भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है, जहां सरकार ने कोरोना महामारी के इस दौर में जनता को उसके हाल पर छोड़कर इस आपदा को अपने लिए मनमानी का एक अवसर बना लिया है। इस अवसर के तहत लोकतंत्र को एक तरह से निलंबित कर दिया गया है।
देश की संसद और उससे जुड़ी समूची संसदीय गतिविधियां पिछले पांच महीने से पूरी तरह ठप हैं। सरकार अध्यादेश के जरिए मनमाने फ़ैसले ले रही है और जनविरोधी क़ानून बना रही है। कई राज्य सरकारें भी इस मामले में केंद्र सरकार के ही नक्श-ए-क़दम पर चल रही हैं।
ये कैसा फरमान?
कोरोना संक्रमण के बहाने लोक महत्व के मसलों पर संबंधित संसदीय समिति की बैठकें तक नहीं होने दी जा रही हैं। सरकार की सुविधा को ध्यान में रखते हुए अब जिन कुछ संसदीय समितियों की बैठक की अनुमति दी भी गई है तो राज्यसभा के सभापति और लोकसभा के अध्यक्ष ने फरमान जारी कर दिया है कि इन समितियों की बैठक में होने वाली चर्चाओं को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता और समिति का जो सदस्य ऐसा करेगा उस पर विशेषाधिकार हनन का मामला चलाया जा सकता है।
कोरोना महामारी की आड़ में इन सारी अलोकतांत्रिक कारगुजारियों पर न्यायपालिका तो आश्चर्यजनक चुप्पी साधे हुए है ही, मुख्यधारा का मीडिया भी खामोश है। विपक्षी दलों या नागरिक समूहों की ओर से कोई आवाज़ उठ भी रही है तो उसे दबाने की कोशिश हो रही है।
फ़ेसबुक-बीजेपी हेट स्पीच मुद्दा
उल्लेखनीय है कि सूचना एवं प्रौद्योगिकी (आईटी) मंत्रालय की संसदीय समिति ने पिछले सप्ताह फ़ेसबुक प्रतिनिधियों को समन जारी कर समिति के समक्ष पेश होने का निर्देश दिया है। फ़ेसबुक पर कुछ बीजेपी नेताओं के सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाले बयानों को नजरअंदाज करने का गंभीर आरोप है।
अमेरिकी अखबार 'वॉल स्ट्रीट जर्नल’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के जरिए यह मामला सामने आने के बाद बीजेपी के कई नेता और यहां तक कि सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद भी खुल कर फ़ेसबुक के बचाव में कूद पड़े हैं, जबकि फ़ेसबुक की भारत स्थित जिस अधिकारी पर यह आरोप है, उसने अपनी ग़लती कुबूल करते हुए माफी मांग ली है।
फ़ेसबुक प्रतिनिधियों को किया तलब
फ़ेसबुक के जरिए सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाली गतिविधियों के प्रति उदासीनता बरतने अथवा ऐसी गतिविधियों को संरक्षण देने का मामला चूंकि बेहद गंभीर है, लिहाजा इस पर विचार करने के लिए आईटी मामलों की संसदीय समिति की बैठक आगामी दो सितंबर को बुलाई गई है। इसी बैठक में फ़ेसबुक प्रतिनिधियों को भी तलब किया गया है। समिति के अध्यक्ष कांग्रेस सांसद शशि थरूर हैं।
समिति की बैठक के एजेंडे में नागरिक अधिकारों की सुरक्षा, जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट सेवा बंद किए जाने, सोशल मीडिया के मंचों के दुरुपयोग पर रोक लगाने तथा डिजिटल जगत में महिलाओं की सुरक्षा से संबंधित मामले भी शामिल हैं।
बीजेपी विरोध पर उतरी
इस समिति में शामिल बीजेपी के सदस्यों ने पहले तो समिति की बैठक बुलाए जाने का विरोध किया और जब बैठक की अधिसूचना जारी हो गई तो बैठक के एजेंडे में शामिल विषयों पर आपत्ति जताई जा रही है। कहा जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर में बंद इंटरनेट सेवा का मसला बैठक में नहीं उठाया जा सकता। बैठक में फ़ेसबुक प्रतिनिधियों को तलब किए जाने का भी विरोध किया जा रहा है।
थरूर को हटाने की मांग
समिति के सदस्य और बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने तो इस सिलसिले में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को पत्र लिखकर शशि थरूर को समिति के अध्यक्ष पद से हटाने की मांग कर डाली। उन्होंने आरोप लगाया कि थरूर गैरपेशेवर तरीके से काम करते हुए इस समिति के माध्यम से अपना राजनीतिक एजेंडा आगे बढ़ा रहे हैं, इसलिए उन्हें हटा कर उनके स्थान पर किसी दूसरे सदस्य को समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया जाए।
सवाल यह है कि जब मोदी सरकार यह दावा कर रही है कि जम्मू-कश्मीर में हालात बिल्कुल सामान्य हैं तो फिर फिर वहां इंटरनेट सेवा बाधित करने का क्या औचित्य है?
जम्मू-कश्मीर के बाशिदों को इंटरनेट सेवा निर्बाध रूप से क्यों नहीं मिलनी चाहिए और इस मसले पर संसदीय समिति की बैठक में चर्चा क्यों नहीं होनी चाहिए?
फ़ेसबुक के बचाव में बीजेपी ?
