loader

उधम सिंह: जिन्होंने जलियाँवाला नरसंहार का बदला लिया, हँसते-हँसते फाँसी के फंदे पर झूल गये

जलियाँवाला बाग़ नरसंहार के लिए उधम सिंह इंग्लैण्ड की हुकूमत को उसके घर में घुसकर सबक़ सिखाना चाहते थे। उनके निशाने पर पंजाब का पूर्व गवर्नर ओ डायर आया। अंत में वह दिन भी आया जब क्रांतिवीर उधम सिंह को फाँसी दी गई। वही क्रांतिकारियों का अंदाज़! हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को चूमकर उधम सिंह झूल गए। आज उनकी शहादत का दिन है। भारत माता को आज़ाद कराने का यह अंदाज़ क्या आज देश को याद है?
रविकान्त

आज क्रांतिकारी उधम सिंह की शहादत का दिन है। आज ही के दिन यानी 31 जुलाई 1940 को उधम सिंह को फाँसी की सज़ा हुई थी। उधम सिंह का जीवन और उनकी शहादत कई मायने में अलग है। उनकी ज़िंदगी रूमानियत में डूबी कहानी है।

उधम सिंह को हम एक ऐसे नौजवान के रूप में जानते हैं, जो एक संकल्प को 21 साल तक अपने सीने में दबाए रखता है। यह संकल्प एक घटना से जुड़ा हुआ है। 13 अप्रैल, 1919 को पंजाब के अमृतसर स्थित जलियाँवाला बाग़ में जनरल डायर के आदेश पर निहत्थे और बेकसूर हज़ारों भारतीयों को मार दिया गया था। इस सभा में बीस साल का यह नौजवान भी था जिसने अपनी आँखों से इस हौलनाक मंजर को देखा था। कहा जाता है कि उसी दिन उधम सिंह ने यह प्रण किया कि जनरल डायर को मारकर इस नरसंहार का बदला ज़रूर लेगा।

ताज़ा ख़बरें

21 साल के बाद 13 मार्च, 1940 की शाम को लंदन के खचाखच भरे कैक्सटन हॉल में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसाइटी की गोष्ठी समाप्त होने के बाद पंजाब प्रांत के पूर्व गवर्नर ओ डायर पर उधम सिंह ने अपनी रिवाल्वर से तड़ातड़ दो गोलियाँ दाग दीं। वे भागे नहीं। उधम सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। कोर्ट ने दो पेशी के बाद उधम सिंह को फाँसी की सज़ा सुनाई। 31 जुलाई, 1940 को ब्रिटेन में क्रांतिकारी उधम सिंह को फाँसी दे दी गई। देश के बाहर फाँसी की सज़ा पाने वाले उधम सिंह दूसरे क्रांतिकारी थे। उनसे पहले कर्नल वाइली की हत्या के जुर्म में 1909 में क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा को इंग्लैण्ड में फाँसी दी गई थी।

उधम सिंह द्वारा जनरल ओ डायर की इंग्लैण्ड में हत्या करके, जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के बदला लेने की अनुगूंज भारत भी पहुँची। 17-19 मार्च, 1940 को रामगढ़ में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में उधम सिंह ज़िंदाबाद के नारे लगे। ब्रिटिश साम्राज्य के घर में घुसकर एक पूर्व राजनयिक की हत्या करने के उधम सिंह के इस साहस की कांग्रेस अधिवेशन में सराहना की गई। उधम सिंह के साहस और बलिदान की इस अमिट कहानी को केवल एक नौजवान के संकल्प और बदला लेने के जुनून के तौर पर ही रेखांकित किया गया है। 

सच्चाई यह है कि उधम सिंह भगत सिंह के साथी थे और उन्हीं की तरह के क्रांतिकारी भी। उनके बलिदान को भी भगत सिंह की तरह ही साम्राज्यवाद से मुक्ति के महत उद्देश्य के तौर पर देखा जाना चाहिए।

