अगर दिल्ली की तीनों सरकारें अर्थात केंद्र सरकार, राज्य सरकार और लाट साहब वाली तीसरी सरकार किसी सवाल पर एक ही दिशा में काम करने पर जुटें तो इसे ट्रिपल इंजन सरकार कहा जाए या नहीं , इस बात पर विवाद हो सकता है लेकिन अगर वे तीनों किसी बड़ी समस्या को निपटाने के सवाल पर सक्रिय हो तो सामान्य ढंग से खुश होना बनता है।
दिल्ली में प्रदूषण वाले मौसम की शुरुआत से पहले उसकी रोकथाम के नाम पर ऐसा ही हो रहा है। ऐसा हर साल होता है और स्वास्थ्य के नुकसान के साथ ही काफी सारे धन की बर्बादी को जान समझ लेने के बाद भी कहा जा सकता है कि कुछ मामलों में हल्का फरक आया है। पराली अर्थात धान की खेत में छोड़ी डंडियों या पुआल को वहीं जला देने से फैलने वाले धुँए की मात्रा और सघनता में कमी आई है। और कई कदम भी उठाने का प्रयास हुआ है। ऐसा सारे कदमों के लिए नहीं कह सकते पर बेतहाशा बढ़ती गाड़ियों से निकलने वाले धुँए को भी नुकसानदेह गिनना ऐसा ही कदम है जो कैंसर से लेकर न जाने कितनी बीमारियों का कारण माना जाता है।
पर इसके साथ ही यह भी हुआ है कि आपदा में अवसर ढूँढने वाले भी आ गए हैं। मुश्किल यह है कि ऐसा सिर्फ कमाई के काम में लगे चंद लोग नहीं हैं, खुद सरकार उनकी सेवा में लगी दिखती है। और वह ग़लती करने वालों को पकड़ने या सजा देने की जगह अपने नागरिकों को सजा देने, वसूली करने और उनके स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने की छूट दे रही है। जो लोग प्रदूषण रोकने के मानकों पर खरा उतरने वाले वाहन नहीं बना रहे हैं सरकार उनके वाहनों की बिक्री बढ़वाने का जिम्मा लेकर काम करती लग रही है। और यह करते हुए उसका खजाना भी भर रहा है। और जिन नागरिकों की जेब कट रही है या जिनको प्रदूषण की मार झेलनी होती है उनको ही दोबारा वहाँ खरीदने का बोझ उठाना पड़ रहा है क्योंकि सरकार ने सार्वजनिक परिवहन को नाश होने दिया है।
अकेले दिल्ली में पंजीकृत वाहनों की संख्या में 2021-22 में सीधे 35.4 फीसदी कमी हो गई है। 2020-21 में दिल्ली में 1.2 करोड़ पंजीकृत वाहन थे जो 2021-22 में 79.2 लाख रह गए। दिल्ली सरकार ने 48,77,646 वाहनों का पंजीयन समाप्त किया था और बड़े पैमाने पर पुराने वाहनों की धर-पकड़ से यह ‘सफलता मिली थी। पर ये सारे वाहन किसी न किसी के उपयोग में थे, जीवन चला रहे थे, उनकी शान थे। यह और बात है कि हमको-आपको चूँ की आवाज भी सुनाई नहीं दी।
कमीशन फार एयर क्वालिटी मैनेजमेंट नामक संस्था भी सर्दियों के पहले बढ़ते प्रदूषण के नाम पर अपनी रिपोर्ट और सुझाव के साथ हाजिर है। पर किसी को यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि उनका बैर प्रदूषण से है या पुरानी गाड़ियों से या फिर सबका उद्देश्य नई गाड़ियाँ बिकवाना है।
न तो प्रदूषण चेक करके देखने की ज़रूरत मानी गई और न ही ऐसे वाहनों को देहात या कम प्रदूषण वाले इलाक़ों में भेजने का या सस्ते निर्यात का विकल्प सोचा गया। सीधे दामिल फांसी। जिन गाड़ियों का पंजीकरण निरस्त हुआ है उनमें बहुत ऐसी भी हैं जिनको ज्यादा अवधि का लाइसेंस इन्हीं सरकारों ने दिया और जिनसे ज्यादा अवधि का रोड टैक्स वसूला जा चुका है। सुनते हैं कि इस आदेश के खिलाफ कुछ लोग अदालत गए थे पर उनके मुक़दमे का क्या हुआ यह ख़बर कहीं से नहीं आई है।
