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दिल्ली: जब आसानी से मिल जायेंगे देसी कट्टे, पिस्तौल तो दंगे होंगे ही!

होली से पहले ही दिल्ली के एक बड़े इलाक़े में खून की होली खेली गई। बरसों से जिस प्यार, भाईचारे और मेलजोल से लोग रहते थे वह कुछ ही घंटों में ख़त्म हो गया और लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए। यह सच है कि इन दंगों के दौरान ऐसी भी मिसालें देखने को मिलीं जहां हिंदुओं ने अपने मुसलिम पड़ोसियों को बचाया तो मुसलिम परिवारों ने दंगों के बीच हिंदू बहन की डोली उठवाई। इसके बावजूद जो कुछ हुआ है, उसने पूरे उत्तर-पूर्वी दिल्ली के लोगों के बीच एक दीवार खींच दी है या कहें कि दरार पैदा कर दी है। न जाने इस दरार को पटने में कितना लंबा वक़्त लगेगा। 

अगर आप दिल्ली में यमुनापार इलाक़े को देखें तो एक तिहाई दिल्ली साफ दो हिस्सों में नजर आती है। जैसे दिल्ली में एक पुरानी दिल्ली है और एक नई दिल्ली, उसी तरह यमुनापार में भी एक तरफ पूर्वी दिल्ली है जो अपेक्षाकृत नियोजित तरीक़े से बनी नजर आती है लेकिन दूसरी तरफ उत्तर-पूर्वी दिल्ली है, जहां बहुत कम आबादी ही प्लान करके बसाई गई है। कुकुरमुत्ते की तरह यहां अवैध बस्तियां उभर आईं और उन्होंने सारे इलाक़े को स्लम जैसी स्थिति में पहुंचा दिया। 

सारी सरकारें उत्तर-पूर्वी दिल्ली का विकास करने का वादा करती हैं, उनके वोट बटोरती हैं लेकिन सच्चाई यह है कि यहां धर्म की, तबक़ों की और वर्गों की राजनीति होती है जिसका फायदा हर राजनीतिक दल उठाता है।

कभी नहीं रहा तनावग्रस्त माहौल

मौजपुर का वह इलाक़ा जहां से दंगों की शुरुआत हुई, करीब 50 साल पहले बसा था। उससे पहले वहां सिर्फ खेती होती थी। किसानों ने ज़मीन बेचनी शुरू की तो फिर यहां बिना किसी प्लान के कॉलोनियां भी बननी शुरू हो गई। मौजपुर का इलाक़ा जाफ़राबाद से एकदम लगता हुआ इलाक़ा है। सीलमपुर और जाफ़राबाद में मुसलिम बहुतायत में हैं और मौजपुर तथा इसके साथ लगते घोंडा और ब्रह्यपुरी में हिंदुओं की तादाद ज़्यादा है। 

उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंदू-मुसलिम तनाव या फसाद बहुत कम हुए हैं। 1992 में अयोध्या विवाद के बाद यहां दंगा ज़रूर हुआ था लेकिन वह सिर्फ एक रोड तक ही केंद्रित था।

इस बार के दंगों में मौजपुर के सामने की कॉलोनी कबीर बस्ती से पहला पत्थर आया और फिर पूरा शहर ही पत्थरों का ढेर बन गया। मौजपुर का इतिहास ज़्यादा पुराना नहीं है। दरअसल, इस इलाक़े में कुछ कुम्हार रहा करते थे और अपने काम के लिए उन्होंने गधे पाले हुए थे। इसलिए इस इलाक़े को गधापुरी कहा जाता था। यहां एक जोहड़ (तालाब) भी था जो पानी की ज़रूरतें पूरी करता था। 

जोहड़ को ख़त्म करके उसकी ज़मीन और आसपास की सारी सरकारी ज़मीन को कुछ लोगों ने बेच डाला। यह कोई 25 साल पहले की ही बात होगी कि यहां ज़मीन की कीमत कौड़ियों में थी। फिर वहां कबीर बस्ती भी बनी और कर्दमपुरी भी। कबीर बस्ती में ज़्यादातर मुसलिम आकर बसे। ये लोग मजदूर हैं। इनमें से यूपी के अमरोहा, संभल, मुरादाबाद और अलीगढ़ से आए लोग ज़्यादा हैं। 

