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आपातकाल: जब एक छात्र के लिए जेल में बनाया गया परीक्षा केंद्र

मार्च 1974 में पटना में छात्रों की सभा पर बेरहम लाठी चार्ज के बाद पूरा बिहार सुलग उठा। जय प्रकाश नारायण पर भी लाठियाँ बरसाई गयीं। उनके सिर पर चोट आयी। ख़ून से लथपथ जय प्रकाश नारायण की तस्वीरों को देख कर आम आदमी भी सुलग उठा। ये आंदोलन छात्र आंदोलन से ऊपर उठ कर जन आंदोलन बन गया। 
शैलेश

1975 के जुलाई की शुरुआत की बात है। बिहार में भागलपुर शहर के टी एन बी कॉलेज के एक शिक्षक एक प्रश्नपत्र और कॉपी लेकर सेंट्रल जेल पहुँचे और इंटर मीडिएट के एक छात्र से कहा "आपकी परीक्षा अब जेल में ही होगी। ये प्रश्नपत्र और कॉपी लीजिए और तीन घंटे में लिख कर मुझे वापस कर दीजिए।" वो छात्र मैं था। 

शिक्षक की बात सुनकर मैं हैरान हो गया। मैंने जेल आने के बाद परीक्षा की कोई तैयारी नहीं की थी। और मान कर चल रहा था कि इस साल भी परीक्षा नहीं दे पाऊंगा। बहरहाल शिक्षक मेरे कॉलेज से ही थे। मैं उनसे पहले से ही परिचित था। उन्होंने बताया कि मेरी गिरफ़्तारी के बाद भागलपुर विश्व विद्यालय के छात्रों ने परीक्षा का बहिष्कार कर दिया और मुझे परीक्षा देने की अनुमति देने की माँग की। 

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विश्वविद्यालय प्रशासन ने मुझे परीक्षा देने के लिए कॉलेज आने की अनुमति नहीं दी। लेकिन जेल को ही परीक्षा केंद्र घोषित कर दिया। शिक्षक महोदय के बहुत समझने के बाद मैं परीक्षा देने के लिए तैयार हुआ। जो कुछ याद था वो लिख डाला। तैयारी नहीं थी इसलिए कुछ ज़्यादा लिखने के लिए था भी नहीं। 

क्यों डरा हुआ था प्रशासन 

मुझे आज भी इस बात पर अचरज होता है कि एक बहुत कम उम्र के छात्र से प्रशासन इतना क्यों डरा हुआ था कि परीक्षा देने के लिए भी कॉलेज तक ले जाने के लिए तैयार नहीं था। जेल में बंद अनेक क़ैदी परीक्षा के लिए कॉलेज के सेंटर पर लाए जाते हैं। मैं इंटर मीडिएट यानी आज कल के कक्षा 12 का छात्र था। उस ज़माने में कक्षा 10 तक ही स्कूल में होता था। कक्षा 11 और 12 कॉलेज में होता था और इसे इंटर मीडिएट कहते थे। मेरी उम्र तब 17 साल थी। मैं फ़िज़िक्स, केमेस्ट्री और बायलॉजी का छात्र था। 

1972 में कॉलेज में दाख़िले के कुछ दिनों के बाद मैं तरुण शांति सेना के लिए काम करने लगा। इस संगठन की स्थापना जय प्रकाश नारायण ने सामाजिक कामों से छात्रों और युवकों को जोड़ने के लिए की थी।

जेपी का आंदोलन 

इस संगठन के साथ काम करते हुए मैं 1974 के छात्र आंदोलन से जुड़ गया। जय प्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया तो इस आंदोलन में नयी जान पड़ गयी। आंदोलन मुख्य तौर पर भ्रष्टाचार, महँगाई, बेरोज़गारी, काला बाज़ारी के ख़िलाफ़ और शिक्षा में सुधार के लिए शुरू हुआ था, लेकिन जैसे जैसे सरकार दमन के रास्ते पर बढ़ती गयी वैसे वैसे आंदोलन सरकार विरोधी होता गया। 

