हाल ही में संपन्न हुए बिहार विधानसभा के चुनावों के लिए किये गये ओपिनियन और एग्ज़िट पोल औंधे मुँह गिर गये। यह लेख बस आप को ये याद दिलाने के लिए लिख रहा हूँ कि ओपिनियन और एग्जिट पोल पर विश्वास क्यों नहीं करना चाहिए। भारत के बुद्धिजीवियों और चैनलों में कितनी योग्यता है यह भी इस लेख से समझ में आ जाएगा।
मीडिया चैनलों में सवर्ण और बिना आरक्षण के व्यक्ति ही ज्ञान देते हैं। परन्तु आश्चर्य की बात यह है कोई भी इन ओपिनियन और एग्ज़िट पोल के इतना अधिक ग़लत होने पर डिबेट नहीं कर रहा है। कोई भी इसकी आलोचना नहीं कर रहा है।
उदाहरण के लिए 'एक्सिस माई इंडिया-इंडिया टुडे' ने अपने एग्जिट पोल में महागठबंधन के लिए 139-161 सीटों की भविष्यवाणी की थी, लेकिन उसे केवल 110 सीटें मिलीं। इस अनुमान में लगभग 32 प्रतिशत अंक की त्रुटि थी। इसी तरह, इस एग्जिट पोल ने एनडीए को केवल 69-91 सीटें दीं, लेकिन एनडीए को 125 सीटें मिली, इसमें फिर से लगभग 37 प्रतिशत अंक की त्रुटि हुई।
क्या आप वास्तव में राष्ट्रीय स्तर पर जहाँ इतना सब कुछ दाँव पर लगा है, इतने अधिक प्रतिशत त्रुटि की अनुमति दे सकते हैं? हालांकि 'एक्सिस माई इंडिया-इंडिया टुडे' के प्रदीप गुप्ता ने चैनल पर ग़लती मानी और स्वीकार किया कि वो जनता का मूड भाँपने में नाकाम रहे। लेकिन बाकी एजेंसियों ने ऐसा नहीं किया।
यहाँ सवाल ये है कि अगर यही ग़लती किसी दलित/आदिवासी/पिछड़े समाज की एजेंसी या मीडिया कर्मी से हुई होती तो क्या उसकी पीढ़ियों की योग्यता और क्षमता पर प्रश्न नहीं उठाए गये होते? इस दोहरे मानदंड को समझना चाहिए।
लोगों को करते हैं गुमराह
ओपिनियन और एग्ज़िट पोल की अवैज्ञानिकता के बारे में हम बहुजनों को गहराई से सोचना चाहिए क्योंकि जिस देश में सबसे ज़्यादा अनपढ़ रहते हों, जहाँ सबसे ज़्यादा पढ़े-लिखे साम्प्रदायिक अंधभक्त रहते हों, उस देश में ये ओपिनियन पोल आने वाले चुनावों के लिए लोगों को मानसिक रूप से प्रभावित करते हैं।
विशेषकर भोले-भाले ग्रामीण अंचल के राजनैतिक रूप से अपरिपक्व लोगों को, जिन्हें अपने वोट का मूल्य आज भी पता नहीं है, उन्हें ये ओपिनियन पोल आसानी से गुमराह कर देते हैं और भोला-भाला व्यक्ति यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि अपना वोट क्यों खराब करूँ, चलो जो जीत रहा है उसी को दे दूं। इसी प्रकार झूठे एग्ज़िट पोल भी भोले-भाले तटस्थ वोटरों की भविष्य की मनोदशा बदलने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
छुपाने की क्या ज़रूरत?
इन ओपिनियन और एग्ज़िट पोल में सबसे अवैज्ञानिक तथ्य यह है कि डेटा इकट्ठा करने के लिए मीडिया हाउस द्वारा काम पर रखी गई एजेंसी डेटा एकत्र करने में शामिल वैज्ञानिक सिद्धांतों का सार्वजनिक तौर पर खुलासा नहीं करती है। दूसरी ओर समाज से इकठ्ठा किए गये आकड़ों के विश्लेषण और उसकी भविष्यवाणी में शामिल वैज्ञानिक सिद्धांतों को भी नहीं बताती है।
विश्व की किसी गणित, साइंस या कंप्यूटर साइंस में वोट प्रतिशत को सीट में बदलने का फ़ॉर्मूला नहीं बना है। ये स्थापित तथ्य है कि कम वोट प्रतिशत पाने वाले दल को ज़्यादा सीट मिल सकती हैं और ज़्यादा वोट प्रतिशत पाने वाले को कम। अत: जो चैनल वोट प्रतिशत के आधार पर सीट बताते हैं, वे फर्जी हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने 1.49 प्रतिशत वोट हासिल किए लेकिन उसे केवल एक सीट मिली। दूसरी ओर सीपीआई और सीपीआई (एम) दोनों को दो-दो सीटों पर जीत हासिल हुई जबकि उनको क्रमशः 0.83 और 0.65 ही वोट मिले, जो बीएसपी के वोट शेयर से कम हैं।
अतः यह बात स्वतः प्रमाणित होती है कि ज़्यादा वोट प्रतिशत लेकर भी कई दलों को कम सीट मिल सकती हैं और कम वोट प्रतिशत लेकर भी कुछ दलों को ज़्यादा सीट मिल सकती हैं। इसलिए वोट प्रतिशत के आधार पर जो भी चैनल किसी दल को सीट जिताते हैं वह नितांत अवैज्ञानिक है। एक छलावा है। बहुजनों को इससे प्रभावित होकर कतई वोट नहीं देना चाहिए।
जाति के नाम पर वोट!