दूसरी ओर हर कहीं पुराने वाहनों की धर-पकड़ हो रही है। सिपाहियों को सिर्फ निर्देश नहीं है, संभवत: कुछ बोनस भी दिया जा रहा है। कमीशन फार एयर क्वालिटी मैनेजमेंट ने सुप्रीम कोर्ट में शिकायत की है कि दिल्ली में 5928675 ऐसी गाड़ियां हैं लेकिन सिर्फ कुछ हजार गाड़ियां ही पकड़ी गई हैं। लाट साहब सक्सेना जी अलग लगे पड़े हैं। सो देखते जाइए कि इस बार के धुंध और प्रदूषण के मौसम में कितनी गाड़ियां कुर्बान होती हैं। जाहिर तौर पर इन सबके पीछे वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा 2020-21 के बजट में निजी वाहनों और व्यावसायिक वाहनों को जोड़कर क़रीब अस्सी लाख गाड़ियों को ‘स्क्रैप’ करने की बात ही है। तब भी कहीं से कोई आवाज़ नहीं आई थी।
इसके बाद नई नीति के कुछ संकेत परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने दिए थे। यह फ़ैसला सिर्फ़ नई गाड़ियों के लिए नहीं था बल्कि उन गाड़ियों पर भी लागू हुआ जिनका पन्द्रह और बीस साल का रोड टैक्स पहले वसूला जा चुका था। कहना न होगा कि मामला दिल्ली भर का नहीं है। अगर अकेले दिल्ली में एक साल मे 48 लाख से ज्यादा गाड़ियां कबाड़ बन गईं और अब 60 लाख गाड़ियों का पंजीकरण खत्म हुआ है तो देश भर की संख्या से निर्मला जी और गडकरी साहब बहुत खुश होंगे ही।
पर माना जाता है कि जब निर्मला सीतारमण घोषणा कर रही थीं तब उन्होंने जानबूझकर ग़लत आंकड़ा दिया। उन्होंने जो संख्या बताई वह असल संख्या के लगभग चालीस फीसदी भी नहीं मानी जाती। जानकार मानते हैं कि देश में इस नीति के दायरे में आने वाले वाहनों की संख्या चार से साढ़े चार करोड़ के बीच होगी जिनमें से आधे से कम वाहन ही उम्र की सीमा के अन्दर हैं। जाहिर है काफी सारे वाहन जिला पंजीयन कार्यालय की पहुंच और जानकारी से भी बाहर होंगे। कार को कबाड़ मानकर तोड़ना, गलाना और उसके मुट्ठी भर धातुओं का दोबारा इस्तेमाल करने से बेहतर तो यही है कि किसी तरह उसमें इस्तेमाल हुई चीजों का तब तक अधिकतम इस्तेमाल किया जाए जब तक वे सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से (अर्थात ज्यादा प्रदूषण फैलाकर) हमारे लिए ख़तरा न बन जाएँ। यह कल्पना भी आसान नहीं है कि भारत जैसे गरीब मुल्क में बनी गाड़ियों में से दो करोड़ से ज़्यादा को हमारी ही सरकार कबाड़ बनाने जा रही है। एक तो भारत जैसे देश में इतनी गाड़ियों के बनने चलने और सार्वजनिक परिवहन की इस दुर्गति पर भी सवाल उठने चाहिए। इतनी गाड़ियों से रोड टैक्स वसूलने के बाद भी टोल टैक्स वसूली वाली सड़कों पर सवाल उठने चाहिए। लेकिन इनमें से कोई सवाल इतना बड़ा नहीं है कि एक साथ दो-ढाई करोड़ ऐसी गाड़ियों को कबाड़ घोषित करके गिनती की कम्पनियों को मालामाल करने के फैसले पर सवाल उठाने की बात भुला दी जाए।
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