मार्च 1974 में पटना में छात्रों की सभा पर बेरहम लाठी चार्ज के बाद पूरा बिहार सुलग उठा। जय प्रकाश नारायण पर भी लाठियाँ बरसाई गयीं। उनके सिर पर चोट आयी। ख़ून से लथपथ जय प्रकाश नारायण की तस्वीरों को देख कर आम आदमी भी सुलग उठा। ये आंदोलन छात्र आंदोलन से ऊपर उठ कर जन आंदोलन बन गया। 

Emergency in india by indira gandhi in 1975 - Satya Hindi

डीआईआर से मीसा तक 

आंदोलन व्यापक होने लगा तो सरकार दमन पर उतर आयी। छात्रों और राजनीतिक दलों के नेताओं की गिरफ़्तारी शुरू हो गयी। पहली बार डी आई आर (डिफ़ेंस आफ इंडिया रूल) में बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारी हुई। मुझे भी डीआईआर में तीन बार गिरफ़्तार किया गया। इस क़ानून में गिरफ़्तारी से पहले कारण बताना जरूरी नहीं था। दो बार तो दो तीन महीनों में जेल से छुट्टी मिल गयी लेकिन आपातकाल लगने के बाद तीसरी गिरफ़्तारी लंबी साबित हुई।

28 जून 1975 को मुझे डी आई आर क़ानून में गिरफ़्तार किया गया। 28 अगस्त 1975 को डीआईआर से मुक्त किया गया लेकिन उसी दिन मीसा (मेंटेनेन्स ऑफ़ इंटरनल सिक्योयरिटी एक्ट) क़ानून में गिरफ़्तार कर लिया गया। 

मुझे, डीआईआर ख़त्म होने के बाद जेल से बाहर भी नहीं जाने दिया गया। 1977 में चुनावों की घोषणा के बाद 3 फ़रवरी 1977 को मुझे 19 महीनों बाद जेल से रिहा किया गया। मैं 1972 / 74 के बैच में इंटर मीडिएट का छात्र था। 1974 में मुझे फ़ाइनल परीक्षा देनी थी। लेकिन जय प्रकाश नारायण ने एक साल के लिए कक्षा और परीक्षा के बहिष्कार की अपील की थी इसलिए परीक्षा नहीं दिया। 

1975 में परीक्षा देने के लिए परिवार का ज़बरदस्त दबाव था। परीक्षा की तैयारी के लिए मैं फ़रवरी - मार्च से आंदोलन से कुछ समय के लिए अलग हो गया था। इसलिए जब 26 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा हुई तब मैं अंडर ग्राउंड नहीं हुआ।
मुझे लगा कि मैं फ़िलहाल आंदोलन में सक्रिय नहीं हूँ इसलिए मुझे गिरफ़्तार नहीं किया जाएगा। ज़िले के डीएम और एसपी ने भी मुझे गिरफ़्तार नहीं करने का आश्वासन दिया था। लेकिन 28 जून को सुबह पाँच बजे ही पुलिस मेरे घर पहुँच गयी। बाद में एसपी ने बताया कि गिरफ़्तारी का आदेश पटना से आया है। 

जब हथकड़ियों में कॉलेज पहुँचा

जेल में ही मैंने थ्योरी के सभी पेपर दे दिए। पहले दिन की परीक्षा तो जैसे तैसे ही हो पायी थी। लेकिन बाद के पेपर  के लिए मैंने थोड़ी बहुत किताबें घर से मँगा ली थी। जेल में जितनी पढ़ाई हो सकती है उतनी मैंने की। अनिश्चय के माहौल में पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करना लगभग असंभव ही होता है। परीक्षा लेने के लिए एक ही अध्यापक आते थे। मैं जेल के बैरक में अंदर परीक्षा देता था। 

