पिछली कड़ी में हमने जाना था कि मुंबई में अपनी प्रैक्टिस जमाने में नाकाम रहने के बाद गाँधीजी राजकोट चले आए जहाँ उनके वकील भाई की मदद से उनको छोटा-मोटा काम मिलना शुरू हो गया और घर का ख़र्चा निकलने लगा। लेकिन उन्हीं दिनों एक अंग्रेज़ अफ़सर से उनका झगड़ा हो गया। दरअसल वह अफ़सर गाँधीजी के बड़े भाई से किसी कारण ख़फ़ा था और गाँधीजी अपने उसी भाई के दबाव में उससे मिलने चले गए। परंतु बात बनने के बजाय और बिगड़ गई। गाँधीजी को पहले से जानने के बावजूद वह अफ़सर उनके साथ बेरुखी से पेश आया। यही नहीं, उसने चपरासी के हाथों उन्हें कमरे से निकलवा दिया।
इसके अपमान से गाँधीजी बहुत दुखी हुए। लेकिन कोई चारा भी नहीं था। उनको यह भी लगा कि इस झगड़े से आगे के लिए उनका रास्ता भी बंद हो गया क्योंकि कोई भी मामला होगा, वह उसी अफ़सर की अदालत में जाएगा और वह निष्पक्षता के साथ फ़ैसला करेगा, इसकी संभावना बहुत कम थी।
इसी बीच उनके भाई के पास पोरबंदर की बड़ी कंपनी से एक प्रस्ताव आया। प्रस्ताव यह था कि दक्षिण अफ़्रीका में कंपनी का कोई मुक़दमा सालों से चल रहा था और कंपनी चाहती थी कि गाँधीजी वहाँ जाकर उन बड़े वकीलों को केस समझाने में मदद करें जो उनका मुक़दमा लड़ रहे थे। एक साल का काम था, रहना-खाना मुफ़्त और ऊपर से 105 पाउंड का वेतन। गाँधीजी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया हालाँकि वह जानते थे कि वह एक बैरिस्टर की हैसियत से नहीं बल्कि एक कर्मचारी की हैसियत से दक्षिण अफ़्रीका जा रहे हैं।
दक्षिण अफ़्रीका जाकर उन्होंने पूरे केस का अध्ययन किया। बहीखाते का काम भी सीखा क्योंकि सारा मामला प्रॉमिसरी नोटों और लेनदेन का था। जाँच-पड़ताल के बाद गाँधीजी को लगा कि तथ्य पूरी तरह उनके मालिक के पक्ष में हैं लेकिन इसकी पूरी आशंका थी कि मुक़दमे के फ़ैसले में बहुत लंबा वक़्त लग जाए। वैसे भी वकीलों की फ़ीस देने में दोनों ही पक्षों का पैसा पानी की तरह बह रहा था। उन्होंने तय किया कि वह विरोधी पक्ष से मिलकर सुलह-सफ़ाई का प्रयास करेंगे।
मुक़दमा जिसके ख़िलाफ़ चल रहा था, वह गाँधीजी के मालिक का रिश्तेदार ही था। वह उससे मिले और मध्यस्थता का प्रस्ताव दिया। शुरुआती हिचक के बाद विरोधी पक्ष मान गया। पंच तय हुआ। उसने गाँधीजी की कंपनी के पक्ष में फ़ैसला किया।
