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फ़ोटो साभार: आर्कनेट

हिंदुत्ववादी सोच से हुई फ़तेहपुर सीकरी की बर्बादी?

फ़तेहपुर सीकरी के साथ-साथ आगरा, दिल्ली और लाहौर- दीवाली की रातें सभी क़िलों, महलों और शहरों में शाही दीयों और कंदीलों से जगमगाया करती थीं। अंग्रेज़ भी दीवाली के मौक़े पर क़िलों को रौशनी के दीयों से सजवाया करते थे। कांग्रेस के भारत में आहिस्ता-आहिस्ता तेल चुकता गया और दीये बुझते चले गए। मोदी का भारत बनते-बनते न दीप बचा न तेल।
अनिल शुक्ल

जिस दीवाली की रात अयोध्या को साढ़े 5 लाख दीयों के प्रकाश से नहलाया जा रहा था, उसी दीवाली की रात बियावान 'रंग महल' भैंसों के गोबर में नहा रहा था। अबुल फ़ज़्ल द्वारा लिखे गए इतिहास को खंगाला जाए तो पता चलता है कि 'रंगमहल' दीवाली की रात से लेकर पूरे सप्ताह दीयों की रौशनी में दूर-दूर तक झिलमिलाता था। मुग़लों की पहली राजधानी फ़तेहपुर सीकरी के इसी ऐतिहासिक महल में हिन्दुस्तान के बादशाह नूरुउद्दीन मुहम्मद जहांगीर का जन्म हुआ था।

'यूनेस्को विश्व धरोहर' में शुमार फ़तेहपुर सीकरी की देख-रेख का ज़िम्मा 'भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण' (एएसआई) का है। इसकी गिनती भारत के उन 5 ऐतिहासिक स्मारकों में होती है जो भारत सरकार को सर्वाधिक रेवेन्यू दिलवाते हैं। एक समय था जब भारतीय स्थापत्य पर आधारित 'रंग महल' की गिनती भारत के सर्वश्रेष्ठ आवासीय परिसर में होती थी। सालों से यह भवन खंडहर और वीरान पड़ा है।

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सन 2016 में 'एएसआई' के साथ विश्वदायी स्मारकों को सहेज कर रखने के लिए विख्यात संस्था 'वर्ल्ड मॉन्यूमेंट फ़ंड' (डब्ल्यूएमएफ़) का एक क़रार हुआ था जिसके चलते 'डब्ल्यूएमएफ़' को इसके संरक्षण का दायित्व संभालना था। 2016 में इस संरक्षण परियोजना का उद्घाटन भी हो गया लेकिन 'एएसआई' ने इस बाबत संरक्षण कार्य शुरू करने में ख़ाली-पीली 4 साल गुज़ार दिए हैं।

​ऐसा माना जाता है कि जहांगीर के जन्म से पूर्व अकबर ने सलीम चिश्ती से दुआ मांगी थी। मुग़ल शहंशाह ने सलीम चिश्ती की सलाह पर अपनी पत्नी के लिए उन्हीं की ख़ानक़ाह के एक भाग में अपनी पत्नी को प्रसव (30 अगस्त, 1569) तक रहने दिया था। फ़तेहपुर सीकरी स्थित जामी मसजिद के पश्चिम दिशा में स्थित 'रंग महल' हज़रत शेख सलीम चिश्ती की पुरानी कुटिया ('ख़ानक़ाह') का हिस्सा है। तब तक शाही फतेहपुर सीकरी का निर्माण नहीं हुआ था। बाद में जब निर्माण हुआ तो अकबर ने यहाँ 'रंगमहल' बनवाया। 