नकल करने की छूट 

अध्यापक मुझे पेपर और कॉपी देकर हर बार कहते थे अब मैं बाहर बाक़ी लोगों के साथ बैठने जा रहा हूँ। तीन घंटे बाद आऊँगा। तुमको जैसे लिखना हो लिखो। उनका संकेत साफ़ था कि अगर किताबों से नक़ल करनी हो तो कर लूँ। लेकिन आदर्शवाद के जुनून ने मुझे कभी भी नक़ल नहीं करने दी। 

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आश्वासन माँगा

थ्योरी के पेपर तो हो गए। संकट आया प्रैक्टिकल को लेकर। ये तो कॉलेज के बाहर हो ही नहीं सकता था। छात्रों के काफ़ी दबाव के बाद ज़िला प्रशासन ने मुझे परीक्षा के लिए कॉलेज जाने की अनुमति दी। उससे पहले मुझसे कहा गया कि मैं लिखित आश्वासन दूँ कि मैं कॉलेज में आंदोलन पर बात नहीं करूँगा और छात्रों को आंदोलन के लिए नहीं भड़काऊँगा। 

मैं ये लिखने के लिए तैयार नहीं था। इस बीच मेरी माँ जेल में मिलने आ गयीं और मुझ पर अधिकारियों की बात मान लेने के लिए बहुत दबाव डाला। आख़िरकार सिर्फ़ परीक्षा तक के लिए मैं ये शर्त मान गया।

प्रैक्टिकल परीक्षा 

पहले दिन प्रैक्टिकल परीक्षा के लिए मुझे दोनों हाथों में हथकड़ियाँ डाल कर टीएनबी कॉलेज की कैमिस्ट्री लैब में ले जाया गया। परीक्षक के रूप में मेरे पुराने शिक्षक मौजूद थे। मैंने उनको प्रणाम किया। कुछ देर तक वो मेरा चेहरा देखते रहे। फिर दोनों हाथों में लगी हथकड़ियों पर उनकी नज़र टिक गयी। 

मैं लगातार मुस्कुरा कर उनको आश्वस्त करने की कोशिश कर रहा था कि मैं ठीक हूँ। कुछ पलों में मैंने महसूस किया कि उनकी आँखें भर आयी थीं। वो तेज़ी से बाथरूम की तरफ़ चले गए। थोड़ी देर में वापस आए और पुलिस वालों से कहा कि प्रैक्टिकल के लिए मेरी हथकडियाँ खोल दी जाएँ। उनके बहुत कहने पर भी पुलिस वाले टस से मस नहीं हुए। उन्होंने मुझसे कहा कि ऐसे ही कोशिश करो। 

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दोनों हाथों में हथडियाँ लगी हों तो कैमिस्ट्री का प्रैक्टिकल संभव हो ही नहीं सकता। मेरी स्थिति देखकर मेरे अध्यापक ग़ुस्से में आ गए। वो मुझे साथ लगे कमरे में ले गए। पुलिसवाले भी साथ थे। उन्होंने कहा कि पुलिस की ग़लती के कारण मैं तुम्हारा साल बर्बाद नहीं होने दूँगा। फिर प्रैक्टिकल के सवालों के बारे में पूछते रहे। जवाब सुनने के बाद उन्होंने कहा कि ये हथकड़ी नहीं खोलेंगे तो मैं जो ज़बानी बताया उसके आधार पर ही नंबर दे दूँगा। और यही हुआ भी। 

बायोलॉजीऔर फ़िज़िक्स के प्रैक्टिल के दिन भी यही हुआ। क़रीब महीने भर बाद रिज़ल्ट आया तो मुझे ख़ुशी हुई कि विपरीत स्थितियों के वावजूद मैं पास हो गया। 

मेरे पिता ने बीए ऑनर्स (राजनीति शास्त्र) में एडमिशन करा दिया, लेकिन क़रीब डेढ़ साल तक कॉलेज जाने का मौक़ा आया ही नहीं। फ़रवरी 77 में जेल से छूटने के बाद लोकसभा चुनाव में जुट गया फिर विधानसभा के चुनाव आ गए। मैं इन चुनावों में जुटा रहा। कॉलेज और क्लास तो राजनीति की भेंट चढ़ गए। 

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