‘...अब कई लोग कहते हैं कि भई इधर सेकुलर स्टेट में हिंदुओं का राज कौमी राज नहीं होना चाहिये तो कौन कहता है कौमी राज बनाओ! हिंदुस्तान में तीन-चार करोड़ मुसलमान पड़े हैं। कौमी राज की बात नहीं है, लेकिन बात एक है कि हिंदुस्तान में जो मुसलमान पड़े हैं वो मुसलमान में काफी लोगों ने… ज़्यादातर लोगों ने पाकिस्तान बनाने में साथ दिया। अभी ठीक है लेकिन अब एक रोज़ में… एक रात में क्या दिल बदल गया? वो मुझे समझ में नहीं आता कि एक रोज़ में दिल कैसे बदल गया? वो कहते हैं कि हम वफादार हैं… हमारी वफादारी में शंका क्यों की जाती है? तो हम कहते हैं कि हमसे क्यों पूछते हो? आपके दिल में पूछो। हमको मत पूछो वो हमको पूछने की बात नहीं है।’
-सरदार वल्लभ भाई पटेल, 3 जनवरी 1948, कलकत्ता (कोलकाता)
आज़ादी मिल चुकी थी, देश बँट चुका था, पाकिस्तान बन चुका था। कोलकाता के शहीद मैदान में दिया सरदार पटेल का यह भाषण सार्वजनिक मंचों पर उपलब्ध है। चाहे तो इसकी ऑडियो क्लिप आप यू-ट्यूब पर सुन सकते हैं। (काउंटर 5:10 to 6:30)
अगर आप यह सोच कर हैरान हैं कि आज कोरोना काल में इस भाषण का ज़िक्र क्यों और कैसे? तो हम इस पर भी आएँगे। मगर पहले बात उन वारदातों की जिनकी ख़बरें लॉकडाउन के दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों से आ रही हैं। इन ख़बरों का लब्बो-लुआब यह है कि देश का ‘मुसलमान पागल हो चुका है। वो इंदौर में कोरोना वारियर्स पर हमला करता है, हेल्थ वर्कर्स से लेकर पुलिस वालों तक को निशाना बनाता है। आज़म ख़ान के रामपुर में आक्रामक हो जाता है। मुरादाबाद के बलवे में तो छत से पत्थर बरसाती औरतें भी शामिल हो जाती हैं।’
देश का पढ़ा-लिखा मुसलमान भी इसे जहालत क़रार देता है। इन घटनाओं की निंदा करता है। मगर उसके बाद भी आक्रामकता कम नहीं होती। हम इस बहस में नहीं जाते कि पढ़ा लिखा मुसलमान अपने ही समुदाय की विश्वसनीयता खो चुका है, कि घेट्टो में बसा आम मुसलमान इन्हें अपना खैरख्वाह नहीं मानता। बड़े सवाल ये हैं कि-
क्या मुसलमान कोरोना के जानलेवा ख़तरे को नहीं समझ रहा? क्या वो जानबूझ कर अपनी जान देने पर आमादा है? और सबसे बड़ी बात कि आख़िर वो इतने ग़ुस्से में क्यों है?
एक मिनट के लिए उस स्टीरियो टाइप से बाहर निकलिए, कि मुसलमान तो गुंडा होता ही है, जिसके लिए महात्मा गाँधी के किसी कथन को भी कोट कर दिया जाता है। मगर हाँ! मुसलमान बहुत आक्रामक है। मनोविज्ञान पर यक़ीन है तो मानिए कि आक्रामकता की जड़ में आशंका होती है, एक क़िस्म का डर होता है। तो क्या मुसलमानों की मौजूदा आक्रामकता की जड़ में आशंका और डर ही है?
इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए दशकों पीछे लौटना होगा। मैं एक निजी क़िस्सा बयान करता हूँ। यह क़िस्सा मेरे दादा से जुड़ा है जो सरकारी कर्मचारी थे। सत्तर का दशक था, इमरजेंसी के आसपास का दौर। संजय गाँधी का सारा ज़ोर परिवार नियोजन पर था, ज़रिया नसबंदी थी। नसबंदी के तमाम क़िस्से किताबों में बिखरे पड़े हैं। उनमें एक यह भी है कि सरकारी कर्मचारियों को नसबंदी का टार्गेट दिया गया। टार्गेट हर हाल में हासिल करना था। कई ऐसे थे जो लक्ष्य पूरा न करा पाते तो अपनी ही नसबंदी करा के बैठ जाते थे। दादा बताते हैं कि इसी सिलसिले में एक गाँव में जाना हुआ। गाँव मुसलमानों का था। ज़ाहिर है नसबंदी वालों की अगवानी तो होनी नहीं थी। मगर उस गाँव में जो हुआ उसके बाद दादा ने किसी मुसलिम गाँव में सरकारी काम से न जाने की क़सम खा ली। हुआ यह कि दादा की टीम जैसे ही गाँव के भीतर घुसी, कुछ लोगों से बात शुरू की, अचानक कहीं से गंदगी भरा एक घड़ा बिलकुल उनके पास आकर फटा। जब तक समझते एक और घड़ा गिरा। जो गाँव वाले साथ थे वो ग़ायब और तीसरा घड़ा सिर पर गिरता उससे पहले दादा अपने साथियों के साथ सिर पर पैर रख कर भागे।
आइए, अब पल्स पोलियो अभियान के दौर में आते हैं। पल्स पोलियो अभियान आपको आज जितना कामयाब दिखता हो, उस दौर में इस अभियान से जुड़े रहे स्वास्थ्य कर्मचारियों से पूछिए। हालाँकि आक्रामकता नसबंदी वाली नहीं थी, मगर आशंकाएँ तब भी कम नहीं थीं। मुसलिम मोहल्लों मे अभियान चलाना मुश्किल हो रहा था। टीकाकरण के लिए गए कर्मचारियों के मुँह पर दरवाज़े धड़ाक से बंद हो जाते। एक आम अफवाह यह थी कि पल्स पोलियो का कतरा मुसलमानों की आने वाली नस्ल को नपुंसक बनाने की साज़िश है। यह अफवाह कहाँ से आ रही थी, कौन उड़ा रहा था किसी को पता नहीं था मगर यह आशंका दूर करने में हेल्थ वर्कर्स के पसीने छूट गए। मज़े की बात यह कि अफवाह बाद में पाकिस्तान तक पहुँच गयी।
और अब कोरोना, क्वरेंटीन और तब्लीग़ी जमात। जब तक इस पिक्चर में जमात नहीं आयी थी फ़िल्म बड़ी थकी-थकी-सी चल रही थी। CAA-NRC और NPR को लेकर चल रहे धरना-प्रदर्शन भी बेनतीजा ख़त्म होने लगे। शाहीन बाग़ को तो दिल्ली पुलिस ने निज़ामुद्दीन कांड से एक हफ्ता पहले ही खाली करा लिया। मगर तब्लीग़ी जमात की शक्ल में अचानक एक विलेन मिल गया। मीडिया अपनी मौजूदा फितरत के मुताबिक़ मरकज़-मरकज़ चिल्लाने लगा। मरकज़ का मतलब क्या है, बहुतों को पता भी नहीं था। एक स्वनाम धन्य गणतांत्रिक चैनल ने तो तब्लीग़ियों की तर्ज़ पर मरकज़ियों तक लिख डाला।
इस जटिल ‘जियोपॉलिटिकल’ दौर में जब ग्लोबल विलेन चीन बना हुआ है, भारत के लिए विलेन जमाती और प्रकारांतर से मुसलमान बन गए। सरकारी बयान भी इसे हवा देते रहे, और ताज़ा आँकड़ा कहता है कि देश में क़रीब 30 फ़ीसदी कोरोना केस की जड़ में जमाती हैं।
