तालाबंदी के दौरान जो करोड़ों मज़दूर अपने गाँव लौट गए थे, उन्हें रोज़गार देने के लिए सरकार ने महात्मा गांधी रोजगार योजना (मनरेगा) में जान डाल दी थी। सरकार ने लगभग 4.5 करोड़ परिवारों की दाल-रोटी का इंतजाम कर दिया था। लेकिन इस योजना की तीन बड़ी सीमाएं हैं।
मनरेगा की ख़ामियाँ
एक तो यह कि इसमें दिन भर की मज़दूरी लगभग 200 रुपए है। दूसरा, किसी भी परिवार में सिर्फ एक व्यक्ति को ही मज़दूरी मिलेगी। तीसरा, पूरे साल में 100 दिन से ज्यादा काम नहीं मिलेगा। यानी 365 दिनों में से 265 दिन उस मज़दूर या उस परिवार को कोई अन्य काम ढूंढना पड़ेगा।सरकार ने तालाबंदी के बाद मनरेगा की कुल राशि में मोटी वृद्धि तो की ही, उसके साथ-साथ करोड़ों लोगों को मुफ़्त अनाज बाँटने की घोषणा भी की। इससे भारत के करोड़ों नागरिकों को राहत तो ज़रूर मिली है, लेकिन अब कई समस्याएँ एक साथ खड़ी हो गई हैं।
पहली समस्या तो यह कि सवा लाख परिवारों के 100 दिन पूरे हो गए हैं। इसके अलावा 7 लाख परिवारों के 80 दिन और 23 लाख परिवारों के 60 दिन भी पूरे हो गए।
शेष चार करोड़ परिवारों के भी 100 दिन कुछ हफ़्तों में पूरे हो जाएँगे। फिर इन्हें काम नहीं मिलेगा। ये बेरोज़गार हो जाएंगे।
बरसात के बाद?
अभी बरसात और बुवाई के मौसम में ग़ैर-सरकारी काम भी गाँवों में काफी हैं, लेकिन कुछ समय बाद शहरों से गए ये मज़दूर क्या करेंगे? इनके पेट भरने का ज़रिया क्या होगा?क्या करे सरकार?
कोरोना और उसका डर इतना फैला हुआ है कि मज़दूर अभी शहर लौटना नहीं चाहते। ऐसी स्थिति में सरकार को तुरंत कोई रास्ता निकालना चाहिए। वह चाहे तो एक ही परिवार के दो लोगों को रोज़गार देने का प्रावधान कर सकती है।सरकार चाहे तो 202 रुपए के बजाय 250 रुपए रोज़ दे सकती है और 100 दिन की सीमा को 200 दिन तक बढ़ा सकती है ताकि अगले दो-तीन माह, जब तक कोरोना का ख़तरा है, मजदूर और उनके परिवार के बुजुर्ग और बच्चे भूखे नहीं मरें।
जब कोरोना का ख़तरा ख़त्म हो जाएगा तो ये करोड़ों मज़दूर खुशी-खुशी काम पर लौटना चाहेंगे और सरकार का सिरदर्द अपने आप ठीक हो जाएगा।
गलवान घाटी का तनाव घट रहा है तो सरकार से यह उम्मीद की जाती है कि वह अब अपना पूरा ध्यान कोरोना से लड़ने में लगाएगी।
(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drvaidik.in से साभार)
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