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गोगोई को राज्यसभा सीट 'प्रतिबद्ध न्यायपालिका' की तरफ़ पहला क़दम?

पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई के राज्यसभा के लिये मनोनीत होने के बाद से ही अदालती और सियासी महक़मे में ढेरों सवाल उठ रहे हैं और इसे उनके कार्यकाल के दौरान दिये गये फ़ैसलों से जोड़कर देखा जा रहा है। लेकिन क्या ऐसा करना सही होगा? सीजेआई रहते हुए सरकार-समर्थक फ़ैसले देने का कारण यह भी तो हो सकता है कि गोगोई ख़ुद को वैचारिक रूप से सरकार के क़रीब पाते हैं और वह सरकार और न्यायपालिका में दोस्ती कराना चाहते हैं! 
नीरेंद्र नागर

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई द्वारा राज्यसभा की सदस्यता स्वीकार करने के पक्ष-विपक्ष में दलीलें दी जा सकती हैं। लेकिन बिना किसी सबूत के उनके बारे में यह कहना ‘अन्यायपूर्ण’ है कि उन्होंने अयोध्या, रफ़ाल या अन्य मामलों में सरकार समर्थक जो निर्णय दिए, वे राज्यसभा की सदस्यता या किसी और लोभ की ख़ातिर दिए थे। वैसे भी जो निर्णय उन्होंने दिए, वही निर्णय संबद्ध बेंचों के अन्य जजों ने भी दिए थे। लेकिन हम अन्य जजों के फ़ैसले पर तो उंगली नहीं उठा रहे। फिर गोगोई पर ही यह आरोप क्यों? 

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हर कोई जानता है कि जब भी कोई मुक़दमा किसी जज या बेंच के सामने आता है तो फ़ैसला किसके पक्ष में आएगा, ‘आम तौर पर’ यह कहना बहुत मुश्किल होता है। हमने कई बार देखा है कि कोर्ट के सामने प्रस्तुत दलीलें और सबूत एक होने के बावजूद बेंच के दो जजों के मतों में अंतर आ जाता है। एक ही मामले में अलग-अलग हाई कोर्ट के फ़ैसले अलग-अलग होते हैं। जब यही मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचता है तो वहाँ के जज तीसरा फ़ैसला भी दे सकते हैं।

ऐसा क्यों होता है? क्यों समान सबूतों और दलीलों के बावजूद दो जज अलग-अलग फ़ैसला करते हैं? इसके मुख्य कारण दो हैं और ये तीन भी हो सकते हैं।

पहला है, संविधान और क़ानून के बारे में दो जजों की अलग-अलग व्याख्या या समझ। जैसे दो जजों में यह मतांतर हो सकता है कि अनुच्छेद 370 को समाप्त करने का अधिकार जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा को ही था जो अब नहीं रही है या वहाँ की विधानसभा को या उसकी अनुपस्थिति में लोकसभा भी यह काम कर सकती है।

दूसरा कारण जज का अपना वैचारिक-सैद्धांतिक झुकाव हो सकता है। चूँकि हर जज एक आम नागरिक भी होता है जो चुनावों में वोट भी देता है, इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वह किसी ख़ास दल की विचारधारा के प्रति ज़्यादा झुकाव रखता हो। अयोध्या पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले में हमने पाया कि एक जज ने पूरी ज़मीन हिंदू पक्ष को दे दी जबकि बाक़ी दो जजों ने ज़मीन को तीन पक्षों में बाँटने का निर्णय दिया। कई जज बाद में किसी ख़ास राजनीतिक पक्ष से जुड़ते भी देखे गए हैं।

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तीसरा कारण हो सकता है - रिश्वत या किसी तरह का दबाव। अगर आपको याद हो तो समाजवादी पार्टी के पूर्व सांसद अमर सिंह के जो टेप लीक हुए थे, उसमें वह यह कहते सुने गए थे कि कैसे जजों से अपने पक्ष में फ़ैसले करवाए जा सकते हैं।

सरकार की विचारधारा के क़रीब हैं गोगोई!

गोगोई ने चीफ़ जस्टिस रहते हुए सारे फ़ैसले सरकार के पक्ष में क्यों दिए, इसके पीछे इन तीनों में से कोई भी एक या एकाधिक कारण हो सकता है। तीसरे कारण को हम शुरू से नकार रहे हैं क्योंकि हमारे पास इसका कोई सबूत नहीं है। बचे कारण नं. एक और दो। अगर गोगोई ने कुछ फ़ैसले सरकार के पक्ष में दिए होते और कुछ विपक्ष में तो हम कह सकते थे कि कुछ मामलों में उन्हें सरकारी पक्ष की दलीलों में दम नज़र आया और कुछ में नहीं। लेकिन उन्होंने एक क्रम में सरकार के पक्ष में निर्णय दिए जिससे यह संदेह जगता है कि वह कहीं-न-कहीं ख़ुद को सरकारी पक्ष या विचारधारा के क़रीब पाते हैं। 

यह संभव है कि रंजन गोगोई नरेंद्र मोदी के विचारों और शख़्सियत से प्रभावित हों। हो सकता है कि वह यह मानते हों कि प्रधानमंत्री मोदी बिल्कुल निष्पाप और निष्कलंक हैं और इसीलिए रफ़ाल सौदे में भ्रष्टाचार का प्रश्न ही नहीं उठता।
हो सकता है कि गोगोई यह मानते हों कि अयोध्या में हिंदुओं के साथ सैकड़ों सालों से अन्याय होता आया है और वह अनुकूल निर्णय देकर उसका प्रतिकार करना चाहते रहे हों। हो सकता है कि कन्हैया मामले में विशेष जाँच दल के गठन का आदेश नहीं देने के पीछे उनका यह विश्वास हो कि कन्हैया तथाकथित ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ से जुड़े हुए हैं और उन्हें सज़ा मिलनी चाहिए।

कहने का अर्थ यह है कि लोभ या लालच के कारण नहीं, विचारधारात्मक सहमति या झुकाव के कारण भी गोगोई ने सरकार-समर्थक फ़ैसले दिए हों।

कई बार आप किसी का समर्थन नहीं, बल्कि विरोध करके भी स्पष्ट कर देते हैं कि आपकी सहानुभूति किस तरफ़ है। सरकार-समर्थक फ़ैसले देने वाले गोगोई ने जब TOI को दिए गए एक इंटरव्यू में उदार और वाम विचारधारा के लोगों की आलोचना की तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वह ख़ुद किस तरफ़ हैं? 

जैसा कि गोगोई ने ख़ुद उस इंटरव्यू में कहा कि राज्यसभा का सदस्य बनने से उनको जो सुविधाएँ व वेतन मिलना तय है, वह पूर्व मुख्य न्यायाधीश होने के नाते उनको वैसे भी मिल रहा है। उन्होंने तो यहाँ तक कहा है कि अगर यह क़ानूनसम्मत हो तो वह अपनी सैलरी वकालत से जुड़ी लाइब्रेरी बनाने के लिए दान दे देंगे।

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गोगोई की बातों से लगता है कि पैसा या पद उनका लक्ष्य नहीं है। ऐसे में दूसरा कारण ही बचता है कि वह वैचारिक रूप से ख़ुद को सरकार के क़रीब पाते हैं और इसी कारण सरकार और न्यायपालिका में दोस्ती कराना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में गोगोई ‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ की इंदिरा गाँधी की कोशिशों को मोदीराज में अमली जामा पहनाना चाहते हैं।
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