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उत्तर-पूर्व के राज्यों में नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध। फ़ोटो साभार: फ़ेसबुक

नागरिकता संशोधन विधेयक भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि पर एक दाग़?

यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि नागरिकता संशोधन विधेयक भारत के विश्वव्यापी धर्मनिरपेक्ष छवि पर एक बदनुमा दाग़ की तरह होगा। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ सिद्धांत की व्याख्या और विश्व गुरु बनने का सपना क्या इसी तरह के क़ानून बना कर पूरा किया जाएगा?
राकेश कुमार सिन्हा

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नागरिकता संशोधन विधेयक को मंज़ूरी दे दी है। इस विधेयक में पड़ोसी देशों से आए हिंदू, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है। वर्तमान में मौजूद नागरिकता अधिनियम-1955 अवैध प्रवासियों के भारत में नागरिकता लेने के दावों को मान्यता नहीं देता है। इस विधेयक में ग़ैर-मुसलिमों के लिए नेचुरलाइज़ेशन द्वारा नागरिकता हासिल करने की शर्तों में ढील देने का प्रस्ताव है। नेचुरलाइज़ेशन एक क़ानूनी प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी दूसरे देश के नागरिक को नागरिकता या राष्ट्रीयता दी जाती है। मौजूदा क़ानून के अनुसार, किसी व्यक्ति को नागरिकता पाने के लिए आवेदन की तिथि से बारह महीने पहले की अवधि तक भारत में निवास करना ज़रूरी है और उसके पहले चौदह वर्षों में से ग्यारह वर्ष तक भारत में रहना चाहिए। संशोधन विधेयक के माध्यम से नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 3(1) में एक नया (डी) प्रवाइज़ो लगा कर ग्यारह वर्ष की अवधि को घटा कर पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के ग़ैर मुसलिम शरणार्थियों के लिए छह वर्ष करने का प्रस्ताव है। इस विधेयक को संभवतः 9 दिसम्बर को लोकसभा में पेश करने की सम्भावना है।

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बीजेपी सरकार के दूसरे कार्यकाल में एक से एक बढ़ कर ज्वलनशील एवं विवादित क़ानून बनाने की शृंखला में यह नयी कड़ी है। जनवरी माह में इस विधेयक को लोकसभा में पास करा लिया गया था लेकिन राज्य सभा में बहुमत नहीं होने के कारण लटक गया। अब दुबारा से प्रयास किए जाएँगे। लोकसभा में इसे पास करने में कोई दिक़्क़त नहीं होगी। असली चुनौती है इसे राज्य सभा से पास करवाना। इस विधेयक पर पार्टियाँ क्या स्थान रखेंगी, उससे उनके धर्मनिपेक्षता के सिद्धांतों की अग्निपरीक्षा भी होनी है। मूल रूप से यह विधेयक अवैध प्रवासियों को भारत में नागरिकता देने के सवाल पर धर्म के आधार पर भेदभाव करता है। कुछ धर्मों को किसी दूसरे धर्म से अलग और बड़ा दिखाने की क़वायद की गयी है। इसके अलावा कुछ क़ानून जैसे विदेशी क़ानून 1946 तथा पासपोर्ट क़ानून 1920 के कई प्रावधानों में भी छेड़छाड़ की गयी है जिसके द्वारा अवैध प्रवासियों की पहचान अब धर्म के आधार पर होगी। अब नए विधेयक की मदद से कोई ग़ैर-मुसलिम अगर भारत में 31 दिसम्बर 2014 के पहले आया हो, भले ही ग़लत तरीक़े से, उसको गिरफ़्तार और वापस भेजने की कार्रवाई नहीं की जाएगी। ग़ैर-मुसलिम लोग अगर 2014 के पहले छह साल अगर ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से भी क्यों न रहे हों, भारत की नागरिकता मिलने के योग्य होंगे।

