अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की दो दिन की भारत यात्रा का हिसाब सामान्य कूटनीति के फ़ॉर्मूले से नहीं लगाया जा सकता क्योंकि यह सामान्य यात्रा नहीं थी। अपने कार्यकाल के आख़िर में और बिना ट्रेड निगोशियेटर (व्यापार वार्ताकार) को साथ लिए भी उन्होंने अगर 21 हज़ार करोड़ का सौदा कर लिया और कई क्षेत्रों में सहयोग के साथ भारतीय उद्यमियों को अमेरिका में निवेश करने के लिए राजी कर लिया तो निश्चित रूप से उनके पास अपनी जनता के सामने गिनवाने वाली काफ़ी उपलब्धियां हैं।
लेकिन तय मानिए कि वह इन उपलब्धियों की जगह भारत में हुए भव्य स्वागत समारोह ‘नमस्ते ट्रंप’ की चर्चा ही करना पसन्द करेंगे क्योंकि अमेरिका में बसे भारतीय लोगों से अपनी नजदीकी बताने के साथ ही वह दुनिया को अपनी ‘लोकप्रियता’ दिखाना चाहते हैं।
भारतीय मूल के चालीस लाख लोगों का वोट महत्वपूर्ण है लेकिन अभी-अभी महाभियोग के चंगुल से छूटे ट्रंप के लिए लाखों लोगों द्वारा स्वागत करने का दृश्य दिखना एक अपराध बोध से मुक्त होने जैसा भी होगा।
‘हाउडी मोदी’ से निकला ‘नमस्ते ट्रंप’
माना जाता है कि हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ही अपनी विदेश यात्राओं के धूम-धड़ाके और चमक-दमक का उपयोग भारत में चुनावी लाभ के लिए लेना शुरू किया लेकिन इस काम में भारत के ही संसाधनों और संघ-बीजेपी के लोगों की मदद ली जाती रही है और अगर आप न्यूयार्क के मेडिसन स्क्वायर से लेकर ह्यूस्टन के ‘हाउडी मोदी’ तक पर गौर करेंगे तो ख़र्च, तैयारी और आकार-प्रकार बढ़ता ही दिखेगा। बल्कि ‘हाउडी मोदी’ के लिए जुटे पचास हज़ार लोगों का आकर्षण इतना हुआ कि ट्रंप ने सारा लिहाज छोड़कर उसमें भागीदारी की और ‘नमस्ते ट्रंप’ की योजना भी उसी से निकली है।
अपने देश के चुनाव में विदेश यात्रा की लोकप्रियता के प्रदर्शन का लाभ लेने की रणनीति शुरू करने का श्रेय मोदी जी को दिया जाए तो ग़लत नहीं होगा।
भारत-अमेरिका संबंधों का नया दौर
इस यात्रा में ट्रंप ने जैसी और जितनी भारत, मोदी और गांधी भक्ति दिखाई वह अद्भुत ही है। कोई आइजनहावर अमेरिकी शान-बान से आए होंगे, कोई ओबामा ज्यादा गांधी भक्ति दिखा गए होंगे पर सिर्फ भारत और भारतीय प्रधानमंत्री (मोदी) के लिए कभी कोई इतना बड़ा नेता इस तरह उछलता-कूदता आया हो, इसकी मिसाल नहीं है।
यह भारत-अमेरिका संबंधों का एक नया दौर बताने के साथ ही दुनिया की कूटनीति में हमारे बढ़ते महत्व को भी बताता है और इसका ट्रंप क्या ले गए और क्या दे गए, जैसे पारम्परिक मानकों से मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। इसमें अमेरिका का हमारे प्रति ऐसा प्रेम दिखाना ही महत्वपूर्ण है और इतने से ही हमारे ‘दुश्मन’ डरेंगे और हमारे विरोधी और दांव-पेच अपनाने को मजबूर होंगे।
यह सही है कि यह स्थिति चीन-अमेरिका टकराव से पैदा हुई है लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति सिर्फ भारत आएं और पाकिस्तान या अफग़ानिस्तान जैसे पारपंरिक ठिकानों पर न जाएं, यह महत्वपूर्ण है। ट्रंप ने लगभग हर बात में भारत का पक्ष लिया जो जाहिर तौर पर स्वार्थ से हो सकता है, किसी डर से तो नहीं ही था।