रोज़गार मिला, बसते गये लोग

रोज़गार की तलाश में दिल्ली आने पर उन्हें सिर छिपाने की जगह सस्ते में मिल गई और साथ ही काम करने का ठीया भी मिल गया। घर पर सिलाई, कढ़ाई, जूते-चप्पल या फिर डेकोरेशन का छोटा-मोटा सामान बनाकर बहुत-से लोग अपना गुजारा करते रहे। धीरे-धीरे उनमें से कुछ के पास ज़्यादा पैसा आया तो फिर मकान के हालात भी बदल गए और रहने-सहने का ढंग भी। अब कच्चे मकानों की जगह चार-पांच मंजिला मकान बच चुके हैं लेकिन छोटे-छोटे माचिस की डिब्बियों जैसे। 

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आम आदमी पार्टी का निगम पार्षद ताहिर हुसैन भी 20 साल पहले दिहाड़ी मजदूरी करने के लिए गांव से राजधानी आया था। 2017 में ताहिर हुसैन ने दिल्ली नगर निगम चुनाव में अपनी संपत्ति की घोषणा की थी, उसमें उसने 17 करोड़ रुपये से ज़्यादा की प्रॉपर्टी बताई थी। ऐसे अनेक लोग हैं जो ताहिर की तरह ही यहां आकर अपना धंधा जमाने में कामयाब हो गए। कमोबेश यही हालत करावल नगर और उसके आसपास की कॉलोनियों की भी है। 

धड़ाधड़ बनीं अवैध कॉलोनियां

करावल नगर भी पहले नगर न होकर पूरी तरह गांव ही था। वहां भी खेती की ज़मीन को बेचकर कॉलोनियां कटीं और देखते ही देखते चांद बाग, मुस्तफ़ाबाद, तुखमीरपुर, सादतपुर, दयालपुर, शिव विहार और प्रगति विहार जैसी अवैध कॉलोनियां बन गईं। सीलमपुर और जाफ़राबाद की तरह चांद बाग और मुस्तफ़ाबाद में तो घनी मुसलिम आबादी है जबकि बाकी कॉलोनियों में हिंदू ज़्यादा तादाद में हैं। यूपी के अलावा बिहार और बंगाल के मुसलिम भी इन कॉलोनियों में आए लेकिन वे ज़्यादातर मजदूर ही हैं। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के सब्जी और फल व्यापार पर 90 फीसदी मुसलिमों का ही कब्जा है। बहुत-से लोगों ने रिक्शा और ई-रिक्शा को किराए पर देने का बिजनेस किया है जिससे वे लाखों रुपये कमा रहे हैं। 

जींस की फ़ैक्ट्रियों में काम करने वाले ज़्यादातर मुसलिम हैं। जींस की सिलाई के कारीगर भी अधिकतर मुसलिम ही हैं। ताहिर हुसैन जैसे कई लोगों ने ज़मीन ख़रीदकर उस पर बहुत सारे कमरे बना दिए और ग़रीब मजदूरों को किराए पर दे दिए। यह उनके लिए भारी मुनाफे वाला सौदा बना। यहां तक कि यूपी के कई इलाक़ों के लिए जाफ़राबाद से रोजाना रात को डग्गामार बसें भी जाती हैं जो अपने पैतृक गांव से उनका रिश्ता अब तक जोड़े हुए हैं।

23 फरवरी की दोपहर को जब कपिल मिश्रा ने जाफ़राबाद में नागरिकता क़ानून के विरोध में बैठी मुसलिम महिलाओं को उठाने की मांग की और साथ ही तीन दिन का वक्त दिया तो एकाएक यह शांतिपूर्ण इलाक़ा जलने लगा।

चुनाव नतीजों ने किया असर

यह तो सच्चाई है कि विधानसभा चुनावों के दौरान से ही जिस तरह माहौल को गर्माया गया, उससे समाज में बंटवारे जैसे हालात नज़र आने लगे थे। इस बंटवारे में विधानसभा चुनावों के नतीजों ने आग में घी डालने का काम किया। आम आदमी पार्टी को मुसलिम समुदाय का भरपूर और जोरदार समर्थन मिला। कट्टर हिंदुओं को लगा था कि यह उनकी जबरदस्त हार हुई है। कपिल मिश्रा की धमकी के बाद जब पत्थरबाज़ी शुरू हुई तो फिर दिल और दिमाग में जो जहर पिछले कुछ दिनों से जमा हुआ था, वह बाहर आ गया। इंसान अपनी इंसानियत खो बैठा और जो कुछ हुआ, वह सभी के सामने है।

