अमेरिकी राष्ट्रपतीय चुनावों की गिनती पूरी होने और परिणामों की आधिकारिक घोषणा होने में औसतन दो हफ़्ते लगते हैं। लेकिन हारने वाला उम्मीदवार रुझान देखकर चुनावी रात ढलने से पहले ही हार मान लेता है और जीतने वाले उम्मीदवार को बधाई दे देता है। अमेरिकी लोकतंत्र में यह परंपरा पिछले सौ सालों से चली आ रही है। परंतु इस बार यह परंपरा भी टूट गई है।
चुनाव हुए 10 दिन बीत चुके हैं। 99 प्रतिशत से ज़्यादा वोटों की गिनती पूरी हो चुकी है। अमेरिका के सभी प्रमुख समाचार माध्यम जो बाइडन और कमला हैरिस की जीत का एलान कर चुके हैं। लेकिन डोनल्ड ट्रंप अपनी हार स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। इस बार अमेरिकी इतिहास का सबसे भारी मतदान हुआ है और जो बाइडन को डोनल्ड ट्रंप की तुलना में पचास लाख से भी ज़्यादा वोट मिले हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव कुल वोटों के आधार पर नहीं बल्कि राज्यों से चुने जाने वाले इलेक्टरों या निर्वाचकों की संख्या से होता है। इनकी संख्या के आधार पर भी जो बाइडन ट्रंप से काफ़ी आगे निकल चुके हैं।
ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के हिमायती चैनलों के अनुसार जो बाइडन को बहुमत के लिए आवश्यक 270 इलेक्टरों से कहीं ज़्यादा, 290 इलेक्टर मिल चुके हैं जबकि ट्रंप अभी तक 214 इलेक्टर ही हासिल कर पाए हैं।
मतगणना में धाँधली का आरोप
ट्रंप का आरोप है कि मतगणना में धाँधली हुई है। उनका आरोप है कि कई राज्यों में ऐसे वोटों को गिना गया है जो चुनाव के दिन के बाद डाक से पहुँचे थे। उनका कहना है कि चुनाव के दिन के बाद आए वोटों को गिना जाना अवैध है। उनकी शिकायत यह भी है कि कुछ राज्यों में वोटों की गिनती के समय उनकी पार्टी के प्रेक्षकों को नहीं बैठने दिया गया। इसलिए वे अपनी जीत का दावा कर रहे हैं और अवैध वोटों को रद्द कराने के लिए अदालतों के दरवाज़े खटखटा रहे हैं।
चुनाव कराने वाली काउंटियों या तहसीलों और राज्यों के किसी भी चुनाव अधिकारी ने अभी तक ट्रंप के धाँधली के इन आरोपों का समर्थन नहीं किया है।
लेकिन ट्रंप को वोट देने वाले रिपब्लिकन पार्टी के करोड़ों समर्थक उनके आरोपों को सही मानकर उनकी जीत के दावे कर रहे हैं और धाँधली के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं। अब सवाल उठता है कि ट्रंप के आरोपों में कितना दम है और अगर नहीं तो फिर हार स्वीकार न करने के पीछे उनकी रणनीति क्या है?
पहले क्यों नहीं बोले ट्रंप?