यह महल दरग़ाह कांप्लेक्स के पीछे संगतराश मसजिद के बायीं तरफ़ रेड सैंड स्टोन (बलुई पत्थर) से बना हुआ है। यह अकबर के हरम का सबसे प्रमुख हिस्सा था। यह मुख्य बेग़म (पटरानी) का आवास था जो आमेर की राजकुमारी और राजा भरमल की पुत्री थीं जिनका नाम हरखा था, यद्यपि किंवदंतियों में इन्हें जोधाबाई कहा गया है। वस्तुतः जोधाबाई जहांगीर की पत्नी मानबाई का नाम था। उससे जुड़े दूसरे भाग में अकबर के हरम का निर्माण हुआ। अबुल फ़ज़्ल के लिखे का यक़ीन किया जाए तो अकबर का हरम उसकी 5000 बीवियों की रिहाइश था। वस्तुतः इनमें बीवियाँ, उनकी सहायिकाएँ, बड़ी तादाद में दरबार की क़नीज़ें, राजमहल की नृत्यांगनाएँ आदि सभी शामिल रही होंगी।

फ़तेहपुर सीकरी 14 वर्ष (1571-1585) राजधानी बना रहा। ब्रिटिश यात्री रॉल्फ़ फ़िच ने अपने प्रवास के दौरान (सन 1585) इसे लंदन से बड़ा और ज़्यादा बड़ी आबादी वाला शहर बताया था।

हालाँकि अकबर सन 1574 में ही पश्चिमोत्तर प्रांन्तों में अफ़ग़ानी जनजातियों के हमलों से निबटने के लिए यहाँ से चला गया था और उसने अस्थायी राजधानी लाहौर को बना लिया था। वहाँ से लौटकर वह आगरा के क़िले में महफूज़ हुआ (1573 में जिसके वर्तमान स्वरूप का  निर्माण पूरा हो चुका था) क्योंकि फ़तेहपुर सीकरी तब पानी के संकट से जूझ रहा था। 1621 में ज़रूर जहांगीर 3 महीने के लिए फ़तेहपुर सीकरी को राजधानी बनाने के लिए मजबूर हुआ था क्योंकि आगरा उन दिनों प्लेग का ज़बरदस्त शिकार हो गया था। 

बहरहाल, राजधानी आगरा, लाहौर, दिल्ली जहाँ भी रही हो, फतेहपुर सीकरी को सभी मुग़ल बादशाहों ने इज़्ज़त बख़्शी और इसकी शाही रौनक़ को बरक़रार रखा। मुगलों ने ही नहीं, अंग्रेज़ों ने और बाद में आज़ाद भारत में लम्बे समय तक फ़तेहपुर सीकरी और इसके परिसर में इससे जुड़े सभी प्रदाय अत्यंत महत्व के स्मारक बने रहे। हाल के सालों में हुई इसकी उपेक्षा के पीछे क्या वजह है, इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

लंबे समय से प्रतीक्षित गुजरात फ़तेह (विजय) की ख़ुशी में अकबर ने सीकरी गाँव की अरावली पर्वत शृंखला पर निर्माणाधीन अपनी नई राजधानी का नाम फ़तेहपुर सीकरी रखा। आसपास की पहाड़ियों और खादानों से तराशे गए लाल बलुई पत्थरों (रेड सैंड स्टोन) की मदद से निर्मित फ़तेहपुर सीकरी का वास्तु विन्यास तुर्की, फ़ारसी, मुग़ल और स्थानीय भारतीय वास्तुकला का अनूठा सम्मिश्रण है। 

जहां तक 'रंग महल' का सवाल है, चूँकि इसे आमेर की राजकुमारी और मुग़लिया राज की 'हिन्दू महारानी' का आवास होना था इसलिए इसके वास्तु शिल्प को पूरम्पूर भारतीय वास्तु कला में रचाया गया। दीवारों पर बने घंटे, शंख, पूज्यनीय वृक्ष इसके उदाहरण हैं।