बिहार चुनाव में ओपिनियन और एग्ज़िट पोल की अवैज्ञानिकता का एक और उदाहरण है- जाति के नाम पर वोट देने वालों की नगण्य संख्या। अब आप ही कल्पना कीजिए। बिहार चुनाव में एक एग्ज़िट पोल ने बताया कि केवल एक प्रतिशत लोगों ने जाति के नाम पर वोट दिया।
एक समाज विज्ञानी होने के नाते मैं इस तथ्य को स्वीकार ही नहीं कर सकता। क्योंकि चाहे कोई व्यक्ति कितना ही बड़ा जातिवादी क्यों ना हो अगर उससे कैमरे के आगे माइक रखकर आप पूछेंगे कि आप जाति पर वोट करते हैं तो वो कभी भी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा और इसलिए ही बिहार के ओपिनियन और एग्ज़िट पोल के मुताबिक़ लोग कहते हैं कि उन्होंने जाति नहीं, विकास के नाम पर वोट किया है, यह नितांत अवैज्ञानिक और तथ्य से परे है।
वंचित वर्गों का प्रतिनिधित्व शून्य
अंत में, मतगणना के अंतिम दिन का सबसे खराब पहलू यह होता है कि भारतीय समाज के वंचित वर्गों का कोई भी प्रतिनिधित्व इन चैनलों पर नहीं होता है। दलितों/आदिवासियों/अन्य पिछड़े समाज/अल्पसंख्यकों और अन्य हाशिये के समुदायों के मतदान व्यवहार का विश्लेषण करने के लिए अधिकांश तथाकथित उच्च जातियों के लोग ही टीवी स्टूडियो में बैठते हैं।
आश्चर्य की बात यह है कि अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों/अन्य पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हुए तथाकथित ऊंची जातियों को तनिक भी नैतिक दुविधा नहीं होती, वे इस आत्मविश्वास के साथ इन वर्गों का पक्ष रखते हैं, जैसे कि ख़ुद के साथ हुए अनुभव से बोल रहे हों।
मैं वर्षों से देख रहा हूँ कि कैसे मीडिया हाउस 25-30 करोड़ की आबादी वाले अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति में से एक भी योग्य व्यक्ति को नहीं ढूंढ पा रहे हैं जो अपने और अपने समाज के 'मतदान के व्यवहार' पर टिप्पणी कर सके। क्या भारत की शिक्षा व्यवस्था ने आज़ादी के 73 वर्षों बाद भी एक भी दलित और आदिवासी नहीं पैदा किया, जो यह बता सके कि उसका समाज कैसे और किसी को क्यों वोट करता है?
और इसके विपरीत क्या भारत की शिक्षा व्यवस्था ने तथाकथित उच्च-जाति के एंकर और बुद्धिजीवियों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मतदान के व्यवहार के बारे में भारतीयों को बताने के लिए सभी प्रासंगिक ज्ञान दे दिया है?
बेतुका विश्लेषण
तथाकथित सवर्ण एंकर एवं बुद्धिजीवियों की जो बात सबसे परेशान करने वाली लगती है वो यह है कि वे दलितों/आदिवासियों/अन्य पिछड़े समाज/ अल्पसंख्यकों और अन्य हाशिए के समुदायों को अपना पक्ष रखने का मौका दिये बगैर ही उनको कलंकित करने वाला कथानक गढ़ कर राष्ट्रीय चैनल पर यह घोषणा कर देते हैं कि दलितों ने अपना वोट इस इस पार्टी को ट्रांसफर कर दिया है। बिना किसी प्रमाण के यह कथानक उनके समाज पर चिपका दिया जाता है।
इसके विपरीत मैंने इन सवर्ण एंकरों एवं बुद्धिजीवियों को यह कहते कभी नहीं सुना कि ब्राह्मणों, राजपूतों, वैश्यों का वोट बीजेपी को पूरी तरह ट्रांसफर हो गया है। आख़िर कब तक दलितों/ आदिवासियों/पिछड़ी/जातियों और अल्पसंख्यक समाजों को बिना अपना पक्ष रखे ही सज़ा सुनाई जाती रहेगी?
पारदर्शिता ज़रूरी
यदि मीडिया घराने और पोल एजेंसियां देश के नागरिकों का विश्वास जीतना चाहती हैं, तो उन्हें मतदाताओं के नमूनों के चयन की अपनी कार्यप्रणाली, प्रश्नों का निरूपण, आंकड़े एकत्र करने की जनशक्ति की गुणवत्ता और वोटों के प्रतिशत से सीटों के रूपांतरण का फ़ॉर्मूला सार्वजनिक करना होगा, उसे अधिक वैज्ञानिक और पारदर्शी बनाना होगा।
साथ ही साथ आँकड़े एकत्र करने वालों और टीवी पर चर्चा करने वालों को अधिक विविध और प्रतिनिधित्वकारी बनाना होगा ताकि समाज के सभी समूहों का दृष्टिकोण चुनावी विश्लेषण में समायोजित किया जा सके।
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