पूरे विश्व में शरणार्थियों को अपने देश में रखना और नागरिकता देना मानवता के सिद्धांत पर आधारित होता है। उस पर किसी धर्म का आवरण नहीं रखा जाता।

नागरिकता संशोधन विधेयक में मुसलिमों को अलग रखने से भारत के संविधान की आत्मा पर प्रहार होगा और साथ ही संविधान की धारा 14 और 21 का सीधा उल्लंघन माना जाएगा। ऐसा कोई क़ानून संविधान की मूल भावना के विपरीत भारत के इतिहास में शायद ही कभी लाया गया होगा।

अगर बीजेपी अखंड भारत की बात करती है तो पड़ोसी देशों से आए किसी भी धर्म के शरणार्थी को उसी अखंड भारत का हिस्सा माना जाना चाहिए, फिर धर्म के आधार पर भेदभाव क्यों?

ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ मुसलिम और प्रगतिशील समाज ही इस विधेयक के विरोध में खड़ा हुआ है। असम में इसके ख़िलाफ़ तीखी प्रतिक्रिया हो रही है। असम समझौते के अनुसार, 24 मार्च 1971 के बाद आए लोगों को, चाहे वे हिंदू हों या मुसलिम, असम से बाहर करना है। यहाँ तो इस संशोधन विधेयक की मदद से 2008 में आए बंगाली हिंदू भी असम के नागरिक माने जाएँगे। सनद रहे कि असम समझौते के अनुच्छेद 6 में असम की संस्कृति और भाषा को अक्षुण्ण रखने की बात कही गयी थी। दूसरे राज्यों से आए हुए हिंदुओं को भी असम का नागरिक नहीं माना जा सकता है अगर वे 24 मार्च 1971 के बाद आए हैं। पर ऐसा लगता है कि बीजेपी असम में नुक़सान उठाने को तैयार है अगर अन्य राज्यों में इससे राजनीतिक एवं चुनावी लाभ मिलता है।

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संयुक्त राष्ट्र की घोषणा का उल्लंघन

संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1948 में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा को अंगीकार किया था। भारत ने उस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए हैं। इस घोषणा के अनुच्छेद 15 में साफ़ लिखा है कि प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी राष्ट्र विशेष की नागरिकता का अधिकार है और किसी को भी मनमाने ढंग से अपने राष्ट्र की नागरिकता से वंचित न किया जाएगा या नागरिकता के परिवर्तन करने से मना किया जाएगा।

नागरिकता संशोधन विधेयक भारत को एक हिंदू बहुलवादी राष्ट्र के रूप में स्थापित करता है जिसे अपने तरीक़े से यह फ़ैसला लेने का अधिकार होगा कि वह किस अल्पसंख्यक समुदाय को अपने देश में रहने की इजाज़त देगा और किसको नहीं।

यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि नागरिकता संशोधन विधेयक भारत के विश्वव्यापी धर्मनिरपेक्ष छवि पर एक बदनुमा दाग़ की तरह होगा। वे ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ सिद्धांत की व्याख्या और विश्व गुरु बनने का सपना क्या इसी तरह के क़ानून बना कर पूरा करेंगे? एक सभ्य समाज इस तरह के क़ानूनों का समर्थन नहीं कर सकता जिसमें धार्मिक कट्टरवाद झलकता हो। यह क़ानून हमें एक-दूसरा इज़राइल बनाने जा रहा है, जबकि यह भारत है। यहाँ सभी धर्मों के लोग सदियों से साथ रहते आये हैं। हम क्यों नस्लवादी और फ़ासीवादी संस्कृति की ओर बढ़ें?

राजनीतिक दलों को अब यह फ़ैसला करना है कि इतिहास के इस अँधेरे समय में वे किस विचारधारा के साथ खड़े हैं? यहाँ बात संख्याओं की नहीं, सिद्धांतों की है कि भारत गाँधी के बताए रास्ते पर चलेगा या गोडसे के?

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