'रंग महल' में देवी-देवता की मूर्तियाँ

'रंग महल' में स्थान-स्थान पर उन देवी-देवताओं की मूर्तियों को उकेरा गया है जिनकी अभ्यर्थना राजपूती परिवेश में होती थीं। अकबर की पटरानी और जहांगीर की माता विवाह से पहले राजपूत राजकुमारी थीं। विवाहोपरांत भी अकबर ने उनसे इसलाम धर्म स्वीकार करने को कभी नहीं कहा। इस तरह वह आजीवन हिन्दू धर्म की मानने वाली ही रहीं। अकबर के दरबार में नियुक्त सभी राजपूत सेनापति और मनसबदार भी हमेशा हिंदू धर्म के पालनहार ही रहे। भारतीय संगीत और नृत्य के प्रति अकबर के अगाध प्रेम की निशानियाँ भी 'रंग महल' की दीवारों पर साफ़ नज़र आ जाती हैं।

खंडहर होते चले जाने के पहले के सालों तक 'रंग महल' की गिनती देश के सर्वश्रेष्ठ आवासीय परिसर के रूप में होती थी। 'सर्वश्रेठ' माना जाने वाला एक ऐतिहासिक स्मारक कैसे खंडहर में बदल सकता है, कैसे वहाँ आस-पास के लोग अतिक्रमण कर सकते हैं और कैसे यह भैंसों का तबेला बन सकता है, इसका दूसरा उदाहरण किसी और देश में ढूंढे भी नहीं मिल सकता।

जैसा कि ऊपर ज़िक्र हुआ, 'रंग महल' हज़रत सलीम चिश्ती की ख़ानक़ाह का हिस्सा है। इस पूरे ख़ानक़ाह परिसर का स्वामित्व चिश्ती वंश के हाथ में था। सन 1920 में ब्रिटिश वॉइसरॉय लार्ड चेम्सफ़ोर्ड के आदेश पर इसका स्वामित्व 'एएसआई' के हाथ में सौंप दिया गया। इस बारे में चले लंबे मुक़दमे के बाद 1971 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहसिक फ़ैसले में 'एएसआई' को इसका संरक्षक घोषित किया जबकि चिश्ती वंश के सज़्ज़ादानशीन व मुतवल्ली को इसका कस्टोडियन और स्वामी बशर्ते वह इसके संरक्षण और निर्माण में कोई दख़ल नहीं दे सकते। यह व्यवस्था अभी भी चली आ रही है। 

सज़्ज़ादानशीन व मुतवल्ली पीरज़ादा अयाज़ुद्दीन चिश्ती उर्फ़ रईस मियाँ पूरे परिसर (जिसमें 'रंगमहल' भी शामिल है) के अपनी आँखों के सामने ढहते चले जाने को देखकर बेहद दुखी हैं। वह और उनका परिवार पिछली 17 पीढ़ियों से इसी परिसर में रहता आया है। 'सत्य हिंदी' से बातचीत में वह कहते हैं,

‘मेरी तमाम कोशिशों के बावजूद हालात जस के तस हैं बल्कि बद से बदतर होते जा रहे हैं।’ 

16 अक्टूबर 2019 को डीजी 'एएसआई' को लिखा उनका मार्मिक पत्र उनके भीतर उमड़ती उनकी व्यथा को दर्शाता है। पत्र के अंत में वह लिखते हैं, 

इस दौरान यहाँ सभी रिहाइशी क्वार्टरों के हाल ख़तरनाक हैं। इनमें रहने वाले सभी वाशिंदों की जान जोख़िम में है। उधर बीते 2 सालों में ज़बरदस्त अतिक्रमण हुए हैं। मैं इन दो मसलों की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करने के लिए ख़ासतौर से लिख रहा हूँ क्योंकि भविष्य में इन अतिक्रमण को हटाना बेहद मुश्किल हो जाएगा।


