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ट्रंप के अटपटे बोल और अमेरिकी विदेश विभाग की सफ़ाई

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक बड़ा ही विवादास्पद बयान दिया कि उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कश्मीर के मसले पर मध्यस्थता करने को कहा था और इसके लिए वह तैयार हैं। यह बात उन्होंने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के अमेरिका दौरे के दौरान उनके साथ बैठक में कही। इन दिनों इमरान ख़ान अपनी झोली लेकर अमेरिका पहुँचे हुए हैं कि शायद उन्हें मिलने वाली 1.3 बिलियन डॉलर की अमेरिकी मदद जो रुकी पड़ी है, अब मिल जाये। ट्रंप के इस बयान के बाद भारत और अमेरिकी विदेश विभाग तुरंत हरक़त में आ गए। 
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यह तो स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कदापि ट्रंप को कश्मीर में मध्यस्थता करने के लिए नहीं कहा होगा। पर समस्या यह खड़ी हो गयी कि भारत और अमेरिकी विदेश विभाग के अफ़सर इस अटपटे बयान को कैसे रफ़ा-दफ़ा करें? भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने इस बयान का खंडन किया तो अमेरिकी विदेश विभाग ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति में इमरान ख़ान और ट्रंप के बीच हुई बातचीत की चर्चा करते हुए बड़ी ही सावधानी से कश्मीर मुद्दे पर ट्रंप के बयान को शामिल नहीं किया। उन्होंने तुरंत ही कश्मीर को भारत और पाकिस्तान के बीच का द्विपक्षीय मामला बताया। उन्होंने विज्ञप्ति में आतंकवाद, अफ़ग़ानिस्तान और आपसी व्यापार पर चर्चा करते हुए काफ़ी हद तक स्थिति को सम्भालने की कोशिश की है। 
अमेरिकी सांसद ब्रैड शर्मन ने सीधे तौर पर कहा कि ट्रंप का बयान शर्मिंदा करने वाला है क्योंकि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कभी भी ट्रंप से कश्मीर में दख़ल देने को नहीं कह सकते। उन्होंने भारत के राजदूत से ट्रंप के बयान पर माफ़ी भी माँगी।

ट्रंप विदेशी मामलों में भी कभी-कभी अपनी सुपरमैन वाली इमेज के शिकार दिखते हैं और अपने बड़बोलेपन में उसी अन्दाज़ में बात करते पाए जाते हैं जैसे कि वह अपनी घरेलू राजनीति में विरोधियों से बात करते हैं। उन्हें श्रेय लेने की भी बड़ी जल्दी रहती है। पिछले दिन जब पाकिस्तान ने हाफ़िज़ सईद को कुछ समय के लिए गिरफ़्तार किया था तो ट्रंप का एक बड़ा बयान आया कि मुंबई हमले का सरगना दस साल के बाद पकड़ा गया जैसे कि उन्होंने ही उसे पकड़वाया है। उन्हें यह पता ही नहीं है कि हाफ़िज़ सईद आराम से पाकिस्तान सरकार की मेहमानवाज़ी का सुख उठाते हुए वहीं पाकिस्तान में रहता है।

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इस बात को भी जानना आवश्यक है कि भारत कश्मीर को एक द्विपक्षीय मामला मानता है और किसी भी बाहरी हस्तक्षेप से सीधे मना करता रहता है। इंदिरा गाँधी और ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के बीच 1972 के शिमला समझौते में ही इस बात पर दोनों देशों के बीच सहमति हो चुकी है। इस समझौते के अनुच्छेद (ii) में स्पष्ट कहा गया कि - 

“दोनों पक्षों ने अपने मतभेदों के निपटारे के लिए शांतिपूर्ण साधनों को अपनाने का संकल्प लिया। इसके मुताबिक़, वे मतभेदों के समाधान के लिए द्विपक्षीय वार्ता का सहारा ले सकते हैं या फिर ऐसे शांतिपूर्ण उपाय अपना सकते हैं जिसको लेकर दोनों के बीच आपसी सहमति हो।’’
लाहौर घोषणा पत्र 1999 में भारत और पाकिस्तान के बीच शिमला समझौते को पूरी तरह से लागू करने की बात दोहरायी गयी और इस घोषणापत्र को दोनों देशों की संसद ने मंज़ूरी भी दी थी।

अब यह पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति की मजबूरी है या उसका मानसिक दिवालियापन है कि वह हर समय कश्मीर का राग अलापता रहता है। एक ग़ैर ज़िम्मेदार देश होने के कारण वह अपने द्वारा की गई संधियों को भी नहीं मानता। 

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पाकिस्तान को यह समझना होगा कि भारत के साथ संबंधों में सुधार सिर्फ़ उसकी अच्छी नीयत से ही संभव है। अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हैं कि कोई भी देश भारत पर ना दबाव डाल सकता है ना ही मध्यस्थता करने आगे आ सकता है। कई दशकों से पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे का अंतरष्ट्रीयकरण करने की कोशिश करता रहा है पर इसने उसको ना पहले सफलता मिली है ना आगे मिलेगी। हाँ, ट्रंप जैसे राष्ट्रपति के मुँह से कुछ बात फिसल ज़रूर सकती है लेकिन उस पर ज़्यादा ख़ुश होने की ज़रूरत नहीं है। ट्रंप को ना सही उनके विदेश मंत्रालय को तो भारतीय उप महाद्वीप की सामरिक स्थितियों के बारे में जानकारी ज़रूर होगी और बात घूम-फिर के वहीं पहुँचेगी जहाँ पहले थी।
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राकेश कुमार सिन्हा
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