जम्हूरियत वो तर्जे हुकूमत है, जिसमें बन्दों को गिना जाता है, तोला नहीं जाता।।
चंद्रशेखर जी की राजनीतिक शख्सियत पर यह शेर बिल्कुल मौजूँ है। समाजवादी पार्टी से अलग होने- कांग्रेस में जाने और फिर आपातकाल में कांग्रेस से अलग होने के बाद भले ही वे राष्ट्रीय राजनीति में अग्रणी भूमिका में रहे। पर जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के बावजूद वे कर्नाटक को छोड़कर ऐसा सांगठनिक ढांचा नहीं खड़ा कर पाए, जो आगे उनकी राजनीतिक सफलता की राह को आसान बनाता। दलीय राजनीति से इतर राजनीतिक मित्रों का उनका 'नेटवर्क' ना केवल बड़ा था, बल्कि कई बार इस वजह से भी उनके अपने भी उनका साथ छोड़ते-आते-जाते रहें। कुछ उनकी इस राजनीतिक पसंदगी- नापसन्दगी की वजह से नफ़रत भी करते रहें। पर चंद्रशेखर जी कभी इसकी परवाह कहां करते थे।
एक जमाने में स्वर्गीय मधुदंडवते और सुरेन्द्र मोहन, चंद्रशेखर के बड़े करीबी रहे। पर जनता पार्टी का अध्यक्ष बनाने की बारी आयी, तो चंद्रशेखर ने अजित सिंह का नाम आगे बढ़ा दिया। उत्तर प्रदेश में जनता दल की सरकार के गठन के वक्त अजित सिंह का समर्थन करने के नाते मुलायम सिंह की नाराजगी झेलनी पड़ी।
बिहार में लालू प्रसाद यादव की मुख्यमंत्री की जीत सुनिश्चित करने के लिए अपने करीबी रहे रघुनाथ झा को मैदान में उतार दिया। तब मुख्यमंत्री की दौड़ में रामसुंदर बाबू का नाम आगे चल रहा था।
चंद्रशेखर के नेतृत्व में बनी समाजवादी जनता पार्टी का सांगठनिक ढांचा भी न कभी उत्तर प्रदेश में मजबूत हुआ ना बिहार में। अंत में मुलायम सिंह भी समाजवादी जनता पार्टी से अलग होकर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी खड़ा करने में लग गये।
वी पी सिंह के जमाने में बने जनता दल-समाजवादी जनता पार्टी का सिराजा वी पी सिंह, चंद्रशेखर के सामने बिखर कर खंड-खंड हो गया। चंद्रशेखर अक्सर कहा करते थे कि-“राजनीति संभावनाओं का खेल है। कब कौन साथ होगा, कौन अलग हो जाएगा, कहा नहीं जा सकता।”
महाराष्ट्र की राजनीति में ताकतवर नेता के रूप में शरद पवार की पहचान एक अरसे से कायम है। आज भी वे विपक्षी एकता की धुरी बने है। चंद्रशेखर से उनकी राजनीतिक नजदीकी भी खासा चर्चित रही है। शरद पवार से इस राजनीतिक नजदीकीपन की वजह से भी तब हरिकिशन सिंह सुरजीत वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और चंद्रशेखर के अपने करीबी रहे समाजवादी रूझान वाले सुरेन्द्र मोहन जैसे लोग चंद्रशेखर से दूरी बनाये रहें।
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शायद इस वजह से भी कि कहीं खराब स्वास्थ्य के कारण राजनीतिक रूप अलग हो चुकें, वी पी सिंह की जगह चंद्रशेखर, कांग्रेस- भाजपा के विकल्प में बन रहे मोरचे के केंद्र में न आ जाये। बावजूद इसके चन्द्रशेखर शरद पावर को कभी राजनीतिक रूप से भरोसेमंद सहयोगी नहीं मानते थे। शरद पवार के मुंह पर अक्सर कह देते थे कि जरूरी नहीं कि जो बात शरद पवार दिल्ली में कह रहें है, उस पर पुणे अथवा बम्बई जाते-जाते कायम भी रहें।
चंद्रशेखर कम्युनिस्ट पार्टी की इस रणनीति को बखूबी समझ रहे थे। इसलिए अकेले ही अपने बलबूते संसदीय मंच का इस्तेमाल कर कांग्रेस-भाजपा की नीतियों के विरोध में मुखर होकर अपनी आवाज उठाते रहें।
वे अपने नजदीकी मित्रों की इस राय से कभी सहमत नहीं हुए कि-“उन्हें संसदीय राजनीति से अलग होकर देश के नवनिर्माण के काम में लगना चाहिए। सत्ता विरोधी- हाशिये पर खड़ी जमात को आगे कर राजनीति को एक नई दिशा देने की कोशिश करनी चाहिए।”
हालांकि वे इस संभावना से इनकार नहीं करते थे। इस मकसद से ही उन्होंने कन्या कुमारी से नई दिल्ली के राजघाट तक पदयात्रा की। भारत यात्रा के बाद भारत में शिक्षा-स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों की शिनाख्त उन्होंने की। इस बाबत देश में कई जगह भारत यात्रा केंद्रों की स्थापना भी हुई। पर कहा जाता है कि राजनीति में कई बार परिस्थितियां ऐसा खेल खेलती हैं कि अच्छा मकसद भी विफल हो जाता है। चंद्रशेखर के साथ भी कुछ वैसा ही हुआ। राजीव गांधी की सरकार में मंत्री रहे वी पी सिंह बोफोर्स तोप घोटाले का मामला उठाकर रातों रात कांग्रेस विरोधी राजनीति के केंद्र में आगे आ गये।
चंद्रशेखर बोफोर्स तोपों में दलाली के मामले को "एक सब इंस्पेक्टर स्तर के जाँच का ही मामला मानते थे।” इस वजह से भी चंद्रशेखर की यह 'इमेज' बनी कि उनके लिए राजनीति में भ्रष्टाचार कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। जैन हवाला कांड की डायरी में जब लालकृष्ण आडवाणी का नाम सामने आया। तब सबसे पहले उनके पक्ष खड़े होने वालों में चंद्रशेखर ही थे। अपने तर्कों के साथ कि लालकृष्ण आडवाणी को बदनाम करना आसान है।
चंद्रशेखर भले ही अपने बलबूते एक मजबूत राष्ट्रीय संगठन नहीं खड़ा कर पाए। पर आजीवन अपने चाहने वाले समर्थकों के बीच 'अध्यक्ष जी ही कहलाते रहे।' एक तरह से वे अपने तमाम आलोचक- समर्थकों के बीच "विरोधियों के बीच संतुलन" साधने में भी कामयाब रहे।
यह उनके व्यक्तित्व का ही कमाल था कि जब भी अपने संसदीय क्षेत्र बलिया के विकास की बात आती, वे साफ कह दिया करते थे कि देश के विकास के साथ ही बलिया का भी विकास हो जायेगा। आप चाहें तो मुझे वोट न दें। जो मुझसे बेहतर हों उसको चुन लें। उनके समर्थक यह मानकर उन्हें वोट करते रहे कि भले बलिया के लिए वे कुछ न करें, पर चंद्रशेखर बलिया की शान हैं और बलिया की पहचान भी।
वे समाजवादी विचारधारा में आचार्य नरेंद्र देव को सर्वश्रेष्ठ मानते थे। यह भी बताते थे कि उनके छात्र जीवन में जिन छात्रों के हाथों में आचार्य जी लिखित 'बौद्ध धर्म' की पुस्तक नहीं होती, उसे कोई भी बौद्धिक नहीं मानता था।
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