ट्रंप ने प्रशांत सागर क्षेत्र की कूटनीति में भारत को बड़ी भूमिका देने का इशारा भी किया जहां चीन से बैर और आसियान देशों को अपने प्रभाव में लेने की रणनीति से अमेरिका काफी समय से काम करता रहा है। भारत को भी यह लाइन सूट करती है लेकिन वह खुलकर अमेरिकी कैम्प में नहीं जा सकता क्योंकि उसके हित बाकी कई क्षेत्रों में हैं और वे कम महत्व के नहीं हैं।
भारत का साथ चाहता है अमेरिका
यहां ध्यान रखना होगा कि अमेरिका सभी मामलों में हमें पार्टनर नहीं बनाने वाला है। वैसे, अमेरिका की कोशिश तो हमारी आज़ादी के समय से ही भारत को अपने खेमे में लेने की रही है। 1962 के युद्ध के बाद से ही वह अपने हथियार बेचने के लिए बेचैन है और अभी भी रूस से हमारे रक्षा सौदों को लेकर वह परेशान रहता है। सवाल हमारा भी है और हमारी इच्छा अभी तक अमेरिकी खेमे में जाने से बचने की रही है। लेकिन हम निर्गुट नीति और विदेश व्यापार तथा विदेश नीति को जोड़ने वाले दौर से काफी आगे निकल आए हैं। ट्रंप की इस यात्रा के बाद भारत इस क्षेत्र में अमेरिकी लठैत नहीं बनने वाला है लेकिन उन्होंने यहां जो बातें सार्वजनिक रूप से कहीं, उसका इस्तेमाल वह अमेरिकी चुनाव में कर सकते हैं।
अमेरिका से जिन नौसनिक हैलीकॉप्टरों के लिए सौदा हुआ है उनका इस्तेमाल हिन्द महासागर प्रशांत क्षेत्र में तो हो सकता है, जिधर अपनी भूमिका बढ़ाने का आग्रह ट्रंप ने भारत से किया था, पाकिस्तान से नहीं, पर इसका मतलब यह भी नहीं है कि भारत में चुनाव न हों तो इस दौरे का राजनैतिक लाभ नहीं लिया जाएगा। दिल्ली में इसी समय भड़के दंगों ने बीजेपी और मोदी जी को बैकफुट पर ला दिया वरना अब तक इस ‘विजय यात्रा’ पर एंकर-एंकरिनों ने जाने कितने शो कर दिए होते।
दिल्ली के दंगे सरकार की असफलता को बताते हैं और ये बीजेपी-संघ के उकसावे पर हुए। लेकिन ट्रंप ने सब देख-जानकर दंगों को और नागरिकता क़ानून को भारत का अंदरूनी मामला बता दिया। मोदी जी को इससे बहुत राहत मिली। ट्रंप अपनी ‘मित्रता’ का यह ऋण चढ़ाकर गए हैं।
फिर छेड़ा कश्मीर का राग
ट्रंप ने अपने दौरे में जिन दो और चीजों की तरफ इशारा किया, उसका जिक्र न करना ‘नमस्ते ट्रंप’ की चकाचौंध में आंखें बंद करना होगा। ट्रंप ने एक बार फिर भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर के मुद्दे को लेकर मध्यस्थता का सवाल छेड़ा और भारत-अमेरिकी व्यापार में सीमा शुल्क की दरों का सवाल भी उठाया। अभी तक उन्हें सिर्फ हार्ले डेविडसन मोटरसाइकिलों पर लगने वाला कर ही याद आता था, इस बार उन्होंने भारत-अमेरिकी व्यापार अपेक्षा के अनुरूप न बढ़ने की चिंता में शुल्क की दरों पर बात की। जाहिर है कि ट्रंप को यह याद चीन से टकराव के बाद ही आई। भारत को इस टकराव से लाभ हो सकता है, ऐसी दोस्ती उसकी राह के रोड़े हटा सकती है, यह तैयारी हमारी तरफ से कहीं नहीं दिखी। ऐसा लगता है कि हम झंडियाँ लगाने और झाँकी पेश करने भर को कूटनीति मान बैठे हैं।
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