अब इससे बेहतर क्या हो सकता है! गाँधीजी जिस काम के लिए लाए गए थे, वह हो गया था। मामले का फ़ैसला भी मालिक के पक्ष में आ गया था, वह भी बिल्कुल फटाफट। कोई और वकील होता तो इतने पर ही बल्ले-बल्ले हो जाता। मगर गाँधीजी इससे संतुष्ट नहीं हुए। वह जानते थे कि तैयब सेठ (विरोधी पक्ष) के लिए 37 हज़ार पाउंड की भारी-भरकम राशि और मुक़दमे का हर्जाना एकसाथ चुकाना असंभव था। वह रक़म की पाई-पाई चुकाने को तैयार थे मगर दिवालिया घोषित होना नहीं चाहते थे। ऐसे में केवल एक रास्ता बचता था। वह यह कि उन्हें यह रक़म किस्तों में चुकाने की सुविधा मिल जाती। गाँधीजी ने इसके लिए अपने मालिक दादा अब्दुल्ला से बात की और बड़ी कोशिशों के बाद आख़िरकार उन्हें मना ही लिया। तैयब सेठ को ख़ूब लंबी मोहलत मिल गई।
गाँधीजी की ख़ुशी की सीमा नहीं थी। वह अपने उस अनुभव को इस तरह बयान करते हैं -
‘मैंने सच्ची वकालत सीख ली। मैंने मानव स्वभाव के बेहतर पक्ष को पहचानना सीख लिया और किस तरह लोगों के दिल में प्रवेश किया जा सकता है, यह भी सीखा। मैंने जाना कि किसी भी वकील का मुख्य कर्तव्य है विवाद में उलझे पक्षों में मेल कराना। यह सबक़ मेरे दिल में इतनी गहराई तक उतर गया कि अपनी बीस साल की वकालत में मैंने अपना ज़्यादातर समय इसी तरह के सैकड़ों केसों में लगाया और आपसी समझौतों से मामलों को सुलझवाया। ऐसा करके मेरा कोई नुक़सान नहीं हुआ, पैसों की तो हानि नहीं ही हुई, आत्मा की भी रक्षा हो गई।’
झूठे केस नहीं लेते थे
अपनी वकालत के दिनों को याद करते हुए गाँधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि कई बार उन्हें मालूम हो जाता था कि विरोधी पक्ष ने गवाहों को सिखा-पढ़ा दिया है और अगर वह भी अपने मुवक्किल या गवाहों को छूट दे देते झूठ बोलने की तो वह केस जीत सकते थे। लेकिन उन्होंने इस लालच को हमेशा अपने से दूर रखा। वह कोई केस लेने से पहले ही अपने मुवक्किल को चेता देते थे कि वह यह उम्मीद न करे कि वह कोई झूठा केस लड़ेंगे या गवाहों को सिखा-पढ़ाकर मुक़दमा जीतने की कोशिश करेंगे। इसका परिणाम यह हुआ कि उनके पास केवल वे मामले आने लगे जो सच्चे थे।
लेकिन लाख सतर्कता के बावजूद उनके हाथ में एक ऐसा मामला आ गया जिसके बारे में बाद में उनको पता चला कि उन्हें धोखा दिया गया है। वह बताते हैं -
‘एक बार जोहैनिसबर्ग में मजिस्ट्रेट के सामने केस की पैरवी करने के दौरान मैंने पाया कि मेरे मुवक्किल ने मुझे झूठी जानकारी दी थी। जिरह के दौरान वह अपनी पिछली बातों से बिल्कुल उलट गया। इसके बाद बिना कोई दलील पेश किए मैंने मजिस्ट्रेट से कहा कि आप केस डिसमिस कर दें। विरोधी पक्ष का वकील चकित रह गया, मगर मजिस्ट्रेट प्रसन्न हुए। मैंने उस मुवक्किल को झूठा मामला लाने के लिए बहुत बुरा-भला कहा।’
गाँधीजी को जब कोई मामला दुरूह लगता तो वह मुवक्किल से कह देते कि वह किसी वरिष्ठ वकील से सलाह कर लें।
गाँधीजी के जीवन में ऐसे कई मौक़े आए जब सच की राह पर चलने की अपनी ज़िद के कारण उन्होंने अपने मुवक्किलों को अपना फ़ैसला बदलने को बाध्य कर दिया। इनमें से दो ऐसे हैं जिनका हम नीचे उल्लेख करेंगे।
पहला मामला एक ऐसे मुक़दमे का है जिसमें गाँधीजी का मुवक्किल केस जीत गया था। लेकिन गड़बड़ी यह हो गई थी कि कोर्ट की तरफ़ से जिन लेखाकारों ने खातों की जाँच-परख की थी, उन्होंने गणना करते समय एक जगह पर जमा हुई रक़म को ख़र्च के खाते में दिखा दिया था। रक़म छोटी-सी थी मगर यदि जजों को इसका पता चलता तो वे पूरा फ़ैसला पलट भी सकते थे। अब प्रश्न यह था कि जो ग़लती अपने फ़ायदे में है, उसकी तरफ़ अदालत का ध्यान खींचा जाए या उससे आँखें मूँद ली जाएँ।
ग़लती मानने में हिचक नहीं
गाँधीजी उस मामले में छोटे वकील थे। बड़े वकील का कहना था कि उनको यह ग़लती क़बूल नहीं करनी चाहिए। उसके अनुसार किसी भी वकील को ऐसी कोई बात स्वीकार नहीं करनी चाहिए जो उसके मुवक्किल के ख़िलाफ़ जाती हो। गाँधीजी की राय इससे उलट थी। उनका तर्क था कि ग़लती को मान लेना चाहिए।
मुवक्किल और दोनों वकीलों के बीच सलाह हुई। बड़े वकील ने कहा कि मैं तो ग़लती नहीं मानूँगा - ग़लती माननी है तो आप ही पैरवी कर लो।
गाँधीजी ने मुवक्किल की तरफ़ देखा। मुवक्किल गाँधीजी के स्वभाव को अच्छी तरह जानता था। उसने कहा, ‘फिर आप ही पैरवी कर लें और ग़लती मान लें। अगर हमारे भाग्य में हार लिखी है तो हार ही सही। सच्चे लोगों का भगवान हमेशा साथ देता है।’
जज ने कहा, ’मिस्टर गाँधी, यह तो बेईमानी हुई!
जब मुक़दमे की सुनवाई शुरू हुई तो गाँधीजी ने लेखाकारों द्वारा गणना में की गई भूल की तरफ़ अदालत का ध्यान खींचा। सुनते ही एक जज ने कहा, ’मिस्टर गाँधी, यह तो बेईमानी हुई!’
गाँधीजी को यह बात काँटे की तरह चुभ गई। बात वे ईमानदारी की कर रहे थे और आरोप उनपर बेईमानी का लग रहा था। उन्होंने कहा, ‘मुझे हैरत है कि मेरी पूरी बात सुने बग़ैर ही जज साहब यह लांछन लगा रहे हैं।’
जज ने तुरंत अपनी बात को सुधारा और कहा कि आप अपना पक्ष रखें। गाँधीजी ने सारी बात समझाई कि सारा मामला चूक का है और यह जानबूझकर नहीं की गई है। न्यायाधीशों ने उनकी बात को समझा और जब विरोधी पक्ष के वकील ने इस चूक के आधार पर पुराना फ़ैसला रद्द करने की प्रार्थना की तो जज ने कहा, ‘अगर मि. गाँधी ने यह चूक नहीं मानी होती तो आप क्या करते?’ अंततः उस चूक में सुधार के साथ ही पुराना निर्णय बरकरार रखा गया।
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मैं बहुत ख़ुश हुआ। साथ-साथ मेरे मुवक्किल और बड़े वकील भी; और मेरा यह विश्वास और पुख़्ता हुआ कि सच्चाई पर टिके रहकर भी वकालत की जा सकती है।
महात्मा गाँधी
