नहीं, आने वाले पूरे एक हज़ार बरसों तक भारत के भविष्य की दिशा तय कर दिए जाने का उद्घोष कर डाला। ये राम और राष्ट्र को एक करने की कोशिश थी जिसमें राजसत्ता के तमाम अंगों को शामिल किया गया। अब राम मंदिर आंदोलन या उसके परिणाम से असहमति जताने वालों को रामद्रोही (यानी राष्ट्रद्रोही) क़रार देना आसान हो गया है। हेमंत ने भी अपनी किताब में राम और राष्ट्र के एक होने का ऐलान कर दिया है। वह लिखते हैं,
“राम इस देश की कई संस्कृतियों का प्रतीकात्मक समन्वय हैं… उनका यह मंदिर अब उस चेतना का केंद्र भी बनेगा, जहाँ राम और राष्ट्र एक दूसरे में समाहित हो जाते हैं। इसलिए अयोध्या के रामलला मंदिर को आप हमारी राष्ट्रीयता का मंदिर भी कह सकते हैं।”
पर जिसे हेमंत ‘हमारी राष्ट्रीयता’ कहते हैं उसकी परिभाषा क्या होगी? इसे कौन तय करेगा? इसमें ‘हम’ कौन हैं? और कौन हैं वो लोग या समुदाय जो इस ‘हम’ में शामिल नहीं हैं? रामकथा के बाली, सुग्रीव, शबरी, निषाद आदि के प्रतीकों का इस्तेमाल करने से इस परिभाषा में दलित, पिछड़े, आदिवासी तो शामिल हो जाते हैं। जैन, बौद्ध, सिख परंपराओं को अयोध्या से जोड़ने से राष्ट्रीयता की इस नई परिभाषा में उन धर्मों के लोग भी शामिल कर लिए जाते हैं। रहे मुसलमान, ईसाई, पारसी और यहूदी और नास्तिक! क्या राष्ट्रीयता के इस ‘मंदिर’ में उन्हें कोई जगह मिलेगी? और अगर जगह मिली भी तो वो कहाँ होगी – दूसरे नागरिकों के बराबर या उनकी ड्योढ़ी पर? ये सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि क्या अब भारत में नागरिकता का प्रश्न भारतीय संविधान की व्यवस्थाओं से नहीं बल्कि राममंदिर को राष्ट्रीयता का मंदिर मानने से तय होगा? क्या ये तय कर दिया गया है कि भारत सिर्फ़ हिंदुओं का है? ये किसने तय किया? क्या इसका कोई संवैधानिक और क़ानूनी आधार है?
हेमंत पूछते हैं कि क्या ये मंदिर महज कंक्रीट और पत्थर की बनी इमारत है? आगे की पंक्तियों में उन्होंने जो लिखा है वो भारत के सामाजिक ताने-बाने और संवैधानिक व्यवस्था को बेहद घातक परिणामों तक ले जा सकता है। वो लिखते हैं, “अयोध्या के जन्मस्थान पर बना यह मंदिर गरज के साथ उद्घोषणा करता है कि यह वक्त दुनिया की आँख में आँख डालकर बताने का है कि भारत हिंदुओं का था, है और रहेगा। अयोध्या राम की थी, राम की है और राम की ही रहेगी…यह मंदिर भविष्य के भारत में राम के लोकतांत्रिक राज्य, जाति वर्ग से परे सर्वसमावेशी समाज, लोकमंगलकारी शासन, अहंकार और आतंक के नाश का नाभिकीय केंद्र बनेगा… यहाँ से देश और समाज की एकता के ऐसे सूत्र निकलेंगे जो बताएँगे कि हिंदुओं का उनकी जन्मभूमि, देवभूमि, मातृभूमि और पुण्यभूमि पर नैसर्गिक अधिकार है।”
