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सुप्रीम कोर्ट बदले छवि, संवैधानिक अधिकारों की रक्षा में क्यों चूक रहा?

28 अप्रैल, 1976 को भारत के नागरिकों को सुप्रीम कोर्ट से सबसे बड़ा झटका लगा। इस दिन अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट बनाम एस. एस. शुक्ला के मामले में सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यीय बेंच ने अपना फ़ैसला सुनाया। इस फ़ैसले ने संविधान, संवैधानिक नैतिकता और संविधानवाद को गहरे घाव दिए।

इस फ़ैसले ने आपातकाल में एक व्यक्ति की बंदी प्रत्यक्षीकरण के अधिकार को निरस्त करने की इजाज़त दे दी। अदालत की टिप्पणी थी कि, ‘सार्वजनिक ख़तरे की आशंका के मद्देनज़र वे सारे क़ानून जो शांतिकाल में प्रत्येक व्यक्ति को सुरक्षा और भरोसा देते हैं, को देशहित में त्यागने पड़ सकते हैं’ -(जस्टिस ए एन रे)। ‘किसी क़ानून को लागू करना वैधानिक अधिकार का एक तत्व है और राज्य की वैधानिक सत्ता के तहत किसी अधिकार को लागू करना समाज के क़ानूनी स्तंभ के तौर पर राज्य के अख़्तियार में है कि वह ऐसे क़ानून को लागू करे या वापस ले ले’ -(जस्टिस बेग)। ‘निजी स्वतंत्रता मौलिक अधिकार है इसलिए अनुच्छेद 21 के तहत इस अधिकार को लागू करने से मना करने का अर्थ है कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण या किसी और क़ानून को सस्पेंड करना भी है’ -(जस्टिस वाई वी चंद्रचूड़)। ‘संविधान... कहता है कि अगर कोई ग़ैर क़ानूनी तौर पर भी हिरासत में लिया जाता है तो भी वह निजी स्वतंत्रता के अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकता यदि अनुच्छेद 21 का उल्लेख करते हुए भी अनुच्छेद 359 की उप धारा 1 के तहत प्रेजिडेंशियल ऑर्डर व्यवहार में हो’ -(जस्टिस भगवती)।

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यह फ़ैसला संविधान और जनता विरोधी था। लेकिन रविंद्र नाथ टैगोर के ‘एकला चलो’ के सिद्धांत के अनुरूप जस्टिस खन्ना ने अलग राह पकड़ी। उन्होंने लिखा, ‘अनुच्छेद 21 को ज़िंदगी और निजी स्वतंत्रता के अधिकार का एकमात्र ख़ज़ाना नहीं कहा जा सकता, जीने का अधिकार और स्वतंत्रता का अधिकार एक सभ्य समाज में किसी मनुष्य का सबसे बहुमूल्य अधिकार है।’ जस्टिस खन्ना ने आगे लिखा, ‘ये मामले न केवल हमारे सामने अत्यंत महत्वपूर्ण और गंभीर सवाल खड़े करते हैं जो न केवल संविधान की प्रक्रिया और उसके अधिकार क्षेत्र को चोट पहुँचाते हैं बल्कि ये जीवन के कुछ बुनियादी सिद्धांतों, मूल्यों और क़ानून के शासन को भी प्रभावित करते हैं... आज ख़तरे में है क़ानून का शासन। यदि कोई अँग्रेज़ जज अपने बड़बोलेपन में कहता है कि इंग्लैंड की हवा अश्वेतों के लिए कुछ ज़्यादा ही साफ़-सुथरी है, उसी तरह हम भी कह सकते हैं कि इस पवित्र भूमि पर क़ानून का शासन का सूर्यास्त नहीं होगा; और संविधान और भारतीय क़ानून इस बात की इजाज़त नहीं देता है कि जीवन और स्वतंत्रता को कार्यपालिका की दया पर छोड़ दिया जाए और उसके ख़िलाफ़ किसी भी अदालत में कहीं कोई अपील हो ही न? उस वक़्त भी जब वह क़ानून के ख़िलाफ़ काम करे या फिर बदले की भावना से काम करे। ऐसे में सवाल यह है कि अदालत के ज़रिए जो क़ानून बुलंद रहते हैं क्या इस ख़तरे के मद्देनज़र शांत कर दिए जाएँ?’

कश्मीर में अधिकार 

ये सब कुछ आपातकाल के समय हुआ। आज कहीं आपातकाल नहीं लगा है फिर भी जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक और मौलिक अधिकार निलंबित हैं। इससे बुरा यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इन अधिकारों को लागू करने वाले संवैधानिक उपायों को भी छीन लिया है। यह दुखद है कि बंदी प्रत्यक्षीकरण के मामले को अदालत ने क़ानून के शासन की अनुपस्थिति को सही ठहराते हुए बहुत हल्के में लिया। एक-दूसरे से जुदा दो मामलों में अदालत के रवैये ने अदालत की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

अनुच्छेद 370 हटाने के बाद जम्मू-कश्मीर में पाबंदी लगाने को जब अदालत में चुनौती दी गयी तो सर्वोच्च अदालत ने 12 अगस्त 2019 को दो हफ़्ते के लिए सुनवाई स्थगित कर दी। अदालत ने अटॉर्नी जनरल के माध्यम से केंद्र की यह दलील मान ली, ‘हम जम्मू-कश्मीर में क़ानून व्यवस्था की स्थिति बनाने में लगे हैं और इसको सामान्य होने में कुछ दिन लगेंगे।’ अदालत ने टिप्पणी की, ‘हालात ऐसे हैं कि किसी को नहीं मालूम कि वहाँ क्या हो रहा है। हालात सामान्य करने के लिए कुछ समय दिया जाना चाहिए।’

