दिल्ली के चुनावों की धमक सुनाई पड़ने लगी है। कभी भी तारीख़ों का एलान हो सकता है। पर लगता है अमित शाह ने अतीत से सबक़ नहीं लिया है। कहते हैं जो इतिहास से सबक़ नहीं लेते वह इतिहास को दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं। अमित शाह कह रहे हैं - ‘टुकड़े टुकड़े गैंग को सबक़ सिखाने का समय आ गया है।’ मुझे उनका बयान सुनकर हैरानी हुई और निराशा भी। हैरानी इसलिए कि 2015 के विधानसभा चुनावों में मोदी ने अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम को ‘अराजक’ कहा था और ‘जंगल भेजने’ की बात की थी। एके-49 कह कर उनको आतंकवाद से भी जोड़ने का प्रयास किया था। यह वह वक़्त था जब मोदी की लोकप्रियता अपने शिखर पर थी। और दिल्ली चुनावों के पहले झारखंड, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र और हरियाणा जीत चुके थे। सरकारें बनवाई थीं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी लोकसभा की सातों सीट हार चुकी थी, पस्त थी।
मोदी के बेतुके हमलों के बाद दिल्ली चुनावों ने सबको चौंका दिया था। 70 में से 67 सीटें ‘आप’ जीती और बीजेपी 3 सीटों पर सिमट गयी। मोदी की अपराजेयता पर पहला और सबसे क़रारा झटका केजरीवाल ने दिया था। यानी दिल्ली के लोगों को राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता और आतंकवाद के नाम पर बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता। दिल्ली में कोई भी दल इतनी सीटें कभी भी लेकर नहीं आया। आज फिर अमित शाह दिल्ली के लोगों की बुद्धि और विवेक पर प्रश्न-चिह्न खड़ा कर रहे हैं। क्या उनको 2015 की जानकारी नहीं है? क्या उनको ग़लत सलाह दी जा रही है? या फिर वह जानबूझकर ऐसा कह रहे हैं?
अमित शाह को भारतीय राजनीति का चाणक्य कहा जाता है। वह राजनीति के हर दाँव-पेच में माहिर माने जाते हैं। जीतना और हर हाल में जीतना उनका एक मात्र मंत्र है। जीतने के लिए वह कुछ भी कर गुज़रते हैं और करते हैं। लेकिन अमित शाह की एक बड़ी कमज़ोरी है। कमज़ोर खिलाड़ियों के सामने वह अच्छा खेलते हैं। जो डर जाता है, उसके सामने अच्छा खेलते हैं। जो मैदान छोड़ने के लिए तैयार होता है, उसके सामने वह अच्छा खेलते हैं। पर जब सामना आक्रामक नेता से होता है तो वह फिसल जाते हैं। उनकी चालें उलटी पड़ने लगती हैं और वह बड़ी आसानी से परास्त हो जाते हैं।
अमित शाह मनोवैज्ञानिक लड़ाई से जंग शुरू करते हैं पर जैसे ही सामने वाला आँख में आँख डाल कर बात करने लगता है, उनकी रणनीति बिखरने लगती है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय अमित शाह के ज़रिये मीडिया में ख़बरें प्लांट की गयीं कि दिल्ली चुनावों में पन्ना प्रभारी बनाये गये हैं और 282 सांसदों को मैदान में उतार दिया गया है जो घर-घर जा कर बीजेपी के लिए वोट माँग रहे हैं। हक़ीक़त यह थी कि बीजेपी में हमेशा से पन्ना प्रभारी होते थे। जिन्हें अपने इलाक़े-मोहल्ले के बीजेपी समर्थकों को पोलिंग बूथ तक लाने की ज़िम्मेदारी दी जाती है। यह ख़बर अख़बारों में छपने के बाद आप में भी थोड़ी ‘नर्वसनेस’ आयी पर उसने यह तय किया कि अपने अजेंडे पर रहना है यानी विकास की बातें करनी हैं। किरण बेदी को अंतिम समय में उतार कर फिर केजरीवाल को भटकाने की कोशिश की गयी। हुआ क्या? मोदी के केजरीवाल को अराजक कहने के बाद भी बीजेपी उतनी सीटें जीत पायी जितने एक साइकिल पर बैठ कर विधानसभा जा सकते थे। इसी तरह से बिहार चुनाव में भी नीतीश और लालू जैसे आक्रामक नेताओं के सामने अमित शाह की सारी की सारी रणनीति धरी की धरी रह गयी। फिर चाहे गोमांस का मसला हो या फिर बिहार के डीएनए का ज़िक्र हो। अमित शाह ने लालू-नीतीश के सामने छोटे-छोटे दलों, पिछड़ों और दलितों में अति पिछड़ों और अति दलितों का गठबंधन खड़ा करने की कोशिश की। नतीजा क्या हुआ? बीजेपी बुरी तरह से हारी। हार का आलम यह था कि बिहार चुनाव के आख़िरी दो चरणों में मोदी के फ़ोटो-पोस्टर-बैनर भी हटाने पड़े।
अमित शाह की कामयाबी