एएसआई को लिखा गया सज़्ज़ादानशीन का पत्र

2014 में विश्व स्मारकों के संरक्षण से जुड़ी संस्था 'वर्ल्ड मॉन्यूमेंट फ़ंड' (डब्ल्यूएमएफ़) ने 'रंग  महल' सहित समूचे ख़ानक़ाह परिसर के संरक्षण के लिए कंसल्टेंसी मुहैया करने का प्रस्ताव पेश किया जिसे 'एएसआई'  ने स्वीकार कर लिया था। 7 मई 2016 को 'एएसआई' ने परिसर के संरक्षण की ख़ातिर 'डब्ल्यूएमएफ़' और सज़्ज़ादानशीन व मुतवल्ली पीरज़ादा अयाज़ुद्दीन चिश्ती के साथ एक 'एमओयू' पर हस्ताक्षर किए। इस 'एमओयू' के तहत 'डब्ल्यूएमएफ़' को 'परिसर के संरक्षण के लिए अपने अध्ययन के साथ अपने ख़र्चे पर एक समूचा प्लान तैयार करना था और एएसआई को उसका क्रियान्वयन करना था।

fatehpur sikri rang mahal bad condition due to right wing neglect - Satya Hindi
फ़ोटो साभार: अतुल्य भारत!

'डब्ल्यूएमएफ़' ने जून 28 को ‘ट्रोपोलॉजिकल सर्वे’, ‘साईट एनलिसिस’, ‘आर्क्योलॉजिकल डॉक्यूमेंटेशन’ और ‘कंडीशन मैपिंग’ सहित एक विस्तृत ‘डीपीआर’ 'एएसआई' को सौंपी। इस ‘डीपीआर’ पर तीनों पक्षों के बीच विस्तार से चर्चा भी हुई। 'एएसआई' के एडिशनल डायरेक्टर जनरल और आगरा चैप्टर प्रमुख सहित एक टेक्निकल टीम ने अगस्त 2016 में साइट का दौरा भी किया। इसे 'रंग महल' संरक्षण परियोजना का 'उद्घाटन' घोषित किया गया। उसके बाद के 4 साल डब्बा बंद होने के साल हैं। 

क्यों और किसके आदेश पर संरक्षण कार्य नहीं किए गए और क्यों ऐतिहासिक स्मारक को अपनी आँखों के आगे लगातार धराशायी होते देखा गया, इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

'एएसआई' के आगरा मण्डल के अधीक्षण पुरातत्वविद वसंत कुमार स्वर्णकार कहते हैं कि उन्हें इस विलम्ब के बारे में कुछ नहीं पता क्योंकि उनकी नियुक्ति अभी हाल ही की है। 'सत्य हिंदी' से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘मैं सिर्फ़ इस वर्ष काम न होने की रिपोर्ट आपको दे सकता हूँ। कोविड 19 के चलते हमारे मुख्यालय ने सभी संरक्षण और निर्माण के कामों पर रोक लगा दी थी।’

भविष्य की संभावनाओं के बारे में पूछने पर उनका जवाब था ‘उम्मीद है अगले वित्तीय वर्ष में कुछ न कुछ होगा।’ 

'डब्ल्यूएमएफ़' की भारत प्रमुख अमिता बेग़ 'रंगमहल' की बाबत पूछने पर झुंझलाया सा जवाब देती हैं। 'सत्य हिंदी' से बातचीत में वह कहती हैं, ‘हमने 2017 में ही कंज़र्वेशन का अपना कंसल्टेंसी प्लान सब्मिट कर दिया था। उसके बाद उसका क्या हुआ, हमें कुछ नहीं मालूम। उनके (एएसआई के) बस का नहीं है। हम तंग आ गए हैं। हमें बड़ा अफ़सोस होता है ऐसी शानदार, ख़ूबसूरत और ऐतिहासिक महत्व की इमारत को नष्ट होता देख कर। हम करें क्या? मालिक तो वे हैं। हम क्या कर सकते हैं?’