सरकारी आँकड़ों को झुठलाने का न कोई आधार है न कोई वजह। मगर जब कोरोना संक्रमण का संकट ऐसा है तो मुसलमानों का रुख वैसा क्यों है? सरकार के साथ सहयोग करने की बजाए वो इस कदर ‘होस्टाइल’ क्यों हैं? जवाब जामिया के एक सुलझे हुए शोधार्थी मुस्तफा जैदी देते हैं - ‘जनाब मुसलमान का भरोसा इस देश से उठ चुका है, ख़ास तौर पर CAA के बाद। मुसलमान सरकार की हर कोशिश के पीछे साज़िश देख रहा है। घनी मुसलिम बस्तियों में बसा मुसलमान यूँ भी पढ़ा लिखा नहीं है। उसके पास किसी दलील को तर्कों पर तौलने का वक़्त भी नहीं है। आप एक मुसलिम मोहल्ले से किसी को ‘क्वरेंटीन सेंटर’ ले जाने पहुँचते हैं, लोगों को ‘डिटेंशन सेंटर’ सुनाई पड़ता है।’
मुस्तफ़ा सख़्त लहज़े में उस गहरे अविश्वास की ओर इशारा करते हैं जिसके साथ मुसलमान इस वक़्त जी रहा है। मगर क्या यह अविश्वास बस मोदी सरकार के आने से पैदा हुआ है? तो इसका जवाब है- नहीं, यह अविश्वास बँटवारे के पहले से मौजूद था। आज़ादी के बाद हमने ख़ुद को सेकुलर घोषित तो कर दिया, मगर इस खाई को पाटने की कोशिश नहीं की बल्कि सेक्युलरिज़्म के नाम पर बस तोप दिया। आइए, अब सरदार पटेल की कोलकाता की तकरीर पर वापस चलें।
ताज़ा-ताज़ा बँटे देश को सरदार याद दिलाते हैं कि भारत में रह गए ज़्यादातर मुसलमानों ने पाकिस्तान बनवाने में मदद की। वो तंज भी करते हैं - ‘क्या एक रात में दिल बदल गया? उनकी समझ में नहीं आता कि एक रोज़ में दिल कैसे बदल सकता है?’ सरदार मुसलमानों की वफादारी पर उनसे कहते हैं - ‘अपने दिल से पूछो!’
क्या गाँधी के चेले की ये ज़बान किसी और पाठ की गुँज़ाइश छोड़ती है? ये वही सरदार हैं जिन्हें बार-बार संघ पर बैन लगाने का श्रेय दिया जाता है। मगर उनके लिए बँटवारे के बाद भी 3-4 करोड़ मुसलमान इस मुल्क में पड़े रह गए थे! इस वक़्त लौहपुरुष पर उँगली उठाने का मतलब है ‘स्टैच्यु ऑफ़ यूनिटी’ पर सवाल उठाना। मगर समय तो सबका मूल्यांकन- पुनर्मूल्यांकन करेगा। मुसलमान आज अचानक ऐसा नहीं हो गया है, 40 के दशक में बोया गया बीज, मोदी के दौर में आकर ज़हरबाद बन गया है। परिवार नियोजन से लेकर पल्स पोलियो तक के विरोध के पीछे अविश्वास और आशंका ही थी। नया बस इतना है कि CAA के साथ टाट का वो सेक्युलर पर्दा भी फट गया जिससे हमारी सांस्थानिक सांप्रदायिकता ढँकी-छुपी थी। मुसलमान को साफ़ बता दिया गया कि तुम ‘अनवॉन्टेड वो' हो, हिन्दू, मुसलिम, सिख, ईसाई का तराना झूठा था।
सरकार संसद में बोलती रही, साक्षात्कारों में बोलती रही, मगर मौक़ा मिलते ही शाहीन बाग़ को करंट के झटके देती रही। ऐसे में कोरोना की शुरुआती हवा को भी मुसलमानों ने अपना आंदोलन उखाड़ने की साज़िश माना तो आश्चर्य नहीं।
अपनी राय बतायें