इसमें कोई दो राय नहीं कि इसके बाद बीजेपी ने यूपी, उत्तराखंड, असम के चुनाव जीते। पर इन तीनों राज्यों में उस वक़्त की सरकारों के ख़िलाफ़ एंटी-इनकंबेंसी का असर ज़्यादा था। अमित शाह की कामयाबी यह थी कि मोदी ने नोटबंदी के बाद भी लोगों को अपने से विमुख नहीं होने दिया। मोदी ने इस ‘ऐतिहासिक भूल’ को भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ ऐतिहासिक अवसर के तौर कामयाबी से पेश किया। अखिलेश यादव और मायावती में वो तेवर नहीं थे जो लालू-नीतीश ने दिखाए थे या फिर केजरीवाल ने। अखिलेश अपने पिता की तुलना में अधिक पढ़े-लिखे हैं पर मुलायम जैसी ज़मीनी समझ और आक्रामकता नहीं है। मायावती वैसे भी मोदी के आने के बाद से न जाने क्यों डरी-डरी सी दिखती हैं। मोदी-अमित शाह से कोई भी जंग डर कर नहीं जीती जा सकती है।
कांग्रेस ने लिया सबक़
गोवा के अनुभव के बाद कांग्रेस ने सबक़ लिया। गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस शुरू से हमलावर रही, बीजेपी के पसीने छूट गए। गुजरात में तो मनमोहन सिंह पर पाकिस्तान के साथ मिलकर चुनावों को प्रभावित करने के आरोप लगाए। फिर भी बीजेपी सौ के आँकड़े के पार नहीं जा पायी। अहमद पटेल के राज्यसभा चुनाव में अमित शाह की कोई रणनीति काम नहीं आयी। कर्नाटक में मतगणना ख़त्म होने के पहले ही कांग्रेस ने जेडीएस को समर्थन का एलान कर सारी रणनीति ध्वस्त कर दी। यह अलग बात है कि बाद में विधायकों को तोड़कर कुमारस्वामी की सरकार गिरा दी और बीजेपी की सरकार बना दी। मध्य प्रदेश, राजस्थान, और छत्तीसगढ़ के तीन हिंदी भाषी राज्य बीजेपी हारी।
सबसे बड़ा उदाहरण महाराष्ट्र का है। शरद पवार, जिनको चुका हुआ नेता बीजेपी ने क़रार दिया था, अमित शाह की आँख के सामने शिवसेना को तोड़ कर ले गए। अजीत पवार का खोखला दाँव बीजेपी ने चला पर वह फूँका हुआ कारतूस साबित हुआ। सारे दाँव चल कर देख लिए गये। रातोरात देवेंद्र फडणवीस को शपथ दिलायी गयी पर कितने दिन चली सरकार सबको मालूम है। पवार के सामने कैसे और क्यों फ़ेल हो गये अमित शाह, इसकी बानगी झारखंड में दिखी। पार्टी के पास अब कोई नया अजेंडा बचा नहीं है। अजेंडा है तो नागरिकता क़ानून और राम मंदिर के ज़रिए ध्रुवीकरण की राजनीति का। पर कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने गठबंधन, स्थानीयता और बीजेपी सरकार के कामों पर चुनाव प्रचार को फ़ोकस कर बीजेपी की पूरी धार को भोथरा कर दिया। बीजेपी अपना दो फ़ीसदी वोट बढ़ा कर भी हार गयी। कहाँ गयी चाणक्य बुद्धि?
भारतीय राजनीति के जिस चाणक्य के बारे में कहा जाता था कि 2014 में यूपी में छोटे-छोटे जाति समूहों को इकट्ठा कर बीजेपी को अस्सी में से 71 सीटें जितायी थीं, वही यह नहीं समझ पाया कि लोक जनशक्ति पार्टी और आजसू के बीजेपी से अलग होने पर भारी नुक़सान होगा।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वह वाक़ई में चाणक्य हैं या मीडिया ने बना दिया? मेरा अपना मानना है कि अमित शाह बेहद मेहनती नेता हैं। चतुर भी हैं। बीजेपी जैसे संगठन में नई ऊर्जा भरी। छोटी जातियों को बीजेपी की तरफ़ लाने का प्रयास किया। संगठन में सोशल इंजीनियरिंग की। पिछड़ी जातियों को नेतृत्व की अगली पंक्ति में खड़ा करने का काम भी किया। पर ये सब वह कर पाये मोदी की लोकप्रियता की छत्रछाया में। अमित शाह मोदी की छाया हैं। मोदी कामयाब हैं तो वह कामयाब हैं। मोदी फ़ेल तो अमित शाह फ़ेल। मोदी-अमित की जोड़ी को अभी वह गुण दिखाना है जो इंदिरा गाँधी में था। जनता पार्टी से हारी बाज़ी तीन साल में जीत ली थी। आपातकाल से उपजे लोगों के भयानक ग़ुस्से को सहानुभूति में बदलने का जो हुनर इंदिरा गाँधी में था वह मोदी-अमित शाह में फ़िलहाल नहीं दिखता। ये दोनों नेता सत्ता आधारित उपक्रम करने में माहिर हैं, सत्ता से अलग रणनीति बनाने में हालत ख़राब हो जाती है। ऐसे में दिल्ली में केजरीवाल के सामने अमित शाह को नये तेवर दिखाने होंगे, नये पैंतरे चलने होंगे, और नयी बात कहनी होगी, पुरानी घिसी-पिटी बातों का सिक्का अब नहीं चलने वाला। अन्यथा दिल्ली दूर ही रहेगी।
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