इससे पहले कि प्रधानमंत्री, सूबों के मुख्यमंत्री या ज़िले का कोई बड़ा अधिकारी अपने किसी संदेश अथवा सूचना के साथ हमसे मुख़ातिब हो, हमारे लिए अपने ही अंदर यह टटोल लेना ज़रूरी है कि जो कुछ भी पहले कहा गया है और आगे कहा जाने वाला है, क्या उसे हम बिना किसी संदेह के और ईमानदारी के साथ स्वीकार कर रहे हैं।
हमें किसी भी क्षण ऐसा महसूस नहीं होता कि कहीं कुछ ऐसा है जो हमारे साथ शेयर नहीं किया जा रहा है, एक-एक बात तौल-तौल कर कही जा रही है, कोई लिखी हुई स्क्रिप्ट पढ़ी जा रही है, सारी बातें खोलकर और खुलकर नहीं बताई जा रही हैं आदि- आदि।
देश-हित में सरकारों को कई बार ऐसा करना भी पड़ता है। मसलन, सामरिक युद्धों के दौरान प्रत्येक देश का ‘राष्ट्र-हित’ दूसरे से अलग होता है, चाहे फिर वह नज़दीक का पड़ोसी ही क्यों न हो। पर कोरोना से लड़ाई तो एक वैश्विक संघर्ष है। क्या उसमें भी ऐसा हो सकता है?
अपने ही नागरिकों के साथ सही सूचना शेयर न करने को लेकर सवाल पैदा होता है। उदाहरण के तौर पर, चीन द्वारा कोरोना से हुई मौतों के सही आँकड़ों को छुपाए जाने को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं।
चीन से पूछा जा रहा है कि 140 करोड़ की उसकी आबादी में मरने वालों का आंकड़ा केवल 4,633 का ही कैसे हो सकता है जबकि कोरोना का सबसे पहले विस्फोट ही उसके यहाँ वुहान में हुआ था?
अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों के मुक़ाबले चीन में तो स्वास्थ्य सम्बन्धी सेवाओं का ढाँचा काफ़ी कमज़ोर है। अमेरिका की आबादी चीन की आबादी के एक चौथाई से भी कम है और यहां मृतकों की संख्या चीन में हुई मौतों से चौदह गुना (58 हज़ार) से भी ज़्यादा है।
एक करोड़ बीस लाख की आबादी वाले छोटे से राष्ट्र बेल्जियम में जहाँ किसी भी अन्य देश के मुक़ाबले चिकित्सा सुविधाएँ सर्वाधिक हैं, वहां मृतकों की संख्या 7,331 बतायी गई है। बताया गया है कि वहाँ इंटेन्सिव केयर के 43 प्रतिशत बेड्स ख़ाली पड़े हैं।
काफी सतर्क है बेल्जियम
बेड्स ख़ाली होने का कारण यह दिया गया है कि बेल्जियम इस समय अपने यहाँ होने वाली प्रत्येक मौत को रिकॉर्ड पर ले रहा है और उसके कारणों में जा रहा है। उन नर्सिंग होम्स में होने वाली मौतों को भी, जहाँ केवल बुजुर्गों की ही देखभाल होती है और इस बात की तत्काल पुष्टि नहीं हो पाती कि मौत का कारण कोरोना ही रहा होगा।
ऐसा केवल यह पता करने के लिए किया जा रहा है कि मरने वाले बुजुर्ग में क्या लक्षण थे और कौन लोग उनके सम्पर्क में आए थे। इस सबका उद्देश्य केवल यही है कि अपने नागरिकों के सामने महामारी का स्पष्ट चित्र हो और ‘हॉट स्पॉट्स’ की वास्तविक संख्या का पता लगाया जा सके।
बेल्जियम का अपने नागरिकों को सचेत करने और सूचना देने का तरीक़ा निश्चित ही चीन सहित कई अन्य देशों से अलग माना जा सकता है, जहाँ अलग-अलग स्थानों और कई दूसरे कारणों से होने वाली सभी उम्र की मौतों को कुल आँकड़ों में शामिल नहीं किया जा रहा है और अगर ऐसी जगह सम्भावित हॉट स्पॉट्स हैं, तो वे अभी पहुँच से बाहर हैं।
भारत एक प्रजातांत्रिक देश है, जहाँ सूचनाओं को गोपनीय नहीं रखा जाता। जनसंख्या की तुलना में मृत्यु के कम आँकड़ों को लेकर लॉकडाउन के अलावा इस एक और तथ्य को गिनाया जा रहा है कि हमारे यहाँ अमेरिका-यूरोप के विपरीत 90 प्रतिशत आबादी 60 वर्ष से कम लोगों की है जबकि वहाँ मृतकों में ज़्यादातर इस आयु से ऊपर के लोग हैं। इस तर्क को हम स्थितियाँ सामान्य होने तक के लिए स्वीकार भी कर सकते हैं।
लॉकडाउन खुलने पर सवाल पूछेंगे लोग
मुद्दा यह है कि स्थितियाँ जैसे-जैसे सामान्य होती जाएँगी, जैसे-जैसे लॉकडाउन में ढील मिलती जाएगी, लोग आपस में मिलने लगेंगे, एक-दूसरे से सवाल करने लगेंगे, उन प्रियजनों के बारे में पूछताछ करने लगेंगे, जो इस दौरान अनुपस्थित हो गए हैं और कई तरह की दबी हुई परतें उभर कर ऊपर आने लगेंगी। चर्चाएँ की जाएँगी कि उनके यहाँ टेस्टिंग की, क्वरेंटीन की, आईसीयू की, वेंटिलेटर की, चिकित्सकों, दवाओं और देखभाल की, मुसीबत में फँसे लोगों को उपलब्ध अनाज और राहत की सुविधाएँ किस प्रकार की थीं!पारदर्शी ढंग से मिली जानकारी?
लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद की परिस्थितियों के लिए भी हमें एक संगठित राष्ट्र के रूप में अपने शासकों-प्रशासकों की ओर से हरेक स्तर पर आश्वस्त होना ज़रूरी है कि पूरी लड़ाई के दौरान एक पारदर्शी तरीक़े से अपनी तैयारियों और उपलब्धियों के साथ-साथ कमियों और कमज़ोरियों की भी जानकारी दी गई।
हमारे नीति-निर्माताओं के लिए इस बात को जान लेना ज़रूरी है कि लोग अब काफ़ी थक चुके हैं - घरों में बंद रहते हुए भी और सड़कों पर पैदल चलते हुए भी। वे अपने दिनों को बस धक्का ही दे रहे हैं।
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