ये आधुनिक भारत में नागरिकता के सवाल को मध्ययुगीन परिभाषाओं के आधार पर तय करने की कोशिश है। ये सावरकर की थीसिस की नई पैकेजिंग है। सावरकर ने हिंदुओं और मुसलमानों को दो अलग अलग राष्ट्र के तौर पर चिन्हित किया था क्योंकि उनके मुताबिक़ भारत हिंदुओं की पुण्यभूमि है पर मुसलमानों की नहीं। अगर इस भूमि पर हिंदुओं का नैसर्गिक अधिकार है तो फिर दूसरे धर्मों को मानने वाले या किसी भी धर्म को न मानने वालों की भारत-भूमि पर क्या हैसियत होगी? अगर इस भूमि पर उनका नैसर्गिक अधिकार नहीं है तो फिर सवाल ये भी उठेगा कि नागरिक के तौर पर उनका दर्जा क्या होगा! क्या नेपाल के हिंदुओं का भी भारत-भूमि पर वैसा ही अधिकार होगा जैसा भारतीय हिंदुओं का? ये सभी प्रश्न बहुत पेचीदा हैं और किताब इनकी तह में जाने की कोशिश नहीं करती।
इसलिए राष्ट्र को राम और राम को राष्ट्र में समाहित करने की राजनीति के निहितार्थ को समझना बहुत ज़रूरी है। यही वो सपना था जिसे पिछली शताब्दि के दूसरे और तीसरे दशक में विनायक दामोदर सावरकर, अणे महाराज, डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुञ्जे और केशव बलिराम हेडगेवार जैसे हिंदुत्ववादी नेताओं ने देखना शुरू किया था। भारतीय राज्य एक हिंदू राज्य में तभी बदल सकता है जब राम (हिंदू धर्म) और राष्ट्र को भारतीय जनमानस में एक दूसरे के पर्याय के रूप में स्थापित कर दिया जाए।
‘राम फिर लौटे’ किताब में हिंदू धर्म को ठीक उसी तरह राष्ट्रीयता का आधार माना गया है जैसा संघ के दूसरे सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ‘गुरूजी’ मानते थे। उन्होंने 1939 में छपी अपनी विवादास्पद किताब ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइंड’ में नागरिकता के प्रश्न पर विस्तार से लिखा है। ये वो दौर था जब जर्मनी में यहूदियों के ख़िलाफ़ हिटलर और नात्सियों की ख़ूनी मुहिम चरम पर थी। राष्ट्र के प्रश्न पर गोलवलकर ने जर्मनी की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा है कि जर्मनी ने जिस तरह यहूदियों का सफ़ाया करके दुनिया को चौंका दिया था, उससे हम हिंदुस्तान में सीख सकते हैं और फ़ायदा उठा सकते हैं। उन्होंने लिखा,
“भारत में रह रहे विदेशी नस्ल के लोगों को या तो हिंदू संस्कृति और भाषा अपना लेनी चाहिए, हिंदू धर्म का आदर करना और उसे प्रतिष्ठा देना सीख लेना चाहिए, उन्हें हिंदू नस्ल और संस्कृति के गौरवगान के अतिरिक्त किसी और विचार पर ध्यान नहीं देना चाहिए… या फिर देश में उन्हें पूरी तरह हिंदू राष्ट्र के मातहत रहना होगा– कोई दावा किए बिना, कोई विशेषाधिकार की उम्मीद किए बिना और प्राथमिकता मिलने की उम्मीद तो छोड़ ही दो – यहाँ तक कि नागरिकता अधिकार भी नहीं।”
भारत का संविधान धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर नागरिकों में भेद नहीं करता। पर नरेंद्र मोदी की सरकार ने नागरिकता संशोधन क़ानून के ज़रिए धर्म को आधार बनाकर पहली बार नागरिकता की नई परिभाषा तैयार करने के लिए एक खिड़की खोल दी है। इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर ही हेमंत शर्मा की किताब को पढ़ा जाना चाहिए जिसमें उन्हें अयोध्या के राम मंदिर को ‘राष्ट्रीयता का मंदिर’ कहा है, जिसका शिखर ‘राष्ट्रीय स्वाभिमान का शिखर बनेगा’।
एक और महत्वपूर्ण बात ये है कि जिस महात्मा गाँधी के विचारों की बुनियाद का एक अहम हिस्सा अहिंसा और हिंदू-मुस्लिम एकता रही हो, उसका आदि और अंत सिर्फ़ राम के साथ जोड़ दिया गया है। वैसे भी गाँधी का सहारा लिए बिना हिंदुत्व का विमर्श नहीं चलता। गाँधी को एक ज़रूरी बोझ की तरह ढोना हिंदुत्व की राजनीति की मजबूरी है क्योंकि गाँधी राम की बात करते हैं, ख़ुद को वर्ण व्यवस्था और सनातन धर्म का पैरोकार कहते हैं और धर्म के बिना राजनीति को अनैतिक मानते हैं। पर उनकी अहिंसा और हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का विचार आड़े आ जाता है। यही गाँधी के विचारों की धुरी हैं। इन्हें हटाकर सनातन धर्म और राम के प्रति उनके अनुराग को ही गाँधी का प्रमुख विचार बना देना दरअसल गाँधी के विचारों की शवयात्रा निकालने जैसा ही है।
हालाँकि गाँधी पर भी हेमंत श्रद्धाभाव से ही लिखते हैं –
“गाँधी की शक्ति का आधार राम हैं। गाँधी की प्रेरणा राम हैं। गाँधी को समझने के सूत्र भी राम हैं…। एक अहिंसा को छोड़ दें तो गाँधी राम के अधीन नज़र आते हैं।”
वो सवाल पूछते हैं –
“आख़िर ये राम हैं कौन? जिनका नाम लेकर एक बूढ़ा गाँधी अँग्रेज़ी साम्राज्य से लड़ गया।”
पर क्या गाँधी सिर्फ़ राम का नाम लेकर ब्रितानी साम्राज्य से लड़े थे? नहीं, उनके पास राम के साथ साथ हिंदू-मुस्लिम एकता और अहिंसा का पुरअसर औज़ार भी था। बल्कि हिन्दू-मुस्लिम एकता उनके जीवन दर्शन के केंद्र में है। गाँधी-विचार को सिर के बल खड़ा करना आसान होता पर ख़ुद गाँधी की लिखी चीज़ें इसके आड़े आ जाती हैं।
गाँधी अक्सर रामराज्य की बात करते थे, पर क्या रामराज्य की उनकी परिकल्पना भी वैसी ही थी जैसी प्रवीण तोगड़िया या बाबू बजरंगी की?
रामराज्य की अपनी समझ को ख़ुद गाँधी ने 1909 में छपी पुस्तिका हिंद स्वराज में स्पष्ट ढंग से लिखा है और उनकी ये समझ संघ के ‘रामराज्य’ से एकदम उलट है। गाँधी लिखते हैं –
“रामराज्य से मेरा मतलब हिंदू राज नहीं है। रामराज्य से मेरा तात्पर्य दैवीय सत्ता है – ईश्वर की सत्ता। मेरे लिए राम और रहीम एक जैसे आराध्य हैं। मैं सत्य और शुचिता के ईश्वर के अलावा किसी और ईश्वर को नहीं मानता।”
गाँधी की अहिंसा के प्रति संघ (और हिंदुत्ववाद के डॉ. मुञ्जे जैसे पुरखे) अपनी नापसंदगी ज़ाहिर करने में ईमानदार रहा है। संघ के अधिकारी खुले मंच से कहते और लिखते आए हैं कि अहिंसा ने हिंदू समाज को कायर बना दिया है। गाँधी से उनकी मतभिन्नता का ये बहुत बड़ा कारण है। संघ ये भी नहीं छिपाता कि ज़रूरत पड़ी तो हिंसा का रास्ता उसे स्वीकार्य है। हेमंत शर्मा के पुस्तक विमोचन समारोह में संघ के सहसरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने भी यही बात खुलकर कही, “ख़ून न बहे ये प्रयत्न योगेश्वर कृष्ण ने अंतिम क्षण तक किया। परंतु जब अधर्म के पक्ष के लोग तैयार नहीं हुए तो ख़ून बहा। धर्म की स्थापना के लिए मजबूरी से भी क्यों न हो ख़ून बहता है तो लोककल्याण के लिए इसको हमें सहन करना ही पड़ेगा।”
कृष्ण का उदाहरण देकर होसबाले रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में किन लोगों को ‘अधर्म के पक्ष’ में खड़ा बता रहे हैं – वही जो बाबरी मस्जिद को बचाना चाहते थे। यानी ‘अधर्म के पक्ष’ में खड़े लोग जब मस्जिद पर दावा छोड़ने को तैयार नहीं हुए तो हिंसा हुई, जिसे होसबाले ‘नियति’ बताकर स्वीकार करने की सलाह देते हैं। उनकी बात का निहितार्थ स्पष्ट है कि अगर ‘धर्म की स्थापना’ के लिए भविष्य में भी ख़ूँरेज़ी करनी पड़ा तो उसे स्वीकार करना होगा। हिंसा को तार्किकता का आधार देने की इस कोशिश को 17 से 19 दिसंबर 2021 को हरिद्वार में हुई तथाकथित ‘धर्म संसद’ में कही गई बातों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए जहाँ हिंदुत्ववादी संगठनों और कथित धर्मगुरुओं ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ हथियार उठाकर उनका सामूहिक सफ़ाया करने की अपील खुलेआम की थी।
अयोध्या के संदर्भ में हेमंत मर्यादा, शील और विनय जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं, जबकि इस अयोध्या ने मस्जिद-मंदिर द्वंद्व के दौरान अमर्यादा, अशालीनता और उग्रता का भयानक रूप देखा है। किताब आपको स्वप्न दिखाती है कि मंदिर बनने के बाद भारत में ‘तुष्टीकरण की राजनीति का अंत होगा और जाति-वर्ग से परे समावेशी समाज की पुनर्स्थापना होगी।’ ये कोई दबी-ढँकी बात नहीं है कि संघ और भारतीय जनता पार्टी तुष्टीकरण शब्द को मुसलमानों के ‘तुष्टीकरण’ के शॉर्टहैंड के तौर पर प्रयोग करते हैं। ध्यान रहे हेमंत ‘जाति-वर्ग से परे समावेशी समाज’ की स्थापना की बात कर रहे हैं, ‘जाति-धर्म-मज़हब’ से परे नहीं। प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि मंदिर बनने के बाद जातियों और वर्गों के बीच तो समरसता आएगी पर ग़ैर-सनातनी ‘मज़हबों’ के साथ भी क्या उसी तरह की समरसता आ पाएगी? क्या इस समरसता वाले समाज में अल्पसंख्यकों उनके लिए भी बराबरी का स्थान सुरक्षित रहेगा या नहीं?
यही आज हिंदुस्तान की राजनीति का भी प्रमुख प्रश्न बन चुका है। अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा के बाद क्या भारतीय संविधान ऐसी ‘न्यायपूर्ण’ व्यवस्था की गारंटी दे पाएगा जहाँ तपस्या करने के लिए किसी शंबूक की हत्या न हो? शंबूक आधुनिक भारत में प्रतीक है उन तमाम अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, दबे-कुचले समुदायों, समलैंगिकों, परित्यक्ताओं, ग़रीब और शोषित जनों का जो समाज में एक नागरिक की हैसियत से बराबरी का स्थान हासिल करना चाहते हैं। राम लौट आए हैं। क्या इस बार शंबूक बच पाएगा?
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