इसी तरह सवाल है कि देश में फ़ेसबुक के जरिए सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने वालों और उनका सहयोग करने वाले फ़ेसबुक अधिकारियों से जवाब-तलब क्यों नहीं होना चाहिए और बीजेपी के नेता इस तरह की आपराधिक मानसिकता वाले लोगों और फ़ेसबुक अधिकारियों का बचाव क्यों कर रहे हैं?फ़ेसबुक-बीजेपी विवाद पर देखिए, वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष का वीडियो-
बैठक बुलाने की अनुमति क्यों नहीं ?
गौरतलब है कि हमारे यहां विभिन्न मंत्रालयों से संबंधित 24 स्थायी संसदीय समितियां हैं, जिनमें से इस समय 20 समितियों के अध्यक्ष सत्तारूढ़ दल के सांसद हैं। संसद के प्रति सरकार की उदासीनता को देखते हुए सत्तारूढ़ दल के सांसदों ने भी अपनी अध्यक्षता वाली संसदीय समितियों की बैठक आयोजित करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। जिन विपक्षी सांसदों ने अपनी अध्यक्षता वाली समितियों की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बुलाने की पहल की थी, उन्हें भी राज्यसभा और लोकसभा सचिवालय ने रोक दिया था।
राज्यसभा में कांग्रेस के उप नेता आनंद शर्मा गृह मंत्रालय सें संबंधित मामलों की संसदीय समिति के अध्यक्ष हैं। वे तीन महीने से वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए इस समिति की बैठक करना चाह रहे थे पर राज्यसभा सचिवालय की ओर से अनुमति नहीं मिल रही थी। इसी तरह आईटी संबंधी संसदीय समिति के अध्यक्ष शशि थरूर ने भी अपनी समिति की बैठक वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए कराने की अनुमति मांगी थी, जो लोकसभा सचिवालय से नहीं मिली।
लोकसभा और राज्यसभा सचिवालय की ओर से दलील दी गई कि संसदीय समिति की बैठकें गोपनीय होती हैं, लिहाजा वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बैठक करना नियमों के विरुद्ध है।
संवैधानिक बाध्यता के चलते बुलाया सत्र
अभी भी इन संसदीय समितियों को बैठक की अनुमति महज इसलिए दी गई है, क्योंकि अगले महीने संसद का मॉनसून सत्र बुलाया गया है। संसद का यह सत्र भी संवैधानिक बाध्यता के चलते बुलाया जा रहा है। चूंकि संसद के दो सत्रों के बीच छह महीने से ज्यादा का अंतराल नहीं हो सकता है और पिछला सत्र 23 मार्च को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया था, लिहाजा संवैधानिक बाध्यता के चलते सरकार ने संसद का बेहद संक्षिप्त अधिवेशन अगले महीने की 14 तारीख़ से बुलाने का फैसला किया है।
14 सितंबर से 1 अक्टूबर तक आयोजित होने वाले इस सत्र में सरकार को लगभग एक दर्जन उन अध्यादेशों पर संसद की मंजूरी की मुहर लगवानी है, जो पिछले पांच महीने के दौरान जारी किए गए हैं। इसके अलावा कुछ मंत्रालयों से संबंधित और विधेयक हैं, जिन्हें सरकार इस सत्र में पारित कराएगी।
इस सत्र की एक खास बात यह भी होगी कि इसमें प्रश्नकाल और शून्यकाल नहीं होंगे। यानी सदस्य सरकार से किसी भी मामले में कोई जानकारी नहीं मांग सकेंगे।
देश की सीमाओं पर पड़ोसी देशों के साथ चल रहे तनाव, देश की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था, लगातार बढ़ रही बेरोजगारी और कोरोना महामारी से निबटने में सरकार की नाकामी जैसे लोक महत्व के किसी ज्वलंत मसले पर भी शायद कोई चर्चा नहीं हो सकेगी।
कहा जा सकता है कि महज संवैधानिक खानापूर्ति के लिए ही यह सत्र बुलाया जा रहा है, जिसमें सरकार सिर्फ पिछले पांच महीने में लिए गए अपने फ़ैसलों पर अपने भारी-भरकम बहुमत के बूते संसद की मंजूरी की मुहर लगवाएगी।
लोकतंत्र सिकुड़ेगा, अधिनायकवाद बढ़ेगा!
कोरोना महामारी की आड़ में संसद और संसदीय गतिविधियों को जिस तरह महत्वहीन बनाया जा रहा है, उससे इजराइली इतिहासकार और दार्शनिक युवाल नोहा हरारी की छह महीने पहले की गई भविष्यवाणी की याद आना स्वाभाविक है। उन्होंने फरवरी महीने में ब्रिटेन के अखबार फाइनेंशियल टाइम्स में अपने एक लेख के जरिए भविष्यवाणी की थी कि कोरोना महामारी के चलते दुनिया भर में लोकतंत्र सिकुड़ेगा, अधिनायकवाद बढ़ेगा, सरकारें अपने आपको सर्वशक्तिमान बनाने के लिए नए-नए रास्ते अपनाएंगी और खौफनाक सर्विलेंस राज की शुरुआत होगी। उनकी यह भविष्यवाणी दुनिया के किसी और देश में तो नहीं, लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक कहे जाने वाले देश भारत में ज़रूर हकीकत में तब्दील होती दिख रही है।
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