उधम सिंह की ज़िंदगी बेहद संघर्ष भरी

एक सच यह भी है कि उधम सिंह की ज़िंदगी तमाम क्रांतिकारी साथियों से कहीं अधिक संघर्ष भरी रही है। 26 सितंबर, 1899 को पंजाब के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव में उधम सिंह का जन्म हुआ था। बचपन में उनका नाम शेर सिंह था। सात साल की उम्र में माँ-बाप दोनों का साया उठ जाने से वह अनाथ हो गए। तब उन्हें अपने बड़े भाई मुक्ता सिंह के साथ अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। अनाथालय में उन्हें उधम सिंह नाम मिला और बड़े भाई को साधु सिंह। 1917 में साधु सिंह की भी मृत्यु हो गई। निपट अकेले उधम सिंह ने हिम्मत नहीं हारी। 1919 के जलियाँवाला कांड होने के बाद के स्वतंत्रता आन्दोलन में दाखिल हुए। साथ ही साथ वह पढ़ाई भी कर रहे थे। पढ़ाई के दौरान ही लाहौर में भगत सिंह से उनकी मुलाक़ात हुई थी। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उधम सिंह वंचित किसान कंबोज समुदाय से आते थे। उधम सिंह का बलिदान स्वाधीनता आन्दोलन में दलितों की भागीदारी को दर्शाता है। यह दीगर बात है कि दलितों के बलिदान को न तो इतिहास में जगह मिली और न स्वाधीनता संग्राम सेनानियों की तैयार सूची में उनका नाम दर्ज किया गया।

उधम सिंह के बलिदान को नए संदर्भ में समझने की ज़रूरत है। स्वाधीनता आन्दोलन में कई छोटी-बड़ी धाराएँ देश की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रही थीं। 1885 में स्थापित कांग्रेस के प्रारंभिक वार्षिक अधिवेशन ब्रिटिश हुकूमत में प्रशासनिक सुधार और भारतीयों के प्रतिनिधित्व की माँग पर केन्द्रित हुआ करते थे। इसी के समानांतर बंगाल से उभरा क्रांतिकारी आन्दोलन अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद से मुक्ति के संकल्प के साथ आगे बढ़ता दिखाई देता है।

कांग्रेस की नरम और गरम दलीय राजनीति के बरक्स क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों के अत्याचार, अन्याय और अपमान का बदला लेने, उनकी ज़्यादतियों पर प्रहार करने की रणनीति अपनाई। वास्तव में देशभक्ति और राष्ट्रवाद के सबसे मौजूँ प्रतीक और नारे क्रांतिकारी आन्दोलन ने ही सृजित किये। भारत माता की संकल्पना, वंदे मातरम् और इंक़लाब ज़िंदाबाद जैसे नारों के साथ क्रांतिकारियों ने आत्मबलिदान को परम नैतिक मूल्य बनाया। राष्ट्रवाद की एक स्पष्ट विचारधारा, उसके प्रतीक और नैतिक मूल्य पहले-पहल क्रांतिकारी आन्दोलन में ही दिखाई पड़ते हैं। इतना ही नहीं, इन नौजवानों के पास भारत के भविष्य और उसकी राजनीति की भी बहुत स्पष्ट समझ दिखाई देती है।

समाजवादी देश का सपना

8 और 9 सितंबर 1928 को फीरोजशाह कोटला मैदान, दिल्ली में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की बैठक में ब्रिटिश शासन को ख़त्म करके भारत को एक समाजवादी देश के रूप में स्थापित करने का सपना क्रांतिकारियों के द्वारा बुन लिया गया। इसके बरक्स मुसलिम लीग और हिन्दू महासभा ब्रिटिश हुकूमत का गाहे-ब-गाहे सहयोग करते हुए धार्मिक राष्ट्रवाद के मुद्दे को उठा रहे थे। ‘कौम’ के आधार पर दो अलग-अलग राष्ट्र की बात करने वाले ये दोनों संगठन बुनियादी तौर पर एक ही दृष्टि से सम्पन्न थे।

कांग्रेस धार्मिक राष्ट्रवाद के विचार के विरुद्ध क्रांतिकारी आन्दोलन के मूल्यों से अपने को समृद्ध कर रही थी। साथ ही उसने ब्रिटिश पार्लियामेंट के पैटर्न और भारत की परंपराओं को भी अपने राष्ट्र के विचार में जोड़ा। वस्तुतः कांग्रेस और उसकी विचारधारा क्रांतिकारी आन्दोलन के प्रतीकों और नारों की जनपक्षीय व्याख्या करती है। अर्थात् एक प्रकार से क्रांतिकारी आन्दोलनकारियों के राष्ट्रवाद की बुनियाद पर कांग्रेस का राष्ट्रवाद गढ़ा जाता है जिसमें स्पष्ट तौर पर राष्ट्र का अर्थ लोगों से हो जाता है। 

इसीलिए गाँधी के लिए राष्ट्रवाद का अर्थ अंतिम व्यक्ति के आँसू पोंछना है। भारत माता को परिभाषित करते हुए नेहरू कहते हैं कि देश का किसान, मज़दूर, स्त्री, दलित, अमीर-ग़रीब यानी भारत के लोग ही भारत माता हैं।