दूसरा मामला था दक्षिण अफ्रीका के ही उनके एक पारसी मित्र रुस्तमजी का जो उनके मुवक्किल भी थे और आंदोलन के साथी भी। रुस्तमजी व्यापारी थे और बंबई और कलकत्ता से बड़े पैमाने पर माल आयात करते थे। लेकिन कभी-कभी वह बिना ड्यूटी दिए भी माल मँगा लेते थे। दूसरे शब्दों में तस्करी में लिप्त थे। एक दिन उनका यह गोरखधंधा पकड़ा गया और वह रुआँसी हालत में गाँधीजी के पास आए और बोले, ‘भाई, मैंने आपसे धोखा किया है। मेरी चोरी आज पकड़ी गई। मैंने तस्करी की है और अब मेरा विनाश निश्चित है। मुझे अब जेल होगी और मैं बर्बाद हो जाऊँगा। आप ही मुझे जेल से बचा सकते हो।’
गाँधीजी ने उन्हें शांत किया। बोले, ‘आप बचोगे या नहीं बचोगे, यह भगवान के हाथ में है। जहाँ तक मेरी बात है, आपको मेरा तरीक़ा मालूम है। मैं आपको जेल जाने से बचाने की कोशिश कर सकता हूँ लेकिन एक शर्त पर। आपको अपना अपराध स्वीकार करन होगा।’
रुस्तमजी बहुत लज्जित थे। बोले, ‘मैं आपके सामने तो अपना गुनाह मान ही लिया है, क्या वह काफ़ी नहीं है?’
गाँधीजी बोले, ‘आपने मेरे साथ धोखा नहीं किया है, धोखा सरकार के साथ किया है। फिर मेरे सामने गुनाह क़बूल करने से क्या होगा?’
गाँधीजी की दलील
रुस्तमजी ने एक और वकील से सलाह करना तय किया। उस वकील ने उन्हें डरा दिया कि अब तो मामला अदालत में जाएगा और वहाँ किसी भारतीय के साथ नरमी बरती जाए, इसकी संभावना कम है। लेकिन गाँधीजी की राय अलग थी। उन्होंने कहा, ‘मुझे नहीं लगता, यह मामला कोर्ट तक जाएगा। आपपर मुक़दमा चलाया जाए या नहीं, यह कस्टम ऑफ़िसर के अधिकार क्षेत्र में है। इसके लिए वह अटॉर्नी जनरल से राय ले सकता है। मैं इन दोनों से मिलने को तैयार हूँ। मैं समझता हूँ कि यदि आप अपना अपराध स्वीकार कर लें और जो भी जुर्माना वे तय करें, उसे देने को तैयार हो जाएँ तो बात बन सकती है। लेकिन यदि फिर भी बात नहीं बनती है तो आपको जेल जाने के लिए तैयार रहना चाहिए। मेरी राय में जेल जाना कोई शर्म की बात नहीं है, शर्म की बात है तस्करी करना। और वह शर्मनाक काम हो ही चुका है। अपने कारावास को आपको प्रायश्चित के तौर पर लेना चाहिए। असली प्रायश्चित तो यही होगा कि आप भविष्य में कभी भी तस्करी न करने का संकल्प लेंगे।’
रुस्तमजी ने गाँधीजी की सलाह मानी और जितनी राशि के माल की तस्करी उन्होंने क़बूल की, उसकी दुगुनी राशि का जुर्माना देकर मामला सुलझ गया। रुस्तमजी ने यह सारा क़िस्सा एक काग़ज़ पर लिखकर फ़्रेम करवाया और उसे अपने ऑफ़िस की दीवार पर टाँग दिया ताकि आने वाली पीढ़ी और उनके साथी व्यापारी उससे सबक़ लें। रुस्तमजी के कुछ दोस्तों ने गाँधीजी से कहा कि यह पछतावा बस कुछ दिनों के लिए है और वह इसके झाँसे में नहीं आएँ। जब गाँधीजी ने यह बात रुस्तमजी से कही तो उन्होंने कहा, ‘अगर इस बार आपसे छल किया तो मैं जानता हूँ कि क़िस्मत मुझे कहाँ ले जाकर मारेगी।’
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