दूसरे शब्दों में जीवन और स्वतंत्रता के अधिकारों की संरक्षक सर्वोच्च अदालत ने अपने कर्तव्य, अपनी ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार को सौंप दी।

इसके बाद 16 अगस्त को अदालत की एक और बेंच ने संचार माध्यमों पर लगी हुई पाबंदी लगाने के संदर्भ में कहा, ‘हमें और समय देना चाहिए।’ और यह कहते हुए मामले को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने निवेदन किया था कि अगले कुछ दिनों में ‘हालात सामान्य हो जाएँगे’ और ‘ये सुरक्षा से जुड़े हुए मामले हैं, लिहाजा सरकार और सेना के लिए छोड़ देना चाहिए।’

इन मामलों में अदालत की सुनवाई के दौरान एडीएम जबलपुर मामले का ध्यान हो आया। भारतीय सेना की अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाइयों में से एक में 10 लाख से ज़्यादा लोगों के ऊपर पाबंदियाँ थोपी गईं और यह सब हुआ सीआरपीसी की धारा 144 के तहत। अनुच्छेद 21 जीवन और स्वतंत्रता के बारे में बात करता है। सुप्रीम कोर्ट ने बिना सरकार को सबक़ सिखाए इस महत्वपूर्ण मामले को टाल दिया। सबसे पहला सवाल तो यही है कि सरकार अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद से ही राज्य में हालात सामान्य करने में असफल रही है और अब सरकार ने सर्वोच्च अदालत से और समय माँगने के लिए गुहार लगाई है। हालात ऐसे हैं कि ‘किसी को नहीं मालूम कि वहाँ क्या हो रहा है।’ इसी आधार पर यह अदालत का कर्तव्य था कि वह सचाई की पड़ताल करती, वह ‘सुरक्षा’ और ‘क़ानून व्यवस्था’ के नाम पर इंसाफ़ करने से नहीं हिचक सकती।

इसका यह मतलब नहीं है कि राष्ट्र की सुरक्षा से समझौता किया जाना चाहिए। इसका मतलब यह भी नहीं है कि क़ानून व्यवस्था का नियंत्रण नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन ये दोनों ज़िम्मेदारियाँ सरकार की हैं। लेकिन अगर सरकार को इसको लागू करने में मौलिक और बुनियादी मानवाधिकारों का हनन करना पड़ता है तो इसका मतलब साफ़ है कि सरकार अपने काम में असफल रही है।

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चिदंबरम मामला

इसी तरह से पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम के मामले में व्यक्तिगत नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के मसले पर अदालत का रवैया तकलीफदेह है। 14 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई की एसएलपी यानी स्पेशल लीव पीटिशन स्वीकार कर ली और उसी दिन इस मामले को चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया के सामने आख़िरी मामले की तरह सूची में सुनवाई के लिए डाल दिया। इस मामले में मद्रास हाई कोर्ट के आदेश को स्थगित कर दिया गया। 22 फ़रवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई के मामले को लाने पर उसी दिन सुनवाई के लिए उसको सूचीबद्ध कर लिया। इन दोनों मामलों में कार्ति चिदंबरम जुड़े हुए हैं। इसके विपरीत 21 अगस्त 2019 को एक निहायत क़ानूनी आधार पर पी. चिदंबरम की याचिका को स्वीकार नहीं किया गया। 16 अगस्त को अदालत ने सीरियस फ्रॉड इंवेस्टिगेशन ऑफ़िस की एक याचिका स्वीकार की और उसी दिन उसे सुनवाई के लिए सूचीबद्ध कर लिया। साथ ही मद्रास हाई कोर्ट के आदेश को स्थगित भी कर दिया। ऐसे में उसी दिन मामले (चिदंबरम केस) को सूचीबद्ध नहीं करना निराशाजनक है।

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यहाँ यह कहने का बिलकुल मतलब नहीं है कि चिदंबरम की जाँच नहीं हो, लेकिन एक ऐसे मामले में जहाँ पर एक रिटायर होने वाले जज ने फ़ैसला दिया और वह भी दोपहर बाद तीन बजे और याचिकाकर्ता के लिए सुप्रीम कोर्ट से राहत पाना असंभव हो गया। साथ ही साथ अब तक गिरफ़्तारी पर लगी अंतरिम रोक भी हटा ली। यह ऐसा मामला था जिसमें सर्वोच्च अदालत को फ़ौरन दखल देना चाहिए था।

सर्वोच्च न्यायालय जिसने गुरबक्ष सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब के मामले में अग्रिम जमानत के अधिकार को पवित्र माना था, उसी ने अपने फ़ैसले से इसको महत्वहीन कर दिया। क्या न्यायपालिका को यह बताने की ज़रूरत है कि अदालत किसी भी व्यक्ति को पहले से ही जज नहीं कर सकती। 

न्यायपालिका को यह छवि बदलने की ज़रूरत है कि उसे संवैधानिक और क़ानूनी अधिकारों की सुरक्षा के लिए संस्था नहीं बनाई गई है और अगर वह इसमें असफल होती है तो क़ानून के शासन और लोकतंत्र की सुरक्षा चक्र के तौर पर उसका कद और रुतबा दोनों ही घटेगा।

(‘द हिंदू’ से साभार।)
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