दरअसल, उत्तर-पूर्वी दिल्ली में कई ऐसी कॉलोनियां हैं जहां हिंदू बहुतायत में हैं लेकिन मुसलिम आबादी भी उपस्थिति दर्ज कराती है। मसलन, मकान मालिक हिंदू है तो उसने अपनी दुकान किराए पर मुसलिम को दी हुई है। इससे पहले कोई ऐसा भेदभाव था भी नहीं। इसी तरह मुसलिम बाहुल्य इलाक़ों में भी हिंदुओं के शो रूम हैं। मसलन, चांद बाग में कारों का शो रूम एक हिंदू का ही था और काम करने वाले मुसलमान थे। 

इन दंगों में दोनों ही पक्षों का भारी नुकसान हुआ है। जहां हिंदू बहुतायत में हैं, उन्होंने मुसलिम आबादी को और उनकी दुकानों को अपना निशाना बनाया। जहां मुसलिम आबादी ज़्यादा है वहां उन्होंने हिंदुओं की संपत्ति बर्बाद की। हैवानियत के वक्त न कोई हिंदू रहता है और न ही कोई मुसलमान।

अवैध हथियारों का होता है धंधा 

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सीलमपुर, जाफ़राबाद से लेकर चांद बाग, मुस्तफ़ाबाद तक अवैध धंधों की भी भरमार है। अंडर वर्ल्ड के साथ-साथ अवैध हथियारों का धंधा भी यहां खूब चलता है। यूपी और हरियाणा के बॉर्डर पर होने के कारण इस इलाक़े में अवैध हथियार बड़ी ही आसानी से मिल जाते हैं। यही वजह है कि मरने वालों में से आधे से ज़्यादा गोली से ही मरे हैं। दिल्ली पुलिस के हेड कॉन्स्टेबल रतन लाल की भी गोली लगने से मौत हुई थी। पुलिस अब हर जगह से कारतूसों के खोखे भी बरामद कर रही है। जाहिर है कि यहां के बहुत सारे लोगों की आमदनी एकाएक बढ़ने के पीछे यह भी एक बड़ा कारण है। यही वजह है कि देखते ही देखते कच्चे मकानों की जगह कई मंजिलों वाले मकान भी बन गए।

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दिल्ली पुलिस को कई वीडियो और सीसीटीवी फ़ुटेज मिली हैं, जिसमें दंगाइयों को पिस्तौलें चलाते हुए देखा जा सकता है। पुलिस का कहना है कि बिहार के मुंगेर और मध्य प्रदेश के बड़वानी और खरगौन में अवैध गन फैक्ट्री को बंद किया गया तो उनमें काम करने वाले कई लोग दिल्ली के आसपास पहुंच गए। 

आसानी से मिल जाते हैं हथियार

हथियार बनाने के लिए कच्चा माल पश्चिमी यूपी के मेरठ से आता है। पश्चिमी यूपी में कोई भी आसानी से 10000 रुपये में पिस्तौल हासिल कर सकता है। वहीं, देसी कट्टा महज 1500 रुपये में आ जाता है। दिल्ली चुनाव से ठीक पहले दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने मेरठ में अवैध हथियार बनाने वाली फ़ैक्ट्री का भंडाफोड़ किया और दिल्ली में हथियारों की सप्लाई कर रहे दो लोगों को गिरफ्तार किया था। इन्होंने पूछताछ के दौरान यह कबूल किया था कि उन्होंने एक हथियार 3000 रुपये में ख़रीदा था और इसे 10000-35000 रुपये में बेचा था। पुलिस ने 60 सेमी. ऑटोमैटिक पिस्तौल और अन्य साजो-सामान बरामद किया था। 

इस तरह समझा जा सकता है कि दंगों के लिए दिमाग में जहर था और अगर हथियार आसानी से मिल जाएं तो फिर कोई भी भटका हुआ युवक धार्मिक उन्माद में किसी का गला काटने या किसी की दुकान-मकान जलाने में हिचक नहीं करेगा। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में यही सब हुआ है। यही वजह है कि दंगा करने वालों में सबसे ज़्यादा युवा ही थे और इंसान से हैवान बनने में उसे कोई नहीं रोक पाया। बस, चंद ही घंटों में बरसों का भाईचारा और मेलमिलाप जलकर खाक हो गया।

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दिलबर गोठी
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