मौजूदा निज़ाम द्वारा मुग़ल स्मारकों की उपेक्षा की दृष्टि से फ़तेहपुर सीकरी कोई अकेला अपवाद नहीं है। बाक़ी जगहों का भी कमोबेश यही हाल है। देश के पर्यटन संसार से सरकारी कमाई करवाने की दिशा में जो 5 स्मारक सबसे आगे हैं, वे सभी मुग़ल स्मारक हैं। ताजमहल, आगरा क़िला और क़ुतुब मीनार के बाद पर्यटक संख्या और कमाई की दृष्टि से फ़तेहपुर सीकरी चौथे नम्बर पर है। पाँचवें नम्बर पर दिल्ली का लाल क़िला आता है। 2020 में पर्यटन शून्य रहा। फ़रवरी 2020 में संसद में दिए गए जवाब में पर्यटन मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल ने बताया था कि 2018 में फ़तेहपुर सीकरी से प्राप्त 'रेवेन्यू' साढ़े 8 करोड़ रुपये से ऊपर था। और सालों में भी यह कमोबेश इसी के आसपास रहा है। 

देश भर के पर्यटक स्मारकों के प्रवेश से होने वली सरकारी आमदनी का 69% ‘शेयर’ अकेले आगरा और दिल्ली का होता है। तब क्यों ऐसी उपेक्षा है इन मुग़ल स्मारकों की? इसका जबाब कौन देगा? क्या यह अकेले फ़तेहपुर सीकरी वालों का दुर्भाग्य है?

दीवाली की रात अयोध्या को लाखों दीयों से जगमगाने में अवश्य भविष्य के पर्यटन उद्योग की प्रगति की संभावनाएँ जागती हैं लेकिन इसी दीवाली की रात 'रंग महल' को गोबर से नहलाने के पीछे जागे हुए पर्यटन उद्योग को सुलाने की संभावनाएँ तलाशना तो नहीं है। ऐसे में क्यों न यह कहा जाये कि फ़तेहपुर सीकरी का क़सूर है कि उसे मुग़लिया सल्तनत ने सजाया सँवारा था और आज वो सरकार है जो ऐसे हर निशान को मिटा देना चाहती है जो मुग़ल से जुड़ता है। 

ये सोच ये भूल जाती है कि दीपावली की शानदार परंपरा का निर्वाह अकेले अकबर ने ही नहीं किया था। अकबर के बाद जहांगीर, शाहजहां से लेकर बहादुरशाह ज़फर तक, दीवाली का जश्न सभी मुग़ल बादशाह बड़े पुरज़ोर तरीक़े से मनाते रहे हैं। प्रबल हिंदू विरोधी के तौर पर चिन्हित किए जाने वाला औरंगज़ेब भी दीवाली का जश्न बड़े ज़ोर शोर से मनाता था। अपने दक्षिण प्रवास के दौरान भी राजपूत सेनापतियों से उचक-उचक कर दीवाली के तोहफ़े लेने के उसके क़िस्से इतिहास की पुस्तकों में दर्ज़ हैं।

फ़तेहपुर सीकरी के साथ-साथ आगरा, दिल्ली और लाहौर- दीवाली की रातें सभी क़िलों, महलों और शहरों में शाही दीयों और कंदीलों से जगमगाया करती थीं। मुग़ल दरबारों में नियुक्त महत्वपूर्ण अधिकारी- ‘मीर आतिश’ की नौकरी ही साल में सिर्फ़ 2 रातों को गुलज़ार बनाए रखने की होती थी- शब्-ए-बरात की रात और दीवाली की रात। अंग्रेज़ भी दीवाली के मौक़े पर क़िलों को रौशनी के दीयों से सजवाया करते थे। कांग्रेस के भारत में आहिस्ता-आहिस्ता तेल चुकता गया और दीये बुझते चले गए। मोदी का भारत बनते-बनते न दीप बचा न तेल।

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