दिल्ली ही नहीं देश भर में यह सवाल हर पल बड़ा हो रहा है कि दिल्ली के दंगों के वक़्त (पहले दो दिन) केजरीवाल क्या कर रहे थे? कहाँ ग़ायब थे? वे वैसा कुछ क्यों नहीं करते दिखे जैसा विभाजन के वक्त महात्मा गाँधी जी ने किया था या बाद में जवाहरलाल नेहरू ने किया था। या कुछ दूसरा, कुछ नया, कुछ अनोखा क्यों नहीं किया?
इस सवाल को बड़ा करने वालों में से कोई दिल्ली के दंगास्थल पर नहीं है। यह सवाल कांग्रेस की आईटी सेल व उनके कार्यकर्ता और तमाम लिबरल/लेफ़्ट के लोगों की ओर से उछला है और इसको देश और विदेश में अकलियतों (अल्पसंख्यकों) की सहमति प्राप्त हो रही है। कांग्रेस की नज़र इस पर है इसलिये वह एक बार फिर स्थापित करने में जुट गई है कि केजरीवाल आरएसएस की “बी टीम” हैं। हनुमान चालीसा का पाठ और सरकार बनने के बाद अमित शाह से मुलाक़ात करने के केजरीवाल के चित्र इस स्थापना को आगे बढ़ा रहे हैं। इस घटनाक्रम ने उन संभावनाओं पर तगड़ा ब्रेक लगा दिया है जो तीसरी बार दिल्ली जीत के चलते केजरीवाल के पक्ष में देशभर में एकाएक उपजी थीं।
हालाँकि यह आरोप तथ्य से परे है कि केजरीवाल ने कुछ नहीं किया। पहले पहल तो उनके गुमान में भी नहीं था कि यह मामला इतना बढ़ जाएगा और बाद में यह उनके बूते में नहीं रहा। केजरीवाल इस बीच अपने विधायकों, पार्षदों, कार्यकर्ताओं के संपर्क में थे और प्रशासन के भी।
जब शिकायतों और सुरक्षा संबंधी कॉल की बाढ़ आ गई तब केजरीवाल दिल्ली के उप राज्यपाल की ओर घूमे, जिनके हाथ में दिल्ली की पुलिस है पर वहाँ से वह कुछ हासिल नहीं कर सके। जबकि दिल्ली चुनाव हारने से लज्जित बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वैचारिक समर्थकों पर गंभीर आरोप हैं कि उन्होंने उन इलाक़ों में आग फैलाने में सफलता प्राप्त कर ली जहां विगत चुनाव में उनकी सफलता का ग्राफ़ अच्छा था। ये वही इलाक़े हैं जिसकी सीमा उत्तर प्रदेश से सटी हुई है और जहां से कुमुक (सपोर्ट) जब चाहो तब बढ़ाई जा सकती है। पुलिस की ढिलाई और मिलीभगत से ऐसा करना आसान था और इसका भरपूर फ़ायदा उठाया गया।
दिल्ली के चुनाव में महिलाओं और युवाओं ने केजरीवाल को सबसे ज़्यादा वोट दिया था। सामाजिक वर्गीकरण के हिसाब से मुसलमान, सिख, ईसाई के प्रचंड बहुमत के अलावा दलितों के बहुमत ने भी केजरीवाल को पसंद किया था। पिछड़ी जातियों में जाट और गुर्जर समाज का बहुमत बीजेपी के साथ था पर अन्य ने केजरीवाल को पसंद किया था। सवर्ण बीजेपी के साथ थे। कांग्रेस सब जगह साफ़ थी।
केजरीवाल या उनके दल के किसी नेता में यह दम नहीं था कि पुलिस के बिना (पुलिस वैसे ही संदिग्ध आचरण कर रही थी) दिल्ली के दंगाग्रस्त इलाक़ों में साबुत पहुँच जायें। इन दंगों को कवर करने के दौरान पत्रकारों की थोक में हुई पिटाई इसका सबूत है।
इसी दौरान दक्षिणपंथ समर्थित विचारक्रम वाले प्लांट ने सोशल मीडिया और मीडिया पर केजरीवाल को “केजरुद्दीन” सिद्ध करने में सफलता पाई। उन्होंने “आप” के एक मुसलिम पार्षद में दंगे का “मुख्य विलेन” भी ढूँढ लिया है और कई चैनल और कई “निष्पक्ष’’ कहलाये जाने वाले पत्रकारों की राय भी इसी राय से मेल खाती है जबकि मुसलमानों का एक तबक़ा केजरीवाल को मौक़ापरस्त मान रहा है।
केजरीवाल के पास अब फिर से सरकार तो है पर तीन दिन के दंगों में ही इक़बाल नहीं बचा। संगठन उन्होंने बनाया नहीं और रातों-रात यह बनता नहीं। क़द्दावर लोग उन्हें सूट नहीं करते और जोकरों का यह काम नहीं है कि वे किसी चुनौती के वक़्त उसका हल खोज सकें या उसका सामना कर सकें!
क़सूरवार साबित हुए हैं केजरीवाल
कुल मिलाकर परिदृश्य यह है कि केजरीवाल ने 62-8-0 से जो ऐतिहासिक जीत हासिल की थी उससे उपजे जनसमर्थन को अचानक घटी इस परिघटना ने एक ऐसे गुनाह से उनके ख़िलाफ़ कर दिया है जो उन्होंने किया तो नहीं पर क़सूरवार वही साबित हुए हैं। और जो लोग चुनावों में हार गये थे उन्हें संभावना दिख रही है कि वे लोगों के बीच विश्वास जीतने में सफल हो गए हैं। बीजेपी हिंदू ध्रुवीकरण के काम में अपने को आगे बढ़ते देख रही है तो कांग्रेसी उम्मीद कर रहे हैं कि अब मुसलमानों को अकल आ गई होगी कि उनके लिये कांग्रेस ही मुफ़ीद है।
इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त मदनपुर खादर में सांप्रदायिक आधार पर हिंदुओं को इकट्ठा करने वाले संदेश बहुत बड़े पैमाने पर बेरोकटोक सोशल मीडिया में तैर रहे हैं। यह इलाक़ा ओखला/शाहीन बाग़ के क़रीब है। यहाँ भी ‘‘आप’’ और केजरीवाल के बस में कुछ ख़ास करने को है नहीं क्योंकि यहाँ बसे ज़मींदारों की आबादी का बहुमत बीजेपी समर्थक है और दिल्ली में पुलिस धैर्यपूर्वक हिंसा की प्रतीक्षा करने के कीर्तिमान स्थापित करने में अव्वल साबित हुई है। यहाँ दलित समाज ने केजरीवाल को वोट ज़रूर दिया था पर वह ‘‘आप’’ की जगह खुद में ही संगठित है।
आने वाले दिनों में दिल्ली में तरह-तरह के रंग में बिखरती-पनपती हिंसा के प्रयोग का यह नया मैदान तैयार किया जा रहा है। यह देखना दिलचस्प होगा कि अब तक अनेक बार ख़ारिज हो चुकने के बावजूद बीच-बीच में संभावना की आस जगा देने में सफल होने वाले केजरीवाल इस सब से कैसे उबरते हैं?
अपनी राय बतायें