अंग्रेज़ी हुकूमत के जुल्मों का एक लंबा इतिहास है। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड उसकी एक निर्मम कड़ी है। इसकी पृष्ठभूमि में अंग्रेज़ों का काला क़ानून रोलेट एक्ट है। इस क़ानून के तहत अंग्रेज़ सरकार किसी भी भारतीय को बिना कारण बताए गिरफ्तार कर सकती थी। उसे जितने दिन चाहे, बिना किसी सुनवाई के, जेल में रख सकती थी। गाँधी ने उसे काला क़ानून क़रार देते हुए कहा था कि ‘वकील, दलील और अपील’ की कोई गुँजाइश इसमें नहीं है। इसे भारत स्वीकार नहीं करेगा। फलस्वरूप जगह-जगह विरोध प्रदर्शन हुए। 

डायर: गोलियाँ ख़त्म होने तक चलती रही बंदूकें

अमृतसर में रोलेट एक्ट का विरोध करने पर डॉ. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू; दो बड़े कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इस गिरफ्तारी के विरोध में एक सभा जलियाँवाला बाग़ में आयोजित की गई। अमृतसर का अंग्रेज़ पुलिस अधिकारी डायर अपने सिपाहियों के साथ वहाँ पहुँचता है। बाग़ के एक मात्र दरवाज़े पर तैनात अपने सिपाहियों को डायर सभा में उपस्थित लोगों पर गोलियाँ चलाने का आदेश देता है। बिना किसी चेतावनी के क़रीब दस मिनट तक सिपाही लोगों पर लगातार गोलियाँ बरसाते रहे। गोलियाँ ख़त्म होने के बाद ही बंदूक़ें खामोश हुईं।

इस हत्याकांड की जाँच के लिए अंग्रेज़ सरकार द्वारा नियुक्त हंटर कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक़ 279 लोग मारे गए और 1200 लोग घायल हुए। जबकि हक़ीक़त में मरने वालों की संख्या हज़ारों में थी। यह घटना इतनी अमानवीय और नृशंस थी कि पूरी दुनिया में ब्रिटिश सरकार की तीव्र आलोचना हुई। अंग्रेज़ सरकार ने अमृतसर के पुलिस अधिकारी डायर को बर्खास्त करके वापस इंग्लैण्ड भेज दिया।

रोलेट एक्ट के विरोध में हुए आंदोलन को कुचलने के लिए पंजाब के गवर्नर जनरल ओ डायर ने अपने हमनाम सबसे बर्बर पुलिस अधिकारी डायर को अमृतसर में नियुक्त किया। पहुँचते ही उसने अमृतसर के बेकसूर और निरीह लोगों को रेंगकर चलने के लिए मजबूर किया। पूरे शहर में कोई भी उसके जानते हुए सीधे नहीं चल सकता था। इस अमानवीयता से भी उसका दिल नहीं भरा तो उसने बाग़ में एकत्रित लोगों को बर्बरतापूर्वक गोलियों से छलनी करवा दिया। बदले की इस आक्रामक कार्रवाई के पुरस्कार स्वरूप उसे, बर्खास्त होने के बावजूद, इंग्लैण्ड में कई संगठनों द्वारा कई स्थलों पर सम्मानित किया गया। 

उधम सिंह ने जनरल डायर से बदला लेने की बात मन में ठान ली थी। लेकिन जिस डायर ने जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड को अंजाम दिया था, वह 1927 में ही लकवे और अन्य बीमारियों की वजह से मर गया था। तब बदला किससे और कैसे?

वास्तव में उधम सिंह कोई जुनूनी क्रांतिवीर नहीं थे बल्कि वे स्वाधीनता की चेतना और देशभक्ति की भावना से परिपूर्ण व्यक्ति थे। इसका प्रमाण यह है कि उधम सिंह 1924 में गदर पार्टी से जुड़े। यह संगठन कनाडा और अमेरिका में बसे भारतीयों द्वारा 1913 में भारत में क्रांति करने के उद्देश्य से बनाया गया था। गदर पार्टी से जुड़ने के बाद उधम सिंह जिम्बाब्वे, दक्षिण अफ़्रीका, अमेरिका और ब्राज़ील की यात्रा पर गए जहाँ उन्होंने भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन के लिए चंदा जुटाया और समर्थन माँगा। भगत सिंह के बुलाने पर वह 1927 में भारत लौट आए। वहाँ से वह गोला-बारूद और रिवाल्वर भी साथ लाए। रिवाल्वर और गदर पार्टी का प्रतिबंधित अख़बार ‘गदर की गूंज’ रखने के जुर्म में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर मुक़दमा चला और पाँच साल की सज़ा हुई। जेल में उनकी मुलाक़ात भगत सिंह से हुई। दोनों में दोस्ती ही नहीं गहरी समानता भी थी। दोनों पंजाब के रहने वाले थे। एक ही तरह के जुर्म में दोनों को फाँसी की सज़ा हुई थी। दोनों नास्तिक थे और दोनों ने ही फाँसी लगने से पहले धर्मग्रंथ का पाठ करने से इनकार कर दिया था।

विचार से ख़ास

स्वाधीनता आन्दोलन की क्रांतिकारी धारा अपने आपमें बेहद अनूठी है। यह धारा सर्वाधिक धर्मनिरपेक्ष, जातिनिरपेक्ष और यहाँ तक कि कुछ मामलों में आस्था निरपेक्ष भी थी। हिन्दू, मुसलिम, सिख एकता की सबसे मज़बूत मिसाल क्रांतिकारी आन्दोलन ही था। यह धारा है जिसने व्यक्ति के स्थान पर विचार को तवज्जो दी है। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, दुर्गा भाभी, चन्द्रशेखर आज़ाद, अशफाक आदि क्रांतिकारियों के साथ उधम सिंह जैसे वंचित किसान कंबोज नौजवान भी पूरे गुरूर के साथ मौजूद थे। ध्यान देने वाली बात यह है कि डॉ. अम्बेडकर  असमानता, भेदभाव और अन्याय पर आधारित वर्ण-व्यवस्था के विरोध में आन्दोलन कर रहे थे। लेकिन क्रांतिकारियों के बीच किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं था। वे सब भारत माता की संतान थे और उस माँ की आज़ादी के लिए कुर्बानी देने के लिए तैयार थे।

क्रांतिकारी धर्म और जाति से परे समता और सौहार्द्र पर आधारित भारतीयता के कायल थे। उधम सिंह इसकी मिसाल बने। उन्होंने अपना नाम राम मुहम्मद सिंह आज़ाद रख लिया था। यह नाम हिन्दू मुसलिम सिख तीनों पंथों का प्रतिनिधित्व करता है और अंतिम शब्द स्वाधीनता का।

संभवतया यही उनका असली पंथ था। भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद आदि क्रांतिकारियों की शहादत के बाद उधम सिंह संभवतया इस आन्दोलन की अंतिम मज़बूत कड़ी थे। 

पाँच साल की सज़ा से छूटने के बाद वह कोई बड़ा धमाका करना चाहते थे। अंग्रेज़ सरकार की निगरानी के बावजूद वह एक दिन निकल भागे। कश्मीर पहुँचकर उन्होंने भगत सिंह का गेटअप धारण किया। इससे भी पता चलता है कि उधम सिंह क्रांतिवीर भगत सिंह से कितने प्रेरित थे। कश्मीर से वह जर्मनी चले गए। और फिर जर्मनी से निकलकर अपना मक़सद पूरा करने के लिए अंतिम पड़ाव पर इंग्लैण्ड पहुँचे। 

वह इंग्लैण्ड की हुकूमत को उसके घर में घुसकर सबक़ सिखाना चाहते थे। उनके निशाने पर पंजाब का पूर्व गवर्नर ओ डायर आया। ओ डायर तक पहुँचने के लिए उन्हें बहुत मशक्कत करनी पड़ी। जिस कैक्सटन हॉल में ओ डायर को भाषण देना था, वहाँ एक मोटी किताब के पन्नों को करीने से काटकर उसके भीतर रिवाल्वर को छिपाकर उधम सिंह हॉल में दाखिल हो गए। जैसे ही कार्यक्रम ख़त्म हुआ उधम सिंह ने डायर पर बंदूक़ चला दी। अदालत में उन्होंने डायर की हत्या करना स्वीकार किया और अपने लिए मृत्युदंड की माँग की। साथ ही उन्होंने अदालत में अपने लिखे हुए नोट पढ़कर सुनाने की इजाज़त माँगी। जज के तैयार होने पर उन्होंने नोट पढ़कर सुनाया। इसमें ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुर्दाबाद! और भारतमाता की जय! जैसे नारे बार-बार लिखे हुए थे।

अंत में वह दिन भी आया जब क्रांतिवीर उधम सिंह को फाँसी दी गई। वही क्रांतिकारियों का अंदाज़! हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को चूमकर उधम सिंह झूल गए। भारत माता को आज़ाद कराने का यह अंदाज़ क्या आज देश को याद है?

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
रविकान्त
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें