क्या विवशता थी कि एक ताक़तवर स्त्री, जिसे आग में न जलने का वरदान था, उसे आग में झोंक दिया गया। मुझे होलिका दहन में वे तमाम सती स्त्रियाँ याद आती हैं जो जिंदा चिता पर जला दी गईं।
मुझे होलिका दहन में वे तमाम रानियाँ याद आती हैं जिन्होंने तलवार उठाने के बजाय आग में कूद कर जौहर कर लिया। स्त्री के जीवन में, कामनाओं में कितनी आग भर दी गई है।
यहाँ पर मुझे वृंदावन लाल वर्मा के प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास मृगनयनी का एक अंश याद आ रहा है जिसमें वे कहते हैं- "पहले की नारियों ने आग और चिता को जितना प्यार किया, उसके बराबर तीर और तलवार से भी करना चाहिए था।"
आख़िर महिलाएँ क्यों नहीं समझतीं
कुछ रवायतें हम ढोते चले जा रहे हैं। दिमाग बंद है, उसके आगे-पीछे कुछ नहीं देखना। मुझे तो सबसे अधिक आश्चर्य होता है जब कोई स्त्री इस जश्न में शरीक होती है। वह नहीं जानती कि उसने होलिका को नहीं, अपने अस्तित्व को आग में झोंक कर ख़ुद को सदियों पीछे ढकेल दिया है। पढ़ी लिखी स्त्रियों ने भी इस परंपरा पर ग़ौर नहीं किया।
ये वही स्त्रियाँ हैं, वही समाज है जो सूर्पनखा की नाक काटे जाने पर ख़ुश होता है, राम-लक्ष्मण की जय-जयकार कर उठता है। इसी का असर है कि भारतीय समाज में स्त्रियाँ प्रेम की पहल करने से डरती हैं।
धर्म के रास्ते बहुत से भय मान्यता पा जाते हैं और इनका पालन-पोषण स्त्री समुदाय करता चला आ रहा है। लेकिन वह उस पर तार्किक होकर सोचता ही नहीं।
स्त्री की ताक़त से जलता है समाज
सूर्पनखा ने प्रेम और अभिसार के लिए पहल की तो नाक कट गई। होलिका ने आग में न जलने का वरदान पाया तो आग में झोंक दी गई। स्त्री की ताक़त ही समाज के लिए आँख की किरकिरी है। होलिका दहन और कुछ नहीं, धार्मिक सत्ता की पुनर्बहाली है, स्थापना है, ईश्वरीय सत्ता की स्थापना, क्योंकि असुर हिरणकश्यप ने ईश्वर की सत्ता को मानने से ही इनकार कर दिया था। उसका पुत्र प्रहलाद ईश्वर भक्त था। असुर ने कई बार अपने पुत्र को मारने की कोशिश की, मगर ईश्वर स्वयं आकर उसे बचा लेते थे।
हिरणकश्यप की बहन होलिका को भगवान शंकर की तरफ़ से ऐसी चादर मिली थी जिसे ओढ़ ले तो कोई आग उसे नहीं जला सकती थी। वह अग्नि की उपासक थी। उसे अग्नि का भय नहीं था। क्या वह अति आत्मविश्वास का शिकार हुई या किसी दबाव या मोह में तैयार हुई।
कहते हैं, अपनी इच्छा और अपने भाई के आदेश पर होलिका अपने भतीजे को गोद में लेकर अग्नि चिता पर बैठ गई। कहते हैं कि वह चादर अपने आप उड़ कर प्रहलाद के ऊपर आ गई और होलिका जल गई।
होलिका जली, उसके साथ ही उसकी सारी कामनाएँ जल गईं। वह हमेशा के लिए खलनायिका बन गई, जिसे सदियों तक इस अभिशाप से, कलंक से मुक्ति मिलना असंभव था।
इलोजी इस सबसे बेख़बर, बारात लेकर धूमधाम से होलिका को ब्याहने पहुँचने वाला था। जब वह पहुँचा तो हल्की-हल्की आग जल रही थी और प्रहलाद बच गया था, होलिका जल कर राख हो चुकी थी। दुख के मारे बावला हो गया इलोजी। उसका सबकुछ, सारे स्वप्न, सारी जिंदगी, सारा प्रेम होलिका के साथ जल कर भस्म हो चुका था।
इलोजी ने उसी आग में कूद कर जान देने की कोशिश की, लेकिन आग इतनी कम थी कि वह जल न सका। वह दुख के मारे अपना मानसिक संतुलन खो बैठा और जलती हुई लकड़ियाँ और गरम राख उठा कर वहाँ मौजूद लोगों पर फेंकने लगा। बताते हैं कि इसके बाद वह पागल ही हो गया और सारी जिंदगी इसी पागलपन में बिता दी।
होलिका-इलोजी को पूजते हैं लोग
आज भी हिमाचल के लोग होलिका-इलोजी दोनों की प्रेम कथा को याद करते हैं और उन्हें पूजते हैं। दो प्रेमियों की दुख भरी दास्तां कैसे लोक मानस से ओझल कर दी गई कि किसी को याद ही नहीं रहता कि होलिका एक प्रेमिल स्त्री थी जो भाई मोह में फंस कर खलनायिका बन गई। ऐसी अभिशप्त हुई कि उसका नाम तक लेना गंवारा नहीं है।
होलिका दहन के लिए ख़ास और शुभ मुहुर्त बताने वाले लोगों और संचार माध्यमों की कमअक्ली और क्रूरता पर बेहद अफ़सोस होता है। बुराई और अहंकार के प्रतीकों को फूंकने वाले अपने भीतर कितने छल-कपट से भरे हैं, उन्हें कौन आइना दिखाए।
अगर वे ऐसे न होते तो शताब्दियाँ बीत गईं, अब तक बुराई और अहंकार को प्रतीक बना कर जला न रहे होते। कोई बावला “इलोजी” आए और उनके ऊपर फेंके जलती हुई लकड़ियाँ और राख, तब समझ में आए कि वे क्या महापाप कर रहे हैं।
ये महापाप शताब्दियाँ ढोती हैं, पीढ़ियाँ निर्वाह करती हैं। उनसे घृणा करती हैं। उसे अपनी ही प्रजाति घृणा से भर कर बार-बार आग में झोंकती है। ऐसा करते हुए स्त्रियाँ सती की चिता भूल जाती हैं। पुराणों में कुछ स्त्रियों के नाम अभिशप्त हैं, वे सब खलनायिकाएँ हैं जिन्हें कोई याद नहीं करना चाहता।
सूर्पनखा, होलिका, कैकेयी, मंथरा एवं अन्य कई नाम ऐसे हैं जो सदा के लिए लोक मानस में वर्जित हैं। इससे बड़ी पौराणिक साजिश कोई और नहीं हो सकती।
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