जहाँ तक चुनावी दिन के बाद डाक से पहुँचने वाले वोटों की वैधता का सवाल है, तो यह चुनाव कराने वाली काउंटियों और राज्यों की सरकारों पर है कि वे कब तक मिले वोटों को गिनती में शामिल करती हैं। यदि ट्रंप को इन नियमों पर आपत्ति थी तो उन्हें चुनाव से पहले उसे उठाना चाहिए था। चुनाव विशेषज्ञों का मानना है कि अदालतें चुनाव हो जाने के बाद चुनावी नियमों के ख़िलाफ़ फ़ैसले नहीं देना चाहेंगी।
ऐसा लगता है कि ट्रंप और उनके समर्थकों को भी अदालतों से बहुत उम्मीद नहीं है। उनकी मुख्य रणनीति हार से नाराज़ हुए अपने मतदाताओं के मन में जो बाइडन की जीत के प्रति संदेह और अविश्वास भर देने की है जिसे अगले चुनावों में भुना कर बाइडन-हैरिस की जीत को नाकाम किया जा सके।
शायद इसीलिए अमेरिका के दक्षिणी राज्य टैक्सस के लेफ़्टिनेंट गवर्नर डैन पैट्रिक ने धाँधली के आरोपों का ठोस सबूत खोज कर लाने वाले को दस लाख डॉलर का इनाम देने का एलान किया है। ये वही महाशय हैं जो चुनाव प्रचार के दौरान कहते घूम रहे थे कि बुजुर्ग मतदाता लॉकडाउन का समर्थन करने के बजाय कोरोना से मर जाना चाहेंगे।
ऐसा लगता है कि बाइडन की जीत पर तरह-तरह के सवाल उठा कर और अपनी हार को स्वीकार न करने का सारा नाटक दक्षिण-पूर्वी राज्य जॉर्जिया में खाली हुई सेनेट की दो सीटों के लिए खेला जा रहा है।
रिपब्लिकन पार्टी का गढ़ माने जाने वाले जॉर्जिया में ट्रंप को मुँह की खानी पड़ी है और वे बाइडन से लगभग 15 हज़ार वोटों से हार रहे हैं। लेकिन इसी राज्य से सेनेट की दो सीटों के लिए हुए चुनाव में न्यूनतम 50 प्रतिशत वोट हासिल न कर पाने के कारण कोई उम्मीदवार नहीं जीत पाया है।
सेनेट पर कब्जा ज़रूरी
चुनावों के बाद बनी सेनेट में ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी 50 सीटें जीत चुकी है। जबकि बाइडन की डेमोक्रेट पार्टी केवल 48 सीटें ही हासिल कर पाई है। जॉर्जिया की दो अनिर्णीत सीटों पर पाँच जनवरी को दोबारा चुनाव कराया जाएगा। इस चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी दोनों या कम-से-कम एक सीट भी जीत जाती है तो सेनेट पर रिपब्लिकन पार्टी का कब्ज़ा हो जाएगा और बाइडन-हैरिस सरकार के लिए यह बड़ा सिरदर्द साबित होगा। क्योंकि राष्ट्रपति को अपनी मंत्रिपरिषद से लेकर एजेंसियों के प्रमुखों तक सारे महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों का अनुमोदन सेनेट से ही कराना होता है।
बाइडन-हैरिस को होगी दिक्कत
सेनेट पर रिपब्लिकन पार्टी का कब्ज़ा हो जाने के बाद जो बाइडन को अपनी जलवायु परिवर्तन, स्वास्थ्य सेवा और न्यूनतम मज़दूरी जैसी सारी प्रगतिशील नीतियों के बारे में और अपने प्रशासन की संरचना के बारे में फिर से सोचना होगा। क्योंकि सेनेट प्रगतिशील नीतियों और व्यक्तियों का अनुमोदन करने से इनकार करती रहेगी और ओबामा सरकार की तरह बाइडन की सरकार भी गतिरोधों में फँस कर रह जाएगी। इससे बाइडन-हैरिस सरकार को वोट देने वाले डेमोक्रेट मतदाताओं का मोहभंग होगा और दो साल बाद होने वाले प्रतिनिधि सभा और सेनेट के चुनावों में उसकी हालत और पतली हो जाएगी।
गुमराह करने की कोशिश
हार का बदला लेने के लिए ट्रंप और उनकी रिपब्लिकन पार्टी यह सारा गणित लगा चुकी है। चुनाव में धाँधली और ट्रंप से उनका जनादेश छीनने के षड्यंत्र के आरोप अमेरिका भर के और ख़ासकर जॉर्जिया के रिपब्लिकन पार्टी समर्थकों को नाराज़ और जागरूक रखने के लिए गढ़े और प्रचारित किए जा रहे हैं ताकि वे जनवरी के सेनेट चुनाव में बड़ी संख्या में वोट डालें और रिपब्लिकन उम्मीदवारों को जिताएँ। डेमोक्रेट पार्टी भी राष्ट्रपतीय चुनाव में मिली जीत को सार्थक बनाने के लिए सेनेट की ये सीटें हासिल करने का पूरा प्रयास कर रही है।
डोनल्ड ट्रंप की रणनीति का एक पहलू और भी है और वह है सत्ता हस्तांतरण में मदद करने के बजाए बाइडन के लिए मुश्किलें खड़ी करना। इसी नीति के तहत वे रक्षा और गृह सुरक्षा जैसे अहम विभागों में भारी उलट-फेर करने में लग गए हैं।
सैनिकों को बुला रहे वापस
सत्ता के हाथ से निकलने से पहले अफ़ग़ानिस्तान और इराक से अमेरिका की बची-खुची सेना को वापस बुला कर वे सैनिक तंत्र की सहानुभूति बटोरना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन से उन अधिकारियों को बर्ख़ास्त कर दिया है जो जल्दबाज़ी में सैनिक वापसी का विरोध कर रहे थे।
ट्रंप ने अमेरिकी रक्षा मंत्री मार्क एस्पर को भी चलता किया है जो चुनाव से पहले विदेश मंत्री माइक पोम्पियो के साथ भारत आए थे। मार्क एस्पर ने जॉर्ज फ़्लोएड की हत्या के विरोध में उमड़े जन-प्रदर्शनों को कुचलने के लिए सेना और नेशनल गार्ड को बुलाने का विरोध किया था।
ऐसा लगता है कि ट्रंप को अदालती लड़ाई हार जाने के बाद भी हार न मानने की अपनी रणनीति के ख़िलाफ़ डेमोक्रेटिक पार्टी के वामपंथी समर्थकों के भी सड़कों पर उतर आने का भय सता रहा है। इसलिए वे अपने बचे-खुचे दिनों में रक्षा मंत्रालय और पेंटागन में अपने जी-हुज़ूरों को तैनात रखना चाहते हैं ताकि ज़रूरत पड़ने पर अपनी रक्षा के लिए सेना नहीं तो नेशनल गार्ड का प्रयोग तो कर ही सकें।
ट्रंप की हरकतों से कुछ लोगों को आशंका हो रही है कि कहीं वे 20 जनवरी के बाद भी सत्ता में बने रहने और अपने तानाशाही इरादों को पूरा करने के लिए सेना बुलाने की योजना तो नहीं बना रहे हैं।
विद्रोह विधेयक का इस्तेमाल करेंगे?
अमेरिका के राष्ट्रपति को विद्रोह विधेयक का प्रयोग करते हुए सेना बुलाने का अधिकार तो है। लेकिन उसके लिए संसद की और जिस राज्य में कानून व्यवस्था बहाल करनी हो उस राज्य की सरकार की सहमति ज़रूरी होती है। लिंडन जॉन्सन ने 1967 के डेट्रॉएट दंगों पर काबू करने और 1992 में सीनियर बुश ने लॉस एंजिलिस में भड़के दंगों पर काबू करने के लिए इस कानून का प्रयोग किया था।
बुश-गोर का चुनाव
आम तौर पर हारने वाला उम्मीदवार अपनी हार स्वीकार कर विजेता को बधाई देता है। उसके बाद विजेता उम्मीदवार अपनी जीत का दावा करता है। सन 2000 के बुश-गोर चुनाव में भी अल गोर ने चुनाव की शाम को ही हार मान ली थी। लेकिन बाद में फ़्लोरिडा राज्य में फ़ैसले के मामूली अंतर को देखते हुए उन्होंने अपनी हार वापस लेने और बुश की जीत को चुनौती देने का फ़ैसला किया।
ट्रंप के पास विकल्प
डोनल्ड ट्रंप इन सारी मर्यादाओं को लाँघ चुके हैं। उनके पास अब दो ही विकल्प बचे हैं। पहला यह कि वे बाइडन पर उनका जनादेश छीनने का आरोप लगाते हुए और धाँधली के ख़िलाफ़ जंग जारी रखने का एलान करते हुए सत्ता छोड़ दें।
दूसरा यह कि वे अपनी जीत की दुहाई देते हुए बीस जनवरी तक न सत्ता के हस्तांतरण में कोई मदद करें और न ही व्हाइट हाउस को खाली करें और या फिर दोपहर के समय चुपचाप खिसक जाएँ या सुरक्षा अधिकारियों द्वारा निकाल बाहर किए जाएँ। दोनों ही विकल्प अमेरिकी लोकतंत्र के लिए शर्मनाक़ साबित होंगे और ट्रंप समर्थकों के गुस्से की आग